पौधे के वायुवीय भागों से जल के वाष्प के रूप में बाहर निकलने की क्रिया को वाष्पोत्सर्जन कहते हैं ।
पौधों में 80 - 90 प्रतिशत वाष्पोत्सर्जन पर्णरंध्रों के द्वारा होता है , इसे रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन कहते हैं ।
रंध्रो की उपस्थिति के आधार पर पर्ण तीन प्रकार की होती है -
1 . अधोरन्ध्री
2 . उभयरन्ध्री
3 . अधिरंध्री पर्ण ।
रन्ध्रीय छिद्र को दो द्वार या रक्षक कोशिकाएँ घेरे रहती हैं ।
रन्ध्रों गति की क्रिया विधि से सम्बन्धित दी गई परिकल्पनाओं में माण्ड - शर्करा परिकल्पना , स्टीवर्ड की परिकल्पना एवं सक्रिय पौटेशियम आयन स्थानान्तरण सिद्धान्त प्रमुख है ।
वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारकों को दो समूहों में बाँटा जा सकता है -
1 . बाह्य कारक
2 . आन्तरिक कारक ।
वाष्पोत्सर्जन एक आवश्यक बुराई है । इसके लाभ एवं हानि दोनों होते हैं ।
शाकीय पौधों की पत्तियों से जल का छोटी - छोटी बूंदों के रूप में स्रावित होने को बिन्दु स्राव ( Guttation ) कहते हैं । यह क्रिया जल रंध्रों ( Hydathodes ) के द्वारा होती है ।
पादप के कटे हुए या क्षतिग्रस्त भाग से रस ( Sap ) का बाहर आना , रस स्रावण कहलाता है ।
पौधों में वातरन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन कुल वाष्पोत्सर्जन का लगभग 0.1 प्रतिशत होता है ।
पर्णो में रन्धों की उपस्थिति के आधार पर ( Oat ) के पादपों में उभयरन्ध्री प्रकार की पर्ण पाई जाती है ।
पर्ण रन्ध्रों के छिद्रों को घेरे रहने वाली अधिचर्म कोशिकाओं को कोशिकायें या रक्षक ( Gaurd Cells ) कोशिकायें कहते हैं ।
माण्ड - शर्करा परिकल्पना जे . डी सायरे ( 1923 ) ने प्रस्तुत की है ।
इमामूरा व फ्यूजीनो ने रन्ध्रों की गति से सम्बन्धित सक्रिय पोटेशियम आयन स्थानान्तरण सिद्धान्त की परिकल्पना प्रस्तुत की थी ।
प्रकाश की तीव्रता अधिक होने पर वाष्पोत्सर्जन की दर में वृद्धि होती है ।
बिन्दुस्त्राव पर्ण के शीर्ष ( Leaf tip ) तथा पर्ण के तंट या उपान्तों ( margins ) से भाग में होता है ।
पादप के कटे हुए व क्षतिग्रस्त भागों से रस के बाहर निकलने की क्रिया रस स्त्रवण ( Bleeding ) कहलाती है ।
बिन्दु स्त्राव , पर्ण के किनारों या उपान्तों में स्थित जलरन्ध्रों ( Hydathodes ) द्वारा होता है ।
वाष्पोत्सर्जन तीन प्रकार का होता है -
1 . रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन
2 . वातरन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन
3 . उपत्वचीय वाष्पोत्सर्जन ।
सर्वाधिक वाष्पोत्सर्जन रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन क्रिया द्वारा होता है । यह कुल वाष्पोत्सर्जन की मात्रा का 80 - 97 % होता है ।
द्वार कोशिकाओं की आकृति वृक्काकार होती है ।
सक्रिय K+ आयन सिद्धान्त जापानी वैज्ञानिक इमामूरा व फ्यूजीनो ( 1959 ) ने प्रतिपादित किया था । इसे लैविट ने सन् 1974 में रूपान्तरित कर नये रूप में प्रस्तुत किया था ।
स्टोमेटा के खुलने के समय द्वार कोशिकाओं की स्थिति स्फीत अवस्था में होती है ।
वाष्पोत्सर्जन - सजीव पादपों के वायवीय भागों से जल का वाष्प के रूप में बाहर निकलने ( उत्सर्जित होने ) की क्रिया को वाष्पोत्सर्जन कहते हैं ।
बिन्दु स्राव - पर्णों के किनारों या उपान्तों ( Margins ) से जल का छोटी - छोटी बून्दों के रूप में स्रावित होने की क्रिया को बिन्दुस्राव कहते हैं ।
वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले आन्तरिक कारक पादप से सम्बन्धित होते हैं । इनमें मुख्य है -
( i ) पर्ण की संरचना
( ii ) रन्ध्रों की संख्या व स्थिति
( ii ) पर्ण का दिक्विन्यास
( iv ) मूल - प्ररोह अनुपात आदि ।
वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले बाह्य कारकों के नाम - प्रकाश , वायु तापमान , प्राप्य मृदा जल आदि ।
एपिथेम - जल रन्ध्र के अन्दर की ओर मृदूतक कोशिकाओं का समूह पाया जाता है जिसे एपिथेम कहते हैं ।
पर्ण के प्रति वर्ग सेन्टीमीटर लगभग 100 से 60,000 तकरन्ध्र हो सकते हैं ।