भूमि उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण उपादान है । साधारण बोलचाल की भाषा में ‘ भमि ' का अर्थ जमीन या पृथ्वी की ऊपरी सतह से लिया जाता है जिस पर हम चलते - फिरते तथा रहते हैं , किन्तु अर्थशास्त्र में ' भूमि ' शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया जाता है । अर्थशास्त्र में भूमि से अभिप्राय उन समस्त प्राकृतिक संसाधनों से है जो प्रकृति की ओर से मनुष्य को पृथ्वी - तल पर , उसके नीचे तथा उसके ऊपर नि : शुल्क प्राप्त होते हैं । संक्षेप में , अर्थशास्त्र में प्रकृति द्वारा प्रदान किए गए समस्त उपहारों को भूमि माना जाता है ।
भूमि की परिभाषाएँ
ए०एच० स्मिथ के अनुसार , “ भूमि से अभिप्राय प्रकृति से प्राप्त उन समस्त उपहारों से है जिनका मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करने वाली वस्तुओं की प्राप्ति के लिए प्रयोग करता है । ”
डॉ० मार्शल के अनुसार , “ भूमि का अर्थ केवल पृथ्वी की ऊपरी सतह से ही नहीं है , वरन् उन सभी पदार्थों तथा शक्तियों से है जो प्रकृति ने मनुष्य को नि : शुल्क उसकी सहायता के लिए भूमि , पानी , हवा , प्रकाश तथा ताप के रूप में प्रदान की हैं । इस प्रकार मार्शल ने ' भूमि ' शब्द में उन समस्त पदार्थों तथा शक्तियों को शामिल किया है जो भूमि की सतह पर , भूमि की सतह से नीचे तथा भूमि की सतह के ऊपर प्रकृति द्वारा मनुष्य की सहायता के लिए निर्मूल्य प्रदान की गई हैं ; जैसे -
प्रो० जे०के० मेहता ( J . K . Mehta ) के अनुसार , “ वे सभी प्राकृतिक पदार्थ जिनका प्रयोग आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए किया जाता है , भूमि कहलाते हैं । ”
प्रो० पेन्सन ( Penson ) ने भूमि में इन प्राकृतिक संसाधनों को शामिल किया है —
भूमि की विशेषताएँ
भूमि की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं -
1. प्रकृति की निःशुल्क देन ( Free Gift of Nature )
जल , वायु , खनिज पदार्थ , वन सम्पत्ति आदि को प्राप्त करने के लिए समाज को कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा है , इसलिए भूमि को प्रकृति की नि : शुल्क देन कहा जाता है ।
2 . अचल या गतिहीन ( Immobile )
भूमि का स्थान नहीं बदला जा सकता अर्थात् इसे एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर नहीं ले जाया जा सकता । उदाहरणार्थ , हिमालय पर्वत को भारत से उठाकर जापान में नहीं ले जाया जा सकता । इसी प्रकार , पर्वतीय क्षेत्रों की जलवायु को मैदानों में नहीं ले जाया जा सकता ।
3 . निष्क्रिय साधन ( Passive Factor )
भूमि उत्पादन का निष्क्रिय साधन ( उपादान ) है अर्थात् भूमि स्वयं किसी भी पदार्थ का उत्पादन नहीं करती , बल्कि मनुष्य भूमि पर श्रम और पूँजी लगाकर अनाज , फल , सब्जी आदि का उत्पादन करता है ।
4 . अनाशवान ( Indestructible )
मनुष्य भूमि को न तो उत्पन्न कर सकता है और न ही उसे नष्ट कर सकता है । भूमि की उर्वरता को तो कम या नष्ट किया जा सकता है , किन्तु उसका अस्तित्व अविनाशी है । इस प्रकार भूमि के स्वरूप को तो बदला जा सकता है , किन्तु उसे समाप्त नहीं किया जा सकता ।
5 . सामित पूर्ति ( Limited Supply )
भूमि की मात्रा निश्चित तथा सीमित है । उत्पत्ति के अन्य उपादान तो परिवर्तनशील होते हैं , किन्तु भूमि के परिमाण को न तो घटाया जा सकता है और न ही उसे बढ़ाया जा सकता है । हवा , प्रकाश , खनिज पदार्थ आदि जो प्रकृति ने प्रदान किए हैं , मनुष्य उनमें कोई वृद्धि नहीं कर सकता । कुछ विद्वानों के विचार में मनुष्य परिश्रम द्वारा दलदल वाली भूमि को सुखाकर या पाटकर या पहाड़ों को गिराकर तथा जंगलों को काटकर भूमि के क्षेत्रफल को बढ़ा सकता है । हॉलैण्ड के निवासियों ने ऐसा ही किया था । वहाँ समुद्र के जल को सुखाकर खेती योग्य भूमि में वृद्धि कर ली गयी थी , किन्तु इससे ‘ भूमि की सीमितता सम्बन्धी विशेषता गलत सिद्ध नहीं हो जाती ; क्योंकि इस प्रकार से भूमि का केवल रूप - परिवर्तन ही हुआ , उसकी कुल पूर्ति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । दूसरे , इस प्रकार खेती योग्य बनाई गई भूमि का परिमाण कुल पूर्ति के परिमाण के अनुपात में बहुत कम होता है ।
6 . विविधता ( Variety )
भिन्न - भिन्न स्थानों की भूमि भिन्न - भिन्न प्रकार की होती है । कहीं की भूमि उपजाऊ है तो कहीं की भूमि बंजर है । कहीं पर नदी - नाले हैं तो कहीं पर पहाड़ हैं । कहीं की मिट्टी काली है तो कहीं की पीली । किसी क्षेत्र में अधिक सर्दी पड़ती है तो कहीं अधिक गर्मी । इस विविधता के कारण भूमि की उपजाऊ - शक्ति में भिन्नता पाई जाती है ।
7 . अनिवार्य उपादान ( Necessary Factor )
भूमि उत्पादन का एक अनिवार्य उपादान है , क्योंकि भूमि के बिना किसी भी प्रकार का उत्पादन कार्य सम्भव नहीं हैं । इसीलिए भूमि को उत्पादन का मौलिक या प्राथमिक उपादान कहा जाता है ।
8 . स्थिति का महत्त्व ( Importance of Location )
भूमि का मूल्य उसकी स्थिति पर निर्भर करता है । शहरों के निकट स्थित भूमि का मूल्य अधिक होता है , जबकि शहरों से दूर स्थित भूमि का मूल्य कम होता है । यह उल्लेखनीय है कि भूमि का मूल्य स्थिति के अतिरिक्त उसकी उर्वरता , जलवायु , वर्षा आदि पर भी निर्भर करता है ।
9 . विविध उपयोग ( Miscellaneous Uses )
भूमि के एक ही टुकड़े का प्रयोग कई प्रकार से किया जा सकता है । उदाहरणार्थ ; जिस खेत पर आज गेहूं बोया गया है उसी पर बाद में सब्जी भी उगाई जा सकती है । इसी प्रकार , भूमि के एक ही टुकड़े पर खेती की जा सकती है या मकान बनाया जा सकता है अथवा कारखाना भी स्थापित किया जा सकता है ।
भूमि का महत्त्व
भूमि उत्पादन का एक प्राथमिक तथा अनिवार्य उपादान है । भूमि के बिना कोई भी उत्पादन कार्य सम्भव नहीं हैं । उत्पादन - कार्य में भूमि का वही स्थान होता है । जो बच्चे के जन्म में माता का होता है । इसलिए भूमि को ‘ धरती माता ' कहा जाता है । उत्पादन में भूमि का महत्त्व निम्न बातों से भली - भाँति स्पष्ट हो जाएगा
1 . काम करने तथा रहने का आधार
भूमि की सतह या जमीन पर मनुष्य चलते - फिरते हैं , कार्य करते हैं , विभन्न प्रकार के व्यवसाय करते हैं तथा मकान , दुकान व कारखाने बनाते हैं । भूमि के अभाव में ये सभी कार्य असम्भव हैं , फिर सम्बन्धित क्षेत्र की जलवायु का मनुष्य के स्वभाव पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । भूमि से ही मनुष्य को हवा , धूप , पानी आदि प्राप्त होते हैं जो उसके जीवन के लिए अनिवार्य हैं । इस प्रकार भूमि मनुष्य के आर्थिक तथा सामाजिक जीवन का आधार है ।
2 . प्राथमिक उद्योगों का विकास
कृषि , मछली - पालन , खनिज व्यवसाय , वन - व्यवसाय आदि प्राथमिक उद्योगों का विकास प्रकृति के उपहारों पर निर्भर करता है । जिस देश में कृषि योग्य भूमि , जल , वन , खाने , अनुकुल जलवायु आदि प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं , वहाँ प्राथमिक व्यवसायों का विकास स्वाभाविक रूप से हो जाता है ।
3 . आर्थिक विकास का आधार
किसी देश का आर्थिक विकास बहुत कुछ वहाँ पर पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों ( भूमि ) पर निर्भर करता है । किसी देश में जितनी अधिक मात्रा में खनिज पदार्थ , उपजाऊ भूमि , जल , अनुकूल जलवायु , वन आदि पाए जाते हैं , वह उतनी ही तीव्रता से अपना आर्थिक विकास कर सकता है । अमेरिका में विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता है जिस कारण आज वह एक धनी देश है ।
4 . रोजगार का आधार
मनुष्य को रोजगार प्रदान करने में भमि - बहुत अधिक महत्त्व है । भारत में लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि आश्रित है । खानों तथा वनों का भी लोगों को रोजगार दिलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है ।
5 . शक्ति के साधन
वर्तमान युग में हर प्रकार के उत्पादन के लिए बिजली , कोयला , तेल आदि की आवश्यकता पड़ती हैं । शक्ति के इन सभी साधनों का स्रोत भूमि ही है ।
6 . व्यापार का आधार
भूमि का किसी देश के व्यापार में महत्वपूर्ण योगदान होता है । अधिकतर देशों का अधिकांश आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार भूमि द्वारा उत्पादित वस्तुओं ; जैसे - गेहूं , चावल , चाय , तेल , दूध खनिज पदार्थ , लकड़ी , चमड़ा , ऊन आदि में ही होता है ।
7 . गौण धन्धों तथा कल - कारखानों का विकास
भूमि से अनेक प्रकार के कच्चे पदार्थ उपलब्ध होते हैं ; जैसे - लोहा , ताँबा , कोयला आदि । साथ ही , भूमि से कृषि पदार्थ ; जैसे - कपास , गन्ना , जूट आदि तथा अनेक प्रकार के पशु - पदार्थ ; जैसे - चमड़ा , माँस , हड्डियाँ आदि तथा अनेक प्रकार के शक्ति के साधन उपलब्ध होते हैं , जैसे - कोयला , तेल , जल , वायु आदि । इन सबकी सहायता से देश में विभिन्न प्रकार के व्यवसायों तथा कल - कारखानों की स्थापना की जाती हैं ।
8 . परिवहन तथा संचार के साधनों का विकास
किसी देश के परिवहन तथा संचार के साधनों ; जैसे - सड़क , रेलमार्ग , डाक तार आदि का विकास भूमि की बनावट पर निर्भर करता है । भूमि के समतल होने पर इन साधनों का विकास आसानी से , कम समय में तथा कम लागत पर कर लिया जाता है , जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में इन साधनों का विकास कठिन तथा महँगा होता है । इसके अतिरिक्त , जल - मार्ग तथा वायु - मार्ग का विकास जलवायु पर निर्भर होता है ।
भूमि की कार्यक्षमता या उत्पादकता
भूमि की कार्यक्षमता का अर्थ भूमि के किसी टुकड़े की उत्पादन शक्ति से लिया जाता है । अन्य बातें समान रहने पर , भूमि के जिस भाग से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है , उसकी कार्यक्षमता ( उत्पादकता ) अपेक्षाकृत अधिक होती हैं । भूमि की कार्य क्षमता एक सापेक्ष धारणा है । भूमि के विभिन्न टुकड़ों के उत्पादन की परस्पर तुलना करके ही यह जाना जा सकता है कि किसी भूखण्ड़ की कार्यक्षमता कम है या अधिक है । कार्यक्षमता या उत्पादकता प्राप्त करने के लिए उत्पादन की मात्रा तथा गुण दोनों पर ध्यान दिया जाता है ।
भूमि की कार्यक्षमता को प्रभावित करने वाले तत्त्व
भूमि की कार्यक्षमता को मुख्यतया निम्नलिखित बातें प्रभावित करती हैं ।
1 . प्राकृतिक तत्त्व
भूमि की उत्पादन शक्ति , मिट्टी , जलवायु , मौसम , वर्षा , स्थिति , सूर्य का प्रकाश आदि प्राकृतिक तत्त्वों पर निर्भर करते हैं । कहीं की भूमि रेतीली होती है तो कहीं की चिकनी , कहीं पर समुचित वर्षा होती है तो कहीं पर कम । उदाहरणार्थ ; उत्तर प्रदेश के गंगा - यमुना के क्षेत्र की भूमि की उत्पादकता राजस्थान की रेतीली भूमि की अपेक्षा कहीं अधिक है ।
2 . भौगोलिक स्थिति
भूमि की उत्पादकता उसकी स्थिति पर निर्भर करती है । गाँव , शहर तथा मण्डी के पास की भूमि अधिक उत्पादक समझी जाती हैं । ऐसी भूमि तक खाद , बीज , श्रमिक आदि आसानी से तथा कम लागत पर पहुँचाए जा सकते हैं । इसके अतिरिक्त , ऐसी भूमि के उत्पादन को कम परिवहन - लागत पर मण्डियों तक पहुँचाया जा सकता है ।
3 . भूमि का उचित प्रयोग
कोई भूमि प्राकृतिक रूप से जिस कार्य के लिए उपयुक्त होती है , उसका प्रयोग उसी कार्य में करने पर उसकी कार्यक्षमता अधिक होती है । उदाहरणार्थ ; भिन्न - भिन्न मिट्टिया भिन्न - भिन्न फसलों के लिए उपयुक्त होती हैं । काली मिट्टी कपास के लिए तथा दोमट मिट्टी गेहूं , चावल , मक्का आदि खाद्यान्नों के उत्पादन के लिए उपयुक्त होती है । शहरों के पास की भूमि मकानों व कारखाना के लिए अधिक उपयुक्त होती है ।
4 . मानवीय तत्त्व
भूमि की उत्पादकता उस पर काम करने वाले किसानों तथा श्रमिकों की योग्यता पर भी निर्भर करती है । मनुष्य अपने परिश्रम तथा बुद्धि से बंजर भूमि तथा रेतीले मैदान को भी उपजाऊ भूमि में परिणत कर लेता हैं । उन्नत बीज व खाद का प्रयोग करके तथा सिंचाई के साधनों का विकास करके भूमि से कहीं अधिक उत्पादन प्राप्त कि जा सकता है । उदाहरणार्थ ; पंजाब व हरियाणा के किसानों ने परिश्रम तथा योग्यता से कृषि उत्पादन में असाधारण वृद्धि कर ली है ।
5 . आर्थिक कारण
भूमि की कार्यक्षमता निम्नलिखित आर्थिक कारणों पर निर्भर करती है ।
6 . स्थाई भूमि सुधार
भूमि पर विभिन्न स्थाई सुधार करके भूमि की उत्पदकता को बढ़ाया जा सकता है । इसी कारण भारत में भूमि सुधार । सम्बन्धी कई कानून पारित किए गए हैं । इन कानूनों ने जमींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया है तथा जोतों की उच्चतम सीमा निर्धारित कर दी है । देश में जोतों की चकबन्दी की गई है तथा सहकारी खेती को प्रोत्साहन दिया गया है ।
7 . उन्नत तकनीक
भूमि की उत्पादन क्षमता पर उत्पादन की उन्नत तकनीकों के प्रयोग का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । उत्पादन की आधुनिक तथा वैज्ञानिक विधियों द्वारा उत्पादन को कई गुना बढ़ाया जा सकता है ।
8 . सामाजिक तथा राजनीतिक तत्त्व
भूमि की उत्पादकता पर देश की सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति का भी प्रभाव पड़ता है । भारत में उत्तराधिकार के नियमों ने उपविभाजन तथा विखण्डन की समस्याएँ उत्पन्न करके भूमि की उत्पादकता को कम कर दिया है । संयुक्त परिवार प्रणाली तथा राजनीतिक अस्थिरता का भी भूमि की उत्पादन - क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
9 . सरकारी नीति
यदि सरकार उचित कृषि - नीति अपनाती हैं , किसानों को पर्याप्त साख - सुविधाएँ प्रदान करती है , सिंचाई सुविधाओं का विकास करती है , अनुसंधान - कार्यों को प्रोत्साहन देती है तथा किसानों को उत्तम बीज , खाद आदि सुलभ कराती है तो इससे भूमि की उत्पादकता बढ़ती है ।
भूमि उपयोग
भूमि प्रयोग की समस्या वैज्ञानिक अध्ययन के लिए अति दुर्गम है । यह अकेला प्रश्न नहीं है जिसका उत्तर एक ही अथवा सादे वाक्य द्वारा दिया जा सके , बल्कि समस्याओं का एक समूह है जिसको भिन्न - भिन्न रूप से लेना है , इनमें से कुछ समस्याएँ इस प्रकार रखी जा सकती हैं ।
संक्षेप में भूमि प्रयोग का प्रश्न इस बात के लिए मजबूर करता है कि हम साधनों के मूल्यांकन के हर पहलू को ज्ञात करें । इस प्रकार की खोज निश्चयात्मक रूप से साधनों के सम्बन्ध तथा कार्य प्रकृति को प्रदर्शित करती है । इस प्रकार , भूमि की अर्थव्यवस्था भूमि के विशाल प्रयोग ; जैसे – जंगलात , चारागाह , फसलों का उत्पादन और विशेषत्वा प्रत्येक उपयोग का निश्चय करती है तथा एक उपयोग से दूसरे उपयो । ओर ले जाती है । यह भूमि के उत्पादन को एक साधन मानकर उससे सम्बन्धित है तथा श्रम अर्थव्यवस्था अथवा परिवहन अर्थव्यवस्था के तुल्य मानी जा सकती है । देश की सबसे महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक साधन ' भूमि ' है जोकि कृषि उत्पादन का आधार है । आबादी बढ़ती है , परन्तु भूमि का धरातल निश्चित ही रहते है और इसमें से कुछ भाग खेती के लिए उपलब्ध होता है । इस पहेली के लिए कई पहलुओं पर विचार करने की आवश्यकता है । सिंचाई तथा कृषि विकास के अन्य कार्यों द्वारा जमीन की उत्पादन शक्ति बहुत काफी बढ़ाई जा सकती है । इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि उस भूमि को जो कि अब तक बंजर पड़ी है किस सीमा तक खेतीयोग्य बनाया जा सकता है । बढ़ती हुई । जनसंख्या का अर्थ है , उन क्षेत्रों को जिन पर अब तक खेती होती रही है उनको - गृह निर्माण कार्य के लिए उपयोग में लेना तथा सन्देशवाहक ; जैसे - सड़कें , रेल और हवाईजहाज मार्गों का विकास भी उपजाऊ भूमि को कम कर देगा । तेजी से निर्माण होने वाली नहरों तथा बड़े - बड़े शहरों की उन्नति के कारण बगीचों तथा खुले स्थानों के लिए भूमि की आवश्यकता होती है । सिंचाई के बाँधों में भी उपजाऊ भूमि का प्रयोग होता है । औद्योगिक कारखाने तथा दूसरे व्यावसायिक स्थानों के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रफल की आवश्यकता होती है । इन सभी विकास कार्यों में जहाँ कहीं भी उपजाऊ भूमि की बचत हो सकती हो , करनी चाहिए ।
देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 3,2873 लाख हेक्टेयर है । इसमें से 92.8 प्रतिशत भूमि के उपयोग सम्बन्धी है । भूमि के उपयोग के बारे में राज्यों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1950 - 51 में 404.8 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन थे । यह क्षेत्र वर्ष 1990 - 91 में बढ़कर 679.9 लाख हेक्टेयर हो गया था । इसी अवधि में बुवाई वाली भूमि 1187.5 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1422.4 लाख हेक्टेयर हो गई थी । फसलों के प्रकार की दृष्टि से विचार करें तो पता चलता है । कि खेती वाले कुल इलाकों में गैर - खाद्यान्नों के मुकाबले खाद्यान्नों की खेती बहुत अधिक होती है , तथापि वर्ष 1950 - 51 में 76.7 प्रतिशत भूमि पर खाद्यान्नों की खेती होती थी जो वर्ष 1990 - 91 में घटकर 69.0 प्रतिशत रह गई थी ।
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