ब्रह्मांड की उत्पत्ति एवं विकास_Geography Notes With PDF

brahmand ki utpatti evam vikas

पृथ्वी के ऊपर विस्तृत असीम आकाश को अंतरिक्ष या ब्रह्माण्ड कहते हैं । विश्व की कोई निश्चित सीमा नहीं है । इस कारण पौराणिक धर्म ग्रंथों में इसे असीम ब्रह्माण्ड कहा गया है ।

द्रव्य और ऊर्जा के सम्मिलित रूप को ब्रह्मांड कहते हैं । हमारी पृथ्वी सौरमंडल की सदस्य है । हमारा सौरमंडल , हमारे ब्रह्मांड का एक मामूली सा हिस्सा है । ये ब्रह्मांड , पृथ्वी से दिखने वाली आकशगंगा का एक हिस्सा है । अनुमान है कि ब्रह्मांड का वर्तमान विस्तार 250 करोड़ प्रकाश वर्ष से भी अधिक है ।

रात्रि में हमें आकाश में टिमटिमाते अनगिनत तारे दिखाई देते हैं । इनमें तारे , नक्षत्र , ग्रह , उपग्रह , निहारिका , उल्का धूमकेतु आदि अनेक प्रकार के ठोस एवं गैस पिण्ड शामिल हैं । जिन्हें आकाशीय पिंड कहते हैं । ये सभी पिण्ड गतिशील हैं तथा अपने निश्चित मार्गों पर भ्रमण करते हैं । प्रत्येक पिण्ड गुरुत्वाकर्षण के कारण शून्य में टिका हुआ है । केवल अपवाद के तौर पर कभी - कभी कोई तारा अपना मार्ग भटक जाता है और दूसरे तारे से टकरा जाता है ।

पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

पृथ्वी की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न दार्शनिकों व वैज्ञानिकों ने अनेक परिकल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं । इनमें से एक प्रारंभिक एवं लोकप्रिय मत जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कान्ट का है ।

नीहारिका परिकल्पना

1796 ई ० में गणितज्ञ लाप्लेस ने इसका संशोधन प्रस्तुत किया जो नीहारिका परिकल्पना के नाम से जाना जाता है ।

इस परिकल्पना के अनुसार , ग्रहों का निर्माण धीमी गति से घूमते हुए पदार्थों के बादल से हुआ जो कि सूर्य की युवा अवस्था से संबद्ध थे ।

द्वैतारक सिद्धांत

बाद में 1900 ई ० में चेम्बरलेन और मोल्टन ने कहा कि ब्रह्मांड में एक अन्य भ्रमणशील तारा सूर्य के नजदीक से गुजरा ।

इसके परिणामस्वरूप तारे के गुरुत्वाकर्षण से सूर्य - सतह से कुछ पदार्थ निकल कर अलग हो गया ।

यह तारा जब सूर्य से दूर चला गया तो सूर्य - सतह से बाहर निकला हुआ यह पदार्थ सूर्य के चारों तरफ घूमने लगा और यही धीरे - धीरे संघनित होकर ग्रहों के रूप में परिवर्तित हो गया ।

पहले सर जेम्स जींस और बाद में सर हॅरोल्ड जैफरी ने इस मत का समर्थन किया । यद्यपि कुछ समय बाद के तर्क सूर्य के साथ एक और साथी तारे के होने की बात मानते हैं । ये तर्क “ द्वैतारक सिद्धांत ” के नाम से जाने जाते हैं ।

कार्ल वाइजास्कर का सिद्धांत

1950 ई ० रूस के ऑटो शिमिड व जर्मनी के कार्ल वाइजास्कर ने नीहारिका परिकल्पना में कुछ संशोधन किया , जिसमें विवरण भिन्न था ।

उनके विचार से सूर्य एक सौर नीहारिका से घिरा हुआ था जो मुख्यतः हाइड्रोजन , हीलीयम और धूलकणों की बनी थी ।

इन कणों के घर्षण व टकराने से एक चपटी तश्तरी की आकृति के बादल का निर्माण हुआ और अभिवृद्धि प्रक्रम द्वारा ही ग्रहों का निर्माण हुआ ।

वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन ( Continental Drift ) सिद्धांत एवं प्लेट विवर्तनिकी

जर्मनी प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता तथा जलवायु विज्ञान के विशेषज्ञ अल्फ्रेड वेगनर ने महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धान्त सन् 1912 में प्रस्तुत किया था । उनके अनुसार , महाद्वीप स्थिर नहीं रहते बल्कि उनमें विस्थापन होता रहता है । वेगनर के अनुसार , एक समय पर सभी महाद्वीप एक - दूसरे से जुड़े हुये थे । इन जुड़े हुये महाद्वीपों को वेगनर ने पैंजिया कहा ।

इस पैंजिया पर छोटे - छोटे आन्तरिक सागरों का विस्तार था । पैंजिया के चारों ओर एक विशाल सागर था जिसका नाम पैंथालसा रखा गया । पैंजिया का उत्तरी भाग लॉरेशिया ( उत्तरी अमेरिका , यूरोप तथा एशिया ) तथा दक्षिणी भाग का नाम गोण्डवानालैण्ड ( दक्षिणी अमेरिका , आस्ट्रेलिया , अफ्रीका तथा अंटार्कटिका ) था ।

कार्बोनिफेरस युग में महाद्वीपों का विस्थापन आरम्भ हुआ जो लगभग तीस करोड़ वर्ष पूर्व माना जाता है ।

वेगनर ने महाद्वीपीय विस्थापन के बारे में दो परिकल्पनायें प्रस्तुत की :

( i ) पहली परिकल्पना :

यदि महाद्वीप एक जगह पर स्थिर रहे हैं तो जलवायु कटिबंध क्रमशः अपना स्थान बदलते रहे हैं । परन्तु ऐसे विस्थापन के प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलते । जलवायु कटिबंधों का सम्बन्ध सूर्य तथा पृथ्वी की पारस्परिक परिक्रमा से है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ ।

( ii ) दूसरी परिकल्पनाः

यदि जलवायु कटिबंध स्थिर रहे हैं तो महाद्वीपों में विस्थापन हुआ है । वेगनर का पूर्ण विश्वास था कि महाद्वीपों का विस्थापन हुआ है ।

महाद्वीपों की उत्पत्ति के संबंध में महाद्वीपीय विस्थापन एवं प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत में अन्तर

महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांतप्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत का प्रतिपादन 1912 में जर्मनी के विद्वान एल्पेड वेगनर ने किया था । प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत 1960 और 1970 के दशकों में प्रतिपादित कई सिद्धांतों , परिकल्पनाओं तथा प्रक्रमों का निचोड़ है ।
महाद्वीपीय सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी को सियाल ( SIAL ) , सीमा ( SIMA ) तथा निफेक ( NIFE ) नामक तीन परतों में बांटा जाता है । प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार , पृथ्वी को लिथोस्फियर ( Lithosphere ) , स्थेनोस्फियर ( Asthenosphere ) तथा मैसोस्फियर ( Mesosphere ) में बांटा जाता है ।
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के अनुसार , महाद्वीप हल्के परत सियाल के बने हुए हैं और भारी परत सीमा पर तैर रहे हैं ।प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार प्लेटें लिथोस्फीयर के सख्त तथा सुदृढ़ भाग हैं , जो स्थेनोस्फीयर पर तैर रहे हैं ।
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के अनुसार , केवल महाद्वीपों में ही गति होती है ।प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार , केवल महाद्वीपों में ही नहीं बल्कि महासागरों में भी गति होती है ।
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के अनुसार , महाद्वीपों का वर्तमान स्वरूप पेन्जिया के टूटने से बना है । परन्तु यह सिद्धांत इस प्रश्न का उत्तर नहीं देता है कि क्या ये सभी महाद्वीप फिर से एक बड़े महाद्वीप ( Supercontinent ) के रूप में एकत्रित होंगी या नहीं ।प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार , सभी महाद्वीप एक बड़े महाद्वीप( Supercontinent ) से बने हैं और वे भविष्य में मिलकर फिर से एक बड़े महाद्वीप की रचना कर सकते हैं ।
वेगनर के अनुसार , पेन्जिया के टूटने से महाद्वीपों का विस्थापन पश्चिमी तथा उत्तरी दिशा में हुआ है ।प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार प्लेटों के टूटे हुए टुकड़े सभी दिशाओं में विस्थापित होते हैं ।
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के अनुसार , महाद्वीपों के टूटने के चरणों का कोई विवरण नहीं है ।प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार महाद्वीप विभिन्न चरणों में टूट कर अलग हुए
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत में महाद्वीपों का साधारण रूप में टूटना बताया गया है और किसी प्रकार के किनारों ( Margins ) का उल्लेख नहीं किया गया है ।प्लेटों की गति में विभिन्न प्रकार के किनारों ( Margins ) को मान्यता दी गई है । अपसरण ( Divergent ) , अभिसरण ( Convergent ) तथा रूपांतर भ्रंश ( Transform Fault ) तीन निश्चित किनारे हैं । इन सबकी प्रक्रियाएं भिन्न हैं ।
वेगनर ने महाद्वीपीय विस्थापन के लिए अवकल गुरुत्वाकर्षण बल तथा प्लवनशीलता बल ( Differential gravitational force and force of buoyancy ) तथा ज्वारीय बल ( Tidal Force ) को उत्तरदायी माना है ।प्लेट विवर्तनिकी के लिए कई बल उत्तरदायी माने जाते हैं । इनमें भू - गर्भ में चलने वाली संवहनीय धाराएं , मेंटल प्लूम ( Mantle plume ) , स्लैब खिंचाव ( Slab Pull ) तथा कटकों का ढकेलना ( Ridge Push ) आदि प्रमुख हैं । इन बलों में महाद्वीपों को ढकेलने की शक्ति है ।

बिग बैंग सिद्धांत ( महाविस्फोट सिद्धांत )

इस सिद्धांत का श्रेय ऐडविन हबल नामक वैज्ञानिक को जाता है जिन्होंने कहा था कि ब्रह्मांड का निरंतर विस्तार हो रहा है । जिसका मतलब ये हुआ कि ब्रह्मांड कभी सघन रहा होगा । हालांकि इससे पहले क्या था , यह कोई नहीं जानता . हॉकिंग ब्रह्मांड की रचना को एक स्वतः स्फूर्त घटना मानते थे । हालांकि , प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइजैक न्यूटन मानते थे कि इस सृष्टि का अवश्य ही कोई रचयिता होगा , अन्यथा इतनी जटिल रचना पैदा नहीं हो सकती ।

ब्रह्मांड के बारे में बिग बैंग सिद्धांत सबसे विश्वसनीय सिद्धांत है । बिग बैंग सिद्धांत के मुताबिक शून्य के आकार का ब्रह्मांड बहुत ही गरम था । इसकी वजह से इसमें विस्फोट हुआ और वो असंख्य कणों में फैल गया । तब से लेकर अब तक वो लगातार फैल ही रहा है ।

ब्रह्मांड के इन टुकड़ों के बाद से अंतरिक्ष और आकाशगंगा अस्तित्व में आए . इस रचना में ही हाइड्रोजन , हीलियम जैसे अणुओं का निर्माण हुआ ।

जैसे - जैसे ब्रह्मांड का आकार बढ़ता गया वैसे - वैसे तापमान और घनत्व कम हुआ जिसकी वजह से गुरुत्वाकर्षण बल , विद्युत - चुम्बकीय बल और अन्य बलों का उत्सर्जन हुआ । इसके बाद सौरमंडल बना ।

ब्रह्मांड का विस्तार लगातार होता रहता है जिससे तारों और ग्रहों के बनने की प्रक्रिया भी लगातार चलती रहती है । सितारे , तारे और उपग्रह सभी एक दूसरे को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं ।

ब्रह्मांड कई गुणा जल , बादल , अग्नि , वायु , आकश और अंधकार से घिरा हुआ है ।

ब्रह्मांड में अब तक 19 अरब आकाशगंगाएं होने का अनुमान है । सभी आकाशगंगाएं एक - दूसरे से दूर हटती जा रही हैं ।

मिल्की वे आकाशगंगा

19 अरब आकाशगंगाओं में से हमारी आकाशगंगा है- मिल्की वे आकशगंगा ।

मिल्की वे आकाशगंगा में हमारी पृथ्वी और सूर्य हैं ।

मिल्की वे में लगभग 100 अरब तारे हैं । हर तारे की चमक , दूरी और गति अलग - अलग है । आकाशगंगा ब्रह्मांड की परिक्रमा करती रहती है ।

आरियन नेबुला हमारी आकाशगंगा के सबसे शीतल और चमकीले तारों का समूह है ।

आकाशगंगा का प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर है ।

सूर्य इस ब्रह्मांड का चक्कर लगभग 26,000 वर्षों में पूरा करता है जबकि अपनी धूरी पर सूर्य एक महीने में एक चक्कर लगाता है ।

तारों का निर्माण

प्रारंभिक ब्रह्मांड में ऊर्जा व पदार्थ का वितरण समान नहीं था । घनत्व में आरंभिक भिन्नता से गुरुत्वाकर्षण बलों में भिन्नता आई , जिसके परिणामस्वरूप पदार्थ का एकत्र हुआ । यही एकत्र आकाशगंगाओं के विकास का आधार बना ।

एक आकाशगंगा असंख्य तारों का समूह है । आकाशगंगाओं का विस्तार इतना अधिक होता है कि उनकी दूरी हजारों प्रकाश वर्षों में ( Light years ) मापी जाती है ।

एक अकेली आकाशगंगा का व्यास 80 हजार से 1 लाख 50 हजार प्रकाश वर्ष के बीच हो सकता है ।

एक आकाशगंगा के निर्माण की शुरूआत हाइड्रोजन गैस से बने विशाल बादल के संचयन से होती है जिसे नीहारिका ( Nebula ) कहा गया । क्रमशः इस बढ़ती हुई नीहारिका में गैस के झुंड विकसित हुए । ये झुंड बढ़ते - बढ़ते घने गैसीय पिंड बने , जिनसे तारों का निर्माण आरंभ हुआ ।

ऐसा विश्वास किया जाता है कि तारों का निर्माण लगभग 5 से 6 अरब वर्षों पहले हुआ ।

प्रकाश वर्ष

प्रकाश वर्ष ( Light year ) समय का नहीं वरन् दूरी का माप है । प्रकाश | की गति 3 लाख कि.मी. प्रति सैकेंड है । विचारणीय है कि एक साल में प्रकाश जितनी दूरी तय करेगा , वह एक प्रकाश वर्ष होगा । यह 9.461 x 1012 कि.मी. के बराबर है । पृथ्वी व सूर्य की औसत दूरी 14 करोड़ 95 लाख , 98 हजार किलोमीटर है । प्रकाश वर्ष के संदर्भ में यह प्रकाश वर्ष का केवल 8.311 है ।

ग्रहों का निर्माण

ग्रहों के विकास की निम्नलिखित अवस्थाएँ मानी जाती हैं -

  1. तारे नीहारिका के अंदर गैस के गुंथित झुंड हैं । इन गुंथित झुंडों में गुरुत्वाकर्षण बल से गैसीय बादल में क्रोड का निर्माण हुआ और इस गैसीय क्रोड के चारों तरफ गैस व धूलकणों की घूमती हुई तश्तरी ( Rotating disc ) विकसित हुई ।
  2. अगली अवस्था में गैसीय बादल का संघनन आरंभ हुआ और क्रोड को ढकने वाला पदार्थ छोटे गोलों के रूप में विकसित हुआ । ये छोटे गोले संसंजन ( अणुओं में पारस्परिक आकर्षण ) प्रक्रिया द्वारा ग्रहाणुओं ( Planetesimals ) में विकसित हुए । संघट्टन ( Collision ) की क्रिया द्वारा बड़े पिंड बनने शुरू हुए और गुरुत्वाकर्षण बल के परिणामस्वरूप ये आपस में जुड़ गए । छोटे पिंडों की अधिक संख्या ही ग्रहाणु है ।
  3. अंतिम अवस्था में इन अनेक छोटे ग्रहाणुओं के सहवर्धित होने पर कुछ बड़े पिंड ग्रहों के रूप में बने ।

चंद्रमा

चंद्रमा पृथ्वी का अकेला प्राकृतिक उपग्रह है ।

पृथ्वी की तरह चंद्रमा की उत्पत्ति संबंधी मत प्रस्तुत किए गए हैं । सन् 1838 ई . में , सर जार्ज डार्विन ने सुझाया कि प्रारंभ में पृथ्वी व चंद्रमा तेजी से घूमते एक ही पिंड थे ।

यह पूरा पिंड डंबल ( बीच से पतला व किनारों से मोटा ) की आकृति में परिवर्तित हुआ और अंततोगत्वा टूट गया ।

उनके अनुसार , चंद्रमा का निर्माण उसी पदार्थ से हुआ है जहाँ आज प्रशांत महासागर एक गर्त के रूप में मौजूद है ।

यद्यपि वर्तमान समय के वैज्ञानिक इनमें से किसी भी व्याख्या को स्वीकार नहीं करते ।

द बिग स्प्लैट ( The Big Splat )

ऐसा विश्वास किया जाता है कि पृथ्वी के उपग्रह के रूप में चंद्रमा की उत्पत्ति एक बड़े टकराव ( Giant impact ) का नतीजा है जिसे ' द बिग स्प्लैट ' ( The big splat ) कहा गया है । ऐसा मानना है कि पृथ्वी के बनने के कुछ समय बाद ही मंगल ग्रह के 1 से 3 गुणा बड़े आकार का पिंड पृथ्वी से टकराया । इस टकराव से पृथ्वी का एक हिस्सा टूटकर अंतरिक्ष में बिखर गया । टकराव से अलग हुआ यह पदार्थ फिर पृथ्वी के कक्ष में घूमने लगा और क्रमशः आज का चंद्रमा बना । यह घटना या चंद्रमा की उत्पत्ति लगभग 4.44 अरब वर्षों पहले हुई ।

पृथ्वी का उद्भव

प्रारंभ में पृथ्वी चट्टानी , गर्म और वीरान ग्रह थी , जिसका वायुमंडल विरल था जो हाइड्रोजन व हीलीयम से बना था । यह आज की पृथ्वी के वायुमंडल से बहुत अलग था । अत : कुछ ऐसी घटनाएँ एवं क्रियाएँ अवश्य हुई होंगी जिनके कारण चट्टानी , वीरान और गर्म पृथ्वी एक ऐसे सुंदर ग्रह में परिवर्तित हुई जहाँ बहुत - सा पानी , तथा जीवन के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध हुआ ।

पृथ्वी की संरचना परतदार है । वायुमंडल के बाहरी छोर से पृथ्वी के क्रोड तक जो पदार्थ हैं वे एक समान नहीं हैं । वायुमंडलीय पदार्थ का घनत्व सबसे कम है ।

पृथ्वी की सतह से इसके भीतरी भाग तक अनेक मंडल हैं और हर एक भाग के पदार्थ की अलग विशेषताएँ हैं ।

ब्रह्मांड में पृथ्वी का स्थान

प्राचीन काल में ऐसा माना जाता था कि पृथ्वी ब्राह्मांड के केन्द्र में है । यूनान का महान दार्शनिक अरस्तू भी मानता था कि पृथ्वी ब्राह्मांड के केन्द्र में अवस्थित है । सूर्य , चन्द्रमा एवं अन्य सभी खगोलीय पिंड पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाते हैं । टालमी ने घोषणा की कि सूर्य , चन्द्रमा एवं तारे पृथ्वी का चक्कर लगाते हैं । क्रिश्चयन चर्च ने भी इस सिद्धांत को आगे बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया । इस समय तक लोग पृथ्वी केन्द्रिक सिद्धांत के विरुद्ध सोचना भी पाप समझते थे । उनकी मान्यता थी कि ऐसा करने पर भगवान नाराज हो जाएंगे ।

लेकिन समय के साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आया एवं लोगों ने इस सिद्धांत के विरुद्ध सोचना प्रारम्भ कर दिया । सर्वप्रथम पाइथागोरस एवं पाइलोलौस ने हमें बताया कि पृथ्वी अपने स्थान पर स्थिर नहीं है अपितु अपने अक्ष पर 24 घंटे में एक चक्कर लगाती है । प्रसिद्ध चिंतक आरिस्टचिस ने बताया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है । 1600 में गिओडानों बूनी को जिंदा जला दिया गया क्योंकि उसने पृथ्वी के संदर्भ में प्रचलित मान्यता के विपरीत मत व्यक्त किया था । गैलिलियो एवं कोपरनिकस यह जानते हुए कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है और यही अवधारणा सही है , चुप रहे क्योंकि उन्हें डर था कि इस बात को बताने पर उनकी हानि हो सकती है।

यह एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का क्षण था जब 17 जनवरी , 1610 को गैलिलियो जो पूडा विश्वविद्यालय का एक प्रमुख गणितज्ञ भी था , ने टेलिस्कोप का आविष्कार किया एवं यह साबित कर दिया कि पृथ्वी अन्य दूसरे पिण्डों के समान एक साधारण पिण्ड है , जो सूर्य के चारों ओर घूमती है ।

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