‘ जैन ’ शब्द ‘ जिन ’ से बना है जिसका अर्थ है – विजेता अर्थात् जिसने इन्द्रियों को जीत लिया हो ।
छठी शताब्दी ई . पू . में प्रचलित धर्मों में जैन धर्म काफी लोकप्रिय हुआ था ।
जैन धर्म की संस्थापना वर्द्धमान महावीर ने की थी ।
वर्द्धमान महावीर का जन्म 569 ई . पू . में प्राचीन वज्जि गणतंत्र की राजधानी वैशाली ( वर्तमान बसाढ़ ) में लिच्छवियों की एक शाखा ज्ञातवंश में हुआ था । उनके पिता सिद्धार्थ तथा माता त्रिशाला थीं । उनका विवाह यशोदा नामक कन्या से हुआ था जिससे उन्हें एक पुत्री ‘ प्रियदर्शिनी ’ उत्पन्न हुई ।
30 वर्ष की अवस्था में महावीर ने गृह त्याग दिया और एक वर्ष तक वस्त्र धारण कर भटकते रहे । तत्पश्चात् उन्होंने वस्त्र , भिक्षापात्र आदि सभी चीजों का त्याग कर दिया और घोर तपस्या में लीन हो गए ।
12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् उन्हें कैवल्य ( ज्ञान ) की प्राप्ति हुई । तत्पश्चात् उन्होंने जीवनपर्यंत घूम - घूम कर अपने मत का प्रचार किया ।
महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की अवस्था में 485 ई . पू . में पावापुरी नामक स्थान में हुई ।
जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए । इन तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं -
1 . ऋषभ | 2 . अजित | 3 . संभव | 4 . अभिनंद |
5 . सुमति | 6 . पदमप्रभ | 7 . सुपार्श्व | 8 . चंद्रप्रभा |
9 . पुष्पदंत | 10 . शीतल | 11 . श्रेयस | 12 . वासुपूज्य |
13 . विमल | 14 . अनन्त | 15 . धर्ग | 16 . शांति |
17 . कुन्तु | 18 . अर | 19 . मालि | 20 . सुनिसुवत्र |
21 . नागी | 22 . नेमिनाथ | 23 . पाश्र्वनाथ | 24 . महावीर |
जैन धर्म में तीर्थंकर का अर्थ संसार रूपी सागर से पार कराने के लिए औरों को मार्ग बताने वाला होता है ।
जैन धर्म के ग्रंथों को ‘ आगम ’ कहा जाता है ।
ऋषभदेव को जैव धर्म का संस्थापक , प्रवर्तक एवं पहले तीर्थंकर के रूप में जाना जाता है ।
जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ ने 4 महाव्रतों का प्रतिपादन किया ।
ये 4 महाव्रत हैं — अहिंसा , सत्य , अपरिग्रह तथा अस्तेय ।
पाश्र्वनाथ ने अपने 4 महाव्रतों में से अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया ।
जैन धर्म के 24वें वे अंतिम तीर्थंकर महावीर को जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है ।
महावीर ने अपने पूर्वगामी तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित 4 महाव्रतों में पांचवां व्रत ब्रह्मचर्य जोड़ा ।
सम्यक श्रद्धा सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण जैन धर्म के तीन प्रमुख रत्न माने जाते हैं जिन्हें त्रिरत्न कहा जाता है ।
स्यादवाद जैन धर्म में मूल रूप से ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है । स्यादवाद को ‘ सप्त भंगीनय ’ एवं ‘ अनेकान्तवाद ’ भी कहा जाता हैं । महावीर की मृत्यु के लगभग 200 वर्ष पश्चात् जैन धर्म दो भागों - श्वेताम्बर और दिगम्बर में विभाजित हो गया ।