टीपू सुल्तान
टीपू सुल्तान का संक्षिप्त परिचय
टीपू सुल्तान एक महत्त्वाकांक्षी और पराक्रमी व्यक्ति था । वह हैदरअली का सुयोग्य पुत्र था । उसका जन्म 20 नवम्बर , 1750 को हुआ था । वह एक सुशिक्षित व्यक्ति था और अनेक भाषाओं का ज्ञाता था । वह युद्ध - विद्या में बड़ा निपुण था । उसने अपने पिता हैदरअली के साथ अनेक सैनिक अभियानों में भाग लिया था । जब 7 दिसम्बर , 1782 को द्वितीय मैसूर युद्ध के दौरान हैदरअली की मृत्यु हो गई तो टीपू सुल्तान मैसूर - राज्य का शासक बना ।
अंग्रेजों से संघर्ष
टीपू सुल्तान एक पराक्रमी और महत्वाकांक्षी शासक था । एक ओर अंग्रेज मैसूर की शक्ति का दमन करने के अवसर की तलाश में थे , तो दूसरी ओर टीपू भी मैसूर राज्य की सुरक्षा के लिए कटिबद्ध था । फलत : टीपू और अंग्रेजों के मध्य युद्ध होना अनिवार्य था ।
तृतीय मैसूर - युद्ध और उसके कारण ( 1790-92 ई . )
मैसूर का तृतीय युद्ध अंग्रेजों और टीपू सुल्तान के बीच हुआ । जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे -
( 1 ) एक दूसरे के प्रति सन्देह
अंग्रेज और टीपू सुल्तान दोनों एक दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखते थे । एक ओर अंग्रेज दक्षिण में टीपू के उत्कर्ष को सहन करने के लिये तैयार नहीं थे तो दूसरी ओर टीपू भी अपने राज्य में अंग्रेजों का हस्तक्षेप सहन करने को तैयार नहीं था ।
( 2 ) टीपू सुल्तान द्वारा फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त करना
फ्रांसीसी अंग्रेजों के प्रबल शत्रु थे । अत : टीपू सुल्तान ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिये फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त करने का निश्चय कर लिया । उसने 1787 ई.में फ्रांस से सहायता प्राप्त करने के लिये वहाँ अपने विशेष दूत भेजे । इससे अंग्रेज बड़े चिन्तित हुए और उन्होंने टीपू सुल्तान की शक्ति का दमन करने का निश्चय कर लिया ।
( 3 ) गुन्टूर पर अंग्रेजों का अधिकार
1785 ई . में लार्ड कार्नवालिस ने हैदराबाद के निजाम पर दबाव डाल कर गुन्टूर का किला अंग्रेजों के लिये प्राप्त कर लिया । इसके बदले में अंग्रेजों ने निजाम को वचन दिया कि वे टीपू सुल्तान द्वारा जीते हुए प्रदेशों को उसे वापिस दिलाने का प्रयत्न करेंगे । परिणामस्वरूप टीपू और अंग्रेजों के बीच कटुता में वृद्धि हुई ।
( 4 ) टीपू सुल्तान द्वारा ट्रावनकोर पर आक्रमण
टीपू समुद्र तक पहुंचने के उद्देश्य से भी ट्रावनकोर पर अधिकार कर लेना चाहता था ताकि फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त की जा सके । अत : 1789 ई. में टीपू सुल्तान ने ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया । इससे अंग्रेज बड़े नाराज हुए क्योंकि ट्रावनकोर का राजा अंग्रेजों के संरक्षण में था । अत : 1790 में लार्ड कार्नवालिस ने टीपू सुल्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी ।
घटनाएँ
लार्ड कार्नवालिस ने युद्ध आरम्भ करने से पूर्व मराठों और निजाम को अपनी ओर मिला लिया । तीनों ने संयुक्त रूप से टीपू सुल्तान के विरुद्ध संघर्ष करने का निश्चय किया । इसके पश्चात् जून , 1790 में अंग्रेज सेनापति जनरल मीडोज ने मैसूर - राज्य पर आक्रमण कर दिया परन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली । टीपू ने अंग्रेजी सेनाओं का वीरतापूर्वक मुकाबला किया और उन्हें अनेक स्थानों पर पराजित कर दिया ।
अत : 1791 में कार्नवालिस ने स्वयं मद्रास पहुंचकर सेनापति का पद सम्भाल लिया । उसने सैन्य - संचालन का कार्य अपने हाथों में ले लिया । मार्च , 1791 में उसने बंगलौर पर अधिकार कर लिया और बढ़ता हुआ टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टम के निकट पहुंच गया । शीघ्र ही टीपू के अनेक दुर्गों पर शत्रु का अधिकार हो गया । फरवरी , 1792 में अंग्रेजी सेनाएं टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टम तक पहुंच गई । विवश होकर टीपू को मार्च , 1792 में अंग्रेजों से सन्धि करनी पड़ी जिसे श्रीरंगपट्टम की सन्धि कहते हैं ।
श्रीरंगपट्टम की सन्धि
इस सन्धि की प्रमुख शर्ते निम्नलिखित थीं -
( 1 ) टीपू को अपने आधे राज्य से वंचित होना पड़ा । जो अंग्रेजों , मराठों और निजाम ने आपस में बांट लिया ।
( 2 ) टीपू को 30 लाख पौंड युद्ध के हर्जाने के रूप में देने पड़े । उसे अपने दो पुत्र भी बन्धक के रूप में अंग्रेजों के पास रखने पड़े ।
मैसूर का चतुर्थ युद्ध ( 1799 ई . )
1799 ई . में अंग्रेजों और टीपू के बीच चतुर्थ मैसूर युद्ध शुरु हुआ जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे -
( 1 ) टीपू सुल्तान द्वारा अपनी पराजय का बदला लेना
मैसूर के तृतीय युद्ध में पराजित होने के कारण टीपू को अंग्रेजों के साथ एक अपमानजनक सन्धि करनी पड़ी थी । वह इस अपमान को भूल नहीं सका और अंग्रेजों से अपनी पराजय का बदला लेने का निश्चय कर लिया । उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम की सुदृढ़ किलेबन्दी की तथा अपनी सैन्य शक्ति में वृद्धि की ।
( 2 ) टीपू का फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त करने का प्रयास करना
अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए टीपू सुल्तान ने फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त करने का निश्चय कर लिया । उसने फ्रांसीसियों को अपनी सेना में भर्ती किया । 1798 में अनेक फ्रांसीसी टीपू की सहायता के लिए बंगलौर पहुंचे । लार्ड वेलेजली टीपू की इन गतिविधियों से बड़ा चिन्तित हुआ और उसने टीपू की शक्ति का दमन करने का निश्चय कर लिया ।
( 3 ) टीपू द्वारा विदेशों से सहायता प्राप्त करना
टीपू सुल्तान ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए अरब , काबुल , टर्की , फारस तथा मारीशस से सहायता प्राप्त करने के लिए वहां अपने राजदूत भेजे । वह हर सम्भव उपाय द्वारा अपनी शक्ति में वृद्धि करके अंग्रेजों से टक्कर लेना चाहता था । इस कारण भी दोनों पक्षों में मनमुटाव बढ़ता गया ।
( 4 ) लार्ड वेलेजली की विस्तारवादी नीति
लार्ड वेलेजली एक महत्वाकांक्षी और साम्राज्यवादी व्यक्ति था । वह टीपू को अंग्रेजों का प्रबल शत्रु मानता था और उसकी शक्ति का दमन करने के लिए कटिबद्ध था । अतः 1799 ई . में उसने टीपू सुल्तान को सहायक सन्धि की शर्ते स्वीकार करने के लिए कहा परन्तु उसने इस सन्धि को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया । इस पर वेलेजली ने 22 फरवरी , 1799 ई. को टीपू सुल्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी ।
घटनाएँ
लार्ड वेलेजली ने चारों ओर से टीपू को घेरने की योजना बनाई । जनरल स्टुअर्ट , आर्थर वेलेजली , जनरल हैरिस , कर्नल रीड तथा कर्नल ब्राउन के नेतृत्व में अंग्रेजी सेनाओं ने श्रीरंगपट्टम की ओर कूच किया । यद्यपि टीपू ने अंग्रेजी सेनाओं का वीरतापूर्वक मुकाबला किया परन्तु उसे अनेक स्थानों पर पराजय का मुंह देखना पड़ा । उसे सदासीर तथा महालावली नामक स्थानों पर पराजित होना पड़ा । इन पराजयों से टीपू का उत्साह भंग हो गया और उसने श्रीरंगपट्टम के दुर्ग में शरण ली । अंग्रेजों ने तत्काल दुर्ग का घेरा डाल दिया । किले का घेरा कई दिनों तक चलता रहा । टीपू ने बड़ी वीरता और साहस के साथ युद्ध किया और 4 मई , 1799 को वह लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ ।
टीपू सुल्तान का चरित्र और उपलब्धियाँ
( 1 ) वीर - योद्धा और कुशल सेनापति
टीपू सुल्तान एक वीर योद्धा और कुशल सेनापति था । वह सैन्य संचालन में निपुण था । युद्ध - कौशल उसमें उच्चकोटि का था और व्यूह रचना में वह अत्यन्त निपुण था । शूरवीरता तथा आत्म - सम्मान उसके सर्वश्रेष्ठ गुण थे । उसने अनेक युद्धों में अंग्रेजों को पराजित किया और अपने युद्ध कौशल का परिचय दिया । उसने द्वितीय मैसूर - युद्ध में अंग्रेज सेनापति मैथ्यूज को पराजित कर अपनी सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया । उसने तृतीय मैसूर युद्ध ( 1790-92 ई ) में भी अद्भुत वीरता और साहस का परिचय दिया । यद्यपि अंग्रेज सेनापति जनरल मीडोज ने टीपू का दमन करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी परन्तु उसे असफलता का मुंह देखना पड़ा । अन्त में स्वयं लार्ड कार्नवालिस को सैन्य - संचालन का कार्य अपने हाथ में लेना पड़ा । टीपू अपनी पराजयों और असफलताओं से कभी निराश नहीं होता था बल्कि पूर्ण उत्साह के साथ अपने शत्रु का मुकाबला करता था । अत : मैसूर के तृतीय युद्ध से भारी क्षति उठाने के बाद भी वह निरुत्साहित नहीं हुआ और अपनी पराजय के कलंक को धो डालने के लिए युद्ध की तैयारी में जुट गया । उसने मैसूर के चतुर्थ - युद्ध में अंग्रेजों का वीरता तथा साहस के साथ मुकाबला किया और युद्ध में लड़ते हुए 4 मई , 1799 को वीरगति को प्राप्त हुआ ।
( 2 ) योग्य शासक
टीपू सुल्तान एक योग्य शासक था । यद्यपि वह एक निरंकुश शासक था परन्तु वह अपनी प्रजा के सुख - दुःख का सदैव ध्यान रखता था । उसका राज्य धन - सम्पन्न था तथा कृषि , व्यापार , उद्योग आदि उन्नत अवस्था में थे । वह राज्य के प्रत्येक कार्य पर अपनी दृष्टि रखता था और साधारण ब्यौरे की बातों की भी देखभाल वह स्वयं करता था । उसने सेना , व्यापार , नाप - तौल आदि विभिन्न क्षेत्रों में अनेक सुधार किये ।
( 3 ) राजनीतिज्ञ के रूप में
टीपू अपने पिता हैदरअली की भांति चतुर राजनीतिज्ञ नहीं था । उसने अंग्रेजों के विरुद्ध निजाम तथा मराठों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया । यह उसकी एक राजनीतिक भूल थी । फिर भी उसने अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की फूट का लाभ उठा कर फ्रांसीसियों के साथ गठबन्धन स्थापित करने का प्रयास किया । उसने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए फ्रांसीसियों का सहयोग प्राप्त किया । उसने अंग्रेजों के विरुद्ध काबुल , टर्की , मारीशस आदि देशों में अपने राजदूत भेजे और उनसे सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया ।
( 4 ) उदार एवं सहिष्णु व्यक्ति
टीपू अंग्रेजों का प्रबल शत्रु था । अतः कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने टीपू की कटु आलोचना की है । विकस का कथन है , “ टीपू के असीम अत्याचारों के कारण उसके राज्य का प्रत्येक हिन्दू उसके शासन से घृणा करने लगा था । ” परन्तु इस कथन में सत्यता नहीं है । अधिकांश विद्वान टीपू को उदार एवं धर्म - सहिष्णु व्यक्ति मानते हैं । श्री नेत्र पाण्डेय के अनुसार , “ यद्यपि टीपू कट्टर मुसलमान था परन्तु अपनी हिन्दू प्रजा के साथ वह असहिष्णुता का व्यवहार नहीं करता था और उसके दुःख - सुख का ध्यान रखता था । ”
( 5 ) एक व्यक्ति के रूप में
टीपू का व्यक्तित्व प्रभावशाली था । वह कठोर परिश्रमी , उत्साही और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था । वह उच्चकोटि का विद्वान् था और अनेक भाषाओं का ज्ञाता था । वह एक चरित्रवान व्यक्ति था और विलासिता से कोसों दूर रहता था ।
( 6 ) स्वतन्त्रता का उपासक
टीपू सुल्तान स्वतन्त्रता का उपासक था । वह पक्का देशभक्त था तथा मैसूर - राज्य की स्वतन्त्रता के लिए मृत्यु - पर्यन्त संघर्ष करता रहा । जब अनेक भारतीय नरेश लालच में आकर अंग्रेजों के सामने आत्म - समर्पण कर रहे थे और उनकी अधीनता स्वीकार कर रहे थे , उस समय टीपू सुल्तान ने स्वतन्त्रता का झण्डा ऊंचा रखा और एक स्वतन्त्रता सेनानी की भांति लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ ।
टीपू सुल्तान की असफलता के कारण
टीपू सुल्तान एक कुशल प्रशासक , योग्य सेनापति , आर्थिक नियोजक तथा निर्माता था । उसके चरित्र में अनेक गुणों के बावजूद एक अवगुण बहुत ही खतरनाक था । वह बहुत जल्दबाज था । उसने त्रावणकोर राज्य पर जल्दबाजी में , अंग्रेजी गवर्नर लार्ड कार्नवालिस की इस चेतावनी के बावजूद कि त्रावणकोर पर आक्रमण अंग्रेजों पर आक्रमण समझा जायेगा , आक्रमण कर दिया जिससे मैसूर की तीसरी लड़ाई ( 1790-92 ) हुई । टीपू सुल्तान इस लड़ाई में पराजित हुआ तथा उसे एक करोड़ रुपये की विशाल राशि युद्ध क्षति के रूप में अंग्रेजों को देनी पड़ी और अपने दो लड़के बन्धक के रूप में अंग्रेजों को सौंपने पड़े । इस पराजय का बदला लेने के लिए जल्दबाज टीपू अधीर हो उठा । उसने फ्रांस के सम्राट नेपोलियन के पास अपना दूत भेजा ताकि वह अंग्रेजों के विरुद्ध उसे सहायता दे । अंग्रेजों को इस सांठगांठ की जानकारी मिल गई । साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल वेल्सली ने 1799 ई . में मैसूर राज्य पर आक्रमण कर दिया । मैसूर की इस चौथी लड़ाई में टीपू सुल्तान वीरगति को प्राप्त हुआ । उसकी असफलता के अन्य कारण थे—
( 1 ) वह फ्रांसीसियों पर आवश्यकता से अधिक भरोसा करता था ।
( 2 ) उसने निजाम तथा मराठों को अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास नहीं किया ।
( 3 ) उसने अपनी घुड़सवार सेना के स्थान पर पैदल सेना को बढ़ावा दिया ।
( 4 ) टीपू अपने सेनानायकों की सलाह को भी ठुकरा दिया करता था ।
( 5 ) उसने आक्रामक नीति अपनाने की बजाय रक्षात्मक नीति अपनाई ।
( 6 ) उसमें अपने पिता हैदरअली जैसी सूझबूझ और राजनीतिक चतुराई नहीं थी ।
( 7 ) वह बादशाह के नाम खुतवा न पढ़वाकर अपने नाम से पढ़वाता था ।
( 8 ) उसने स्थानीय शासकों से सहायता लेने का प्रयास नहीं किया ।
( 9 ) उसमें कूटनीति का अभाव था ।