हिन्दू विवाह का अर्थ एवं परिभाषा
हिन्दू विवाह संस्था संसार के समस्त सभ्य समाजों की विवाह संस्थाओं में अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है । इसका कारण यह है कि हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है , वैधानिक अथवा धार्मिक समझौता नहीं है , वरन् एक स्थायी सम्बन्ध है । इसके उद्देश्य केवल शारीरिक न होकर आध्यात्मिक भी हैं । संक्षेप में , हिन्दू विवाह की परिभाषा इन शब्दों में दी जा सकती है ।" हिन्दू विवाह की परिभाषा एक धार्मिक संस्कार के रूप में की जा सकती है जिसमें धर्म प्रजोत्पत्ति तथा रति आदि के भौतिक , सामाजिक व आध्यात्मिक प्रयोजनों से एक स्त्री - पुरुष परस्पर स्थायी सम्बन्ध में बँध जाते हैं । ' ' हिन्दू विवाह की इस परिभाषा में विवाह का उद्देश्य ‘ पुत्रप्राप्ति ' न लिखकर ' प्रजोत्पत्ति ' लिखा गया है । इससे यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है । कि हिन्दू विचारों में कन्या को पुत्र से हेय नहीं समझा गया है ।
हिन्दू विवाह के उद्देश्य
यह माना गया है कि प्रत्येक हिन्दू का जीवन अनेक ऋणों से युक्त होता है । इन ऋणों में देवऋण , ऋषिऋण , पितृऋण , अतिथिऋण और जीवनऋण प्रमुख हैं । अतः हिन्दू विवाह का सर्वप्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को ऐसे अवसर और अधिकार प्रदान करना है जिससे वह विभिन्न ऋणों - से उऋण हो सके । हिन्दू विवाह के उद्देश्य संक्षेप में इस प्रकार हैं -
( 1 ) धर्म का पालन –
हिन्दू विवाह का सर्वप्रथम उद्देश्य व्यक्ति को धर्म का पालन करने का अवसर प्रदान करना रहा है । ' शतपथ ब्राह्मण ' में स्पष्ट लिखा है - पत्नी निश्चय ही पति का अर्धाग है , अत : जब तक पुरुष पत्नी प्राप्त नहीं करता तब तक वह पूर्णता को प्राप्त नहीं करता । जब वह अपनी पत्नी प्राप्त करता है तथा सन्तान प्राप्त करता है तो वह पूर्ण बन जाता है । इसी कारण श्रीरामचन्द्र जी को भी अश्वमेध यज्ञ करने के लिए सीता के अभाव में उनकी एक स्वर्ण प्रतिमा बनानी पड़ी थी । इस प्रकार पत्नी के अभाव में पुरुष धार्मिक कृत्य पूर्ण करने में । असमर्थ रहता है और धार्मिक कृत्यों को पूर्ण किए बिना मोक्ष की प्राप्ति होनी असम्भव होती है ।
( 2 ) प्रजोत्पत्ति –
हिन्दू परिवार में सन्तान का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । प्रजोत्पत्ति का तात्पर्य है — प्रजा + उत्पत्ति । यहाँ पर प्रजा ' शब्द का अर्थ अनेक लेखकों ने पुत्र से लगाया है , जो कि गलत है । प्रज्ञा शब्द का प्रयोग पुत्र अथवा कन्या किसी के लिए भी किया जा सकता है । यद्यपि इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेक धार्मिक संस्कारों के लिए पुत्र आवश्यक होता है । पितृव्यों को पिण्डदान देने और मृत्यु के उपरान्त किये जाने वाले संस्कार केवल पुत्र द्वारा ही सम्पन्न किये जा सकते हैं । यही कारण है कि विवाह की प्रक्रिया में सप्तपदी के समय पहला कदम बढ़ाते ही वर - वधू द्वारा यह कामना की जाती है कि हम दोनों मिलकर बहुत से पुत्र प्राप्त करें और वे वृद्धावस्था तक जीवित रहने वाले हों । ' अनेक पौराणिक गाथाएँ भी विवाह में पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य को स्पष्ट करती हैं ।
( 3 ) रति —
हिन्दू विवाह का तीसरा उद्देश्य रति या काम - आनन्द ( Sexual pleasure ) माना गया है । हिन्दू शास्त्रों में संभोग - सुख की तुलना ब्रह्मानन्द से की गई है । उपनिषदों में भी रति या सम्भोग को सबसे बड़ा आनन्द कहा गया है । यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्मशास्त्रकारों ने जहाँ एक ओर सम्भोग को मानव जीवन के लिए आवश्यक माना , वहाँ यह नियन्त्रण भी लगाया कि पुरुष को अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्त्री से सम्भोग नहीं करना चाहिए । उपरोक्त तीन उद्देश्यों के अतिरिक्त समाजशास्त्रियों ने हिन्दू विवाह के तीन और उद्देश्य बताये हैं , जो इस प्रकार हैं -
( 1 ) व्यक्तित्व का विकास -
स्त्री और पुरुष के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से विवाह आवश्यक है , क्योंकि स्त्री और पुरुष एक - दूसरे के पूरक होते हैं और एक - दूसरे के व्यक्तित्व के विकास में सहायक होते हैं ।
( 2 ) परिवार का निर्माण -
हिन्दू विवाह का एक उद्देश्य अपने परिवार के प्रति कर्तव्यों का पालन करना भी होता है । प्रत्येक व्यक्ति के अपने परिवार के प्रति कुछ ऐसे कर्तव्य होते हैं , जिन्हें वह विवाह सम्पन्न करके ही पूरा कर सकता है ।
( 3 ) सामाजिक कर्तव्यों का पालन –
विवाह का एक सामाजिक उद्देश्य भी होता है । मृत व्यक्तियों की खाली जगह भरने के लिए मानवों ( शिशुओं ) की आवश्यकता होती है और इस आवश्यकता की पूर्ति बिना विवाह के सम्भव नहीं है । समाज का अस्तित्व तभी बना रह सकता है । इस प्रकार सामाजिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए भी विवाह आवश्यक है ।
हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है
हिन्दू विवाह के प्रथम तीन उद्देश्यों से ही यह पता चल जाता है कि हिन्दू विवाह एक संस्कार है । इसमें कुछ ऐसे धार्मिक नियम , तरीके , कृत्य , आदि होते हैं जिनके बिना विवाह अधूरा रहता है । विवाह हिन्दुओं में एक प्रमुख संस्कार माना गया है । हिन्दू विवाह को संस्कार निम्नलिखित कारणों से माना जाता है -
( 1 ) विवाह के उद्देश्यों की दृष्टि से यह एक संस्कार है क्योंकि हिन्दू विवाह का सर्वप्रथम उद्देश्य धर्म का पालन करना है ।
( 2 ) उच्च - आदर्शो की दृष्टि से हिन्दू विवाह एक संस्कार है । इन आदर्शों में हिन्दुओं में पति - पत्नी का जन्म - जन्मान्तर का मिलन तथा स्त्री द्वारा पति को देवता मानना प्रमुख है ।
( 3 ) ऋणों की दृष्टि से हिन्दू विवाह एक संस्कार है क्योंकि पुत्र - प्राप्ति द्वारा एक हिन्दू | अपने पितृ - ऋण से उऋण होता है ।
( 4 ) विवाह की पद्धति की दृष्टि से हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है । धार्मिक | अनुष्ठानों में कन्यादान , होम तथा सप्तपदी प्रमुख हैं ।
( 5 ) कन्यादान की दृष्टि से हिन्दू विवाह एक संस्कार है क्योंकि हिन्दुओं में दान लेना और दान देना , पुण्य माने जाते हैं ।
( 6 ) आश्रम व्यवस्था एवं पुरुषार्थ की दृष्टि से भी हिन्दू विवाह एक संस्कार माना जाता है । गृहस्थ आश्रम सर्वश्रेष्ठ आश्रम माना जाता है तथा काम के पुरुषार्थ के बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है ।
उपर्युक्त आधारों पर ही के . एम . कपाड़िया ( K.M. Kapadia ) ने कहा है कि , " हिन्दू विवाह एक संस्कार है "।
हिन्दू विवाह के प्रकार ( स्वरूप )
हिन्दू शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया गया है । ' मनु ' , ' नारद ' , ‘ याज्ञवल्क्य ' , आदि स्मृतिकारों ने भी आठ प्रकार के विवाहों का ही उल्लेख किया है । इन आठों प्रकार के विवाहों का वर्णन करते हुए मनुस्मृति ' ( 3 - 9 ) में लिखा है -
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तयासुरः ।
गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टर्मोऽद्यमः । ।
अर्थात् ब्राह्म विवाह , आर्ष विवाह , प्राजापत्य विवाह , दैव विवाह , आसुर विवाह , गान्धर्व विवाह , राक्षस और पिशाच विवाह । लेकिन वशिष्ठ मुनि ने केवल छ : प्रकार के विवाह माने हैं ब्राह्म , दैव , आर्ष , गान्धर्व , क्षत्रिय ( राक्षस ) और मानुष ( आसुर ) । इन आठ प्रकारों में से ब्राह्म , देव , आर्ष और प्राजापत्य विवाह समाज द्वारा स्वीकृत हैं और शेष चार अस्वीकृत हैं । इन शेष चार प्रकार के विवाहों को अधर्म तथा निकृष्ट माना जाता है । मनु ने ब्राह्मणों के लिए दैव , आर्ष और प्राजापत्य ; क्षत्रियों के लिए राक्षस और वैश्यों तथा शूद्रों के लिए आसुर विवाह उचित बताया है । आठों प्रकार के शास्त्रीय विवाहों का परिचय इस प्रकार है -
( 1 ) ब्राह्म विवाह —
ब्राह्म विवाह पर प्रकाश डालते हुए मनु ने लिखा है -
आच्छाद्य चाचयित्व च श्रुति शीलवते स्वयम् ।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तिते ॥
अर्थात् “ कन्या को वस्त्र , अलंकार आदि से सुसज्जित करके विद्वान शीलवान वर को आमन्त्रित करके कन्यादान करने का नाम ब्राह्म विवाह है । ” इसके मुख्य धार्मिक संस्कार ‘होम ’ , ‘ पाणिग्रहण ’ और ‘ सप्तपदी ’ हैं । इस प्रकार के विवाह में किसी भी पक्ष पर किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं होता । इसीलिए इस विवाह को सर्वोत्तम विवाह समझा जाता है ।
( 2 ) आर्ष विवाह —
आर्ष विवाह का वर्णन करते हुए मनु ने लिखा है -
एक गोमिथुनं दे वा वरादादाय धर्मतः ।
कन्या प्रदानं विधिवदार्षों धर्मः स उच्यते ।
अर्थात् पवित्र धर्म के निर्वाह के उद्देश्य से , ऋषि से एक गाय और बैल अथवा इनके दो जोड़े लेकर कन्या के माता - पिता उसे ऋषि को उसकी पत्नी के रूप में सौप देते हैं । ऐसा माना जाता है कि जो ऋषि विवाह का इच्छुक होता था , उसे अपने श्वसुर को एक गाय तथा एक बैल अथवा इनके जोड़े देने पड़ते थे । इस प्रकार की भेंट लेकर कन्या के माता - पिता कन्या को ऋषि को पत्नी के रूप में सौप देते थे ।
( 3 ) प्राजापत्य विवाह —
मनु के शब्दों में -
सहनौ चरतां धर्ममिति वायानु भाष्य च ।
कन्या प्रदानमम्यच्च प्राजापत्यो विधि स्मृतः ॥
अर्थात् तुम दोनों मिलकर गृहस्थ धर्म का पालन करना और तुम दोनों का जीवन सखी एवं समृद्धशाली हो । यह कहकर विधिवत् वर की पूजा करके कन्या का दान ही प्राजापत्य विवाह है । इस विवाह में प्रधानता प्रजा अर्थात् सन्तान उत्पन्न करने को दी जाती थी और वर - वधू को यह शिक्षा दी जाती थी कि सन्तानोत्पत्ति के लिए ही विवाह किया जाता है ।
( 4 ) दैव विवाह —
मनु ने दैव विवाह के सम्बन्ध में लिखा है -
यज्ञेतु बितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते ।
आलंकृत्य सुतादान देवं धर्म प्रचक्षते ॥
अर्थात् वस्त्र और अलंकारों से सुसज्जित कन्या का दान उस यज्ञकर्ता पुरोहित को करना जो किसी यज्ञशाला में किसी पुरोहित के कार्यों को ठीक ढंग से पूरा करता हो , दैव - विवाह कहलाता है । इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता एक यज्ञ की व्यवस्था करता था और वस्त्र व अलंकारों से सुसज्जित कन्या का दान उस व्यक्ति को करता था जो उस यज्ञ को उचित ढंग से सम्पन्न करता था । इस विवाह का प्रचलन प्राचीनकाल में था , आज नहीं है ; क्योंकि इस समय यज्ञ का महत्त्व नहीं रह गया है ।
( 5 ) आसुर विवाह —
आसुर विवाह की परिभाषा करते हुए मनु ने लिखा है -
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्वा कन्याये चैव शक्तित : ।
कन्या प्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते ॥
अर्थात् आसुर विवाह उसे कहते हैं , जब विवाह के लिए इच्छुक व्यक्ति अपनी इच्छा से कन्या के कुटुम्बियों या कन्या को धन देकर विवाह करता है । महाभारत काल में पांडु का माद्री के साथ विवाह इसी प्रकार हुआ था । इसके अतिरिक्त धृतराष्ट्र का गान्धारी के साथ तथा दशरथ का कैकेयी के साथ जो विवाह हुआ था , वह इसी प्रकार का आसुर विवाह था ।
( 6 ) गान्धर्व विवाह —
इसका वर्णन मनु ने इस प्रकार किया है -
इच्छायान्योन्य संयोगः कन्यायाश्च वरस्य च ।
गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्य : काम संभवः ॥
अर्थात् गान्धर्व विवाह उसे कहते हैं जो कन्या और वर के परस्पर प्रेम के फलस्वरूप होता । है । इसमें वैवाहिक संस्कार काम - संयोग के बाद भी पूर्ण किये जा सकते हैं । इस विवाह का उदाहरण दुष्यन्त और शकुन्तला का विवाह है । ' कामसूत्र ' में गान्धर्व विवाह को आदर्श विवाह माना गया है । बोधायन का कहना है कि गान्धर्व विवाह इसलिए आदर्श अर्थात् प्रशंसनीय माना जाता है , क्योंकि यह दोनों की इच्छा से होता है ।
( 7 ) राक्षस विवाह —
यह विवाह उस समय प्रचलित था जब स्त्रियाँ युद्ध का पारितोषिक मानी जाती थीं । मनु ने इस विवाह का वर्णन करते हुए लिखा है -
हत्वा छित्वा च भित्वा च क्रोशन्ती रुदंती गृहात् ।
प्रसह्य कन्याहरणम् राक्षसी विधि रुच्यते । ।
अर्थात् किसी कन्या को जबर्दस्ती पकड़ लाना ; रोती , बिलखती , चिल्लाती कन को उठा लाना ; या युद्ध आदि में जीतकर ले आना , राक्षस विवाह कहलाता है । यह विवाह उस समय प्रचलित था जब क्षत्रिय लोग युद्ध आदि बहुत करते थे । उस समय यह समझा जाता था कि जैसे युद्ध में लुटमार से और माल मिलता है , वैसे कन्याएँ भी युद्ध जीतने की पारितोषिक हैं । भगवान श्रीकृष्ण रुकमणी को और अर्जुन सुभद्रा को युद्ध में विजित होने पर बलपूर्वक उठाकर लाये थे । और नो तिनाह किया था । ये राक्षस विवाह के उदाहरण हैं ।
( 8 ) पिशाच विवाह –
पिशाच विवाह पर प्रकाश डालते हुए मनु ने लिखा है -
सुप्ता मतां प्रमतां वा रहो यज्ञोपगच्छते ।
स पापिष्ठो विवाहानां पेशाचश्चष्टमोधमः । ।
अर्थात् जब सोई हुई , मद्यपान से विह्वल अथवा किसी अन्य प्रकार से उन्मत्त स्त्री के साथ एकान्त में यौन सम्बन्ध स्थापित कर लिया जाता है , तो उसे पिशाच विवाह कहते हैं । मनु ने इस विवाह की निन्दा करते हुए इसे अधर्म और पापिष्ट विवाह कहा है । प्राचीन काल में और आज भी | समाज ऐसे विवाह को अस्वीकृति प्रदान करता है ताकि शारीरिक संयोग की पवित्रता और सामाजिक व्यवस्था बनी रहे । । आधुनिक युग में केवल ब्राह्म विवाह तथा आसुर विवाह ही प्रचलित है । डॉ . मजूमदार ( Dr. Majumdar ) का कहना है ' यद्यपि साधारणत : ब्राह्म विवाह उच्च जाति के लोगों में और आसुर विवाह निम्न जाति के लोगों में प्रचलित हैं तथापि उच्च जाति में भी आसुर विवाह पूर्णतया नहीं मिट पाया है ।"
विवाह में परिवर्तन एवं आधुनिक प्रवृत्तियाँ
सामाजिक विधानों के कारण हिन्दू विवाह में कई परिवर्तन हुए हैं जिनके आधार पर विवाह में नवीन प्रवृत्तियाँ उभर कर आयी हैं । ये प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं -
( 1 ) हिन्दू विवाह धार्मिक संस्कार नहीं –
प्राचीन हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार था । उसमें विवाह से सम्बन्धित अनेक धार्मिक क्रियाओं का समावेश था । हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 के अनुसार अब विवाह स्त्री - पुरुष के बीच एक कानूनी समझौता बन गया है ।
( 2 ) विवाह सम्बन्धी निषेधों में अन्तर –
प्राचीनकाल में हिन्दू विवाह से सम्बन्धित गौत्र , जाति , आदि अनेक निषेधों का पालन करना पड़ता था । इससे विवाह का दायरा बहुत सीमित था , किन्तु नवीन विधानों में गौत्र , जाति , प्रखर से सम्बन्धित बन्धन समाप्त कर दिये गये " हैं और कोई भी हिन्दू , जैन , बौद्ध , सिक्ख , आदि परस्पर विवाह कर सकते हैं । वर्तमान में अन्तर्जातीय विवाहों को वैधानिक स्वीकृति मिल गयी है । यद्यपि इससे विवाह के क्षेत्र में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं आये हैं । अब अन्तर्जातीय विवाहों के पक्ष में जनमत तैयार होने लगा है । इससे विवाह का क्षेत्र विस्तृत हुआ है ।
( 3 ) विवाह - विच्छेद –
अब तक हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार एवं जन्म - जन्मान्तर का बन्धन माना जाता रहा है जिसे कभी भी भंग नहीं किया जा सकता । किन्तु हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 ने दोनों ही पक्षों को कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में तलाक देने की सुविधा प्रदान की है । इससे स्त्रियों का शोषण समाप्त हुआ है और उनके अधिकारों में वृद्धि हुई है ।
( 4 ) एकविवाह का प्रचलन –
हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 के द्वारा अहुपत्नी एवं बहुपति विवाह को समाप्त कर उसके स्थान पर एकविवाह को ही मान्यता दी गयी है । अब कोई भी पक्ष पहले के विवाह साथी के जीवित रहते हुए बिना तलाक दिये दूसरा विवाह नहीं कर सकता है ।
( 5 ) विधवा - विवाह की स्वीकृति –
हिन्दुओं में कुछ समय पूर्व तक विधवाओं को पुनर्विवाह करने की स्वीकृति नहीं थी , किन्तु अब कानून द्वारा ऐसे विवाहों को मान्यता प्रदान कर दी गयी है और उन्हें सम्पत्ति का अधिकार भी प्रदान किया गया है । विधवाओं को पुनर्विवाह की स्वीकृति प्रदान करके उनके साथ सामाजिक न्याय एवं मानवीय व्यवहार किया गया है । अब लोग ऐसे विवाहों की ओर भी सोचने लगे हैं ।
( 6 ) बाल विवाह की समाप्ति –
नये विवाह अधिनियमों के अनुसार वर की न्यूनतम आयु 21 वर्ष एवं वधू की न्यूनतम आयु 18 वर्ष करके बाल - विवाह पर प्रतिबन्ध लागू कर दिया गया है । इससे पूर्व छोटे - छोटे नासमझ बच्चों का भी विवाह कर दिया जाता था ।
( 7 ) जीवनसाथी के चुनाव की स्वतन्त्रता –
प्राचीन समय में विवाह साथी चुनने का दायित्व परिवारजनों पर ही था , अत : वर - वधू अपना साथी चुनने में स्वतन्त्र नहीं थे , किन्तु अब वे स्वयं ही अपनी इच्छानुसार जीवन - साथी चुनने में स्वतन्त्र हैं ।
( 8 ) प्रेम विवाह –
वर्तमान में प्रेम एवं रोमांस पर आधारित विवाह होने लगे हैं । सहशिक्षा , औद्योगीकरण , चलचित्र , आदि अनेक प्रभावों के कारण ऐसे विवाहों को प्रोत्साहन मिला है तथा नवीन कानूनों का भी इसमें हस्तक्षेप नहीं है ।
( 9 ) अन्तर्जातीय विवाह –
विवाह का दायरा बढ़ने से एवं कानून द्वारा मान्यता प्राप्त होने से वर्तमान में अन्तर्जातीय एवं अन्तर्धर्म विवाह भी होने लगे हैं जो पहले निषिद्ध माने जाते थे ।
( 10 ) समूह विवाह –
वर्तमान में समूह विवाह भी होने लगे हैं । कई शहरों में दहेज से मुक्ति पाने के लिए समय - समय पर सामूहिक विवाहों का आयोजन किया जाने लगा है । इस प्रकार के विवाहों से खर्चे भी कम होते हैं ।
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