पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार राजस्थान का इतिहास पूर्व पाषाण काल से प्रारम्भ होता है . आज से करीब एक लाख वर्ष पहले मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे या अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करता था . आदिम मनुष्य अपने पत्थर के औजारों की मदद से भोजन की तलाश में हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते थे , इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ , रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं .
राजस्थान का पाषाण काल
राजस्थान में इस समय के आदिमानव द्वारा प्रयुक्त जो प्राचीनतम पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं वे लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुराने हैं .
राज्य में इस काल के बनास , बेड़च , गम्भीरी एवं चंबल आदि नदियों की घाटियों तथा इनके समीपवर्ती स्थानों से प्रस्तरयुगीन मानव के निवास करने के प्रमाण मिलते हैं .
पुरापाषाण काल
इस काल में मनुष्य द्वारा पत्थर के खुरदरे औजार प्रयोग में लिए जाते थे .
वर्ष 1870 में सी . ए . हैकर ने जयपुर व इन्द्रगढ़ में ' हैण्डएक्स ' , ' एश्यूलियन ' व ' क्लीवर ' नामक औजारों की सर्वप्रथम खोज की .
प्रारम्भिक पाषाणकालीन स्थल - ढिंगरिया ( जयपुर ) , मानगढ़ , नाथद्वारा , हम्मीरपुर ( भीलवाड़ा ) , मण्डपिया ( चित्तौड़ ) , बींगौद ( भीलवाड़ा ) एवं देवली ( टोंक ) .
इस काल में मानव के राजस्थान में जयपुर , इन्द्रगढ़ , अजमेर , अलवर , भीलवाड़ा , झालावाड़ , चित्तौड़गढ़ , जालौर , पाली , जोधपुर आदि जिलों में विस्तृत होने के प्रमाण मिले हैं .
राजस्थान के विराटनगर , भानगढ़ तथा ढिगारिया आदि स्थानों से हैण्डएक्स ' संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं .
विराटनगर में शैलाश्रयों एवं प्राचीन गुफाओं से पुरापाषाण काल से उत्तरपाषाण कालीन सामग्री प्राप्त हुई है .
मध्यपाषाण काल
मध्यपाषाण काल का आरम्भ 10 हजार ई . पू . से माना जाता है .
इस काल के उपकरणों में ' स्क्रेपर ' एवं ' पाइंट ' विशेष उल्लेखनीय है जो अपेक्षाकृत छोटे - हल्के एवं कुशलतापूर्वक बनाए गए थे .
यह उपकरण लूणी तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियों में , चित्तौड़गढ़ जिले की बेड्च नदी की घाटी में तथा विराटनगर ( जयपुर ) से प्राप्त हुए हैं .
इस काल तक मानव पशुपालन सीख चुका था , लेकिन उसे कृषि का ज्ञान नहीं था .
उत्तर / नवपाषाण काल
नवपाषाण काल का आरम्भ 5 हजार ई . पू . से माना जाता है .
नवपाषाण काल में कृषि द्वारा खाद्य उत्पादन किया जाने लगा तथा इस काल में पशुपालन उन्नत हो चुका था .
राजस्थान में नवपाषाण काल के अवशेष चित्तौड़गढ़ जिले में बेड़च व गम्भीरी नदियों के तट पर , चंबल व बामनी नदियों के तट पर भैंसरोड़गढ़ व नवाघाट से , बनास नदी के तट पर हम्मीरगढ़ , जहाजपुर एवं देवली , गिलुंड से , लूणी नदी के तट पर पाली , समदड़ी , टोंक जिले में भरनी आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं .
इस काल में मानव घर बनाकर रहने लगा तथा मृतकों को समाधियों में गाढ़ना प्रारम्भ कर दिया
प्रसिद्ध पुरातत्वविद् ' गार्डन चाइल्ड ' ने नवपाषाण काल को पाषाणकालीन क्रांति की संज्ञा दी .
नवपाषाण काल में समाज में व्यवसाय के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हुआ था .
सिंधु घाटी सभ्यता
सिंधु घाटी सभ्यता लगभग 3300 ईसा पूर्व की है . यह 2600 ईसा पूर्व और 1900 ईसा पूर्व ( परिपक्व सिंधु घाटी सभ्यता ) के बीच फली फूली इसका 1900 ईसा पूर्व के आसपास पतन होने लगा और 1400 ईसा पूर्व के आसपास लुप्त हो गई .
भारतीय उपमहाद्वीप में पहला शहरीकरण
इसमें पंजाब , सिंध , बलूचिस्तान , राजस्थान , गुजरात और पश्चिमी उत्तर प्रदेश शामिल थे . यह पश्चिम में सुतकागेंगोर ( ब्लूचिस्तान में ) से पूर्व में आलमगीरपुर ( पश्चिमी उत्तर प्रदेश ) तक फैला हुआ था ; और उत्तर में मांडू ( जम्मू ) से दक्षिण में दाइमाबाद ( अहमदनगर , महाराष्ट्र ) तक फैला हुआ था .
भारत में कालीबंगन ( राजस्थान ) , लोथल , धोलावीरा , रंगपुर , सुरकोटडा ( गुजरात ) , बनवाली ( हरियाणा ) , रोपड़ ( पंजाब ) आदि कुछ महत्वपूर्ण स्थल हैं .शैलाश्रय
राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला तथा चंबल नदी की घाटी से शैलाश्रय प्राप्त होते हैं , जिनसे प्रागैतिहासिक काल के मानव द्वारा उपयोग में लाये गए पाषाण उपकरण , अस्थि अवशेष तथा अन्य सामग्री प्राप्त हुई है .
इन शैलाश्रयों में सर्वाधिक आखेट से सम्बन्धित चित्र उपलब्ध होते हैं .
बूँदी में छाजा नदी तथा कोटा में चंबल नदी क्षेत्र अरनीया उल्लेखनीय है .
इनके अतिरिक्त विराटनगर ( जयपुर ) , सोहनपुरा ( सीकर ) तथा हरसौरा ( अलवर ) आदि से चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं .
महाजनपद काल ( 600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व )
भारत में दूसरे शहरीकरण की अवधि को चिह्नित करता है
विशेषताएं :
मिट्टी के बर्तन- उत्तरी काले पॉलिश किए गए बर्तन
धातु धन का उपयोग
बड़ी स्थायी सेनाओं के साथ जटिल प्रशासनिक प्रणालियों की उपस्थिति
कुशल कर संग्रह प्रणाली
लोहे के हल के फाल और धान की रोपाई का उपयोग
दोनों राजतंत्रों ( जैसे मगध , अवंती , अंग आदि ) के साथ साथ गणराज्यों से मिलकर बना
मौर्य युग
मौर्य युग में मत्स्य जनपद का भाग मौर्य शासकों के अधीन आ गया था . इस सन्दर्भ में अशोक का भाबुर शिलालेख अतिमहत्त्वपूर्ण है , जो राजस्थान में मौर्य शासन तथा अशोक के बौद्ध होने की पुष्टि करता है .
इसके अतिरिक्त अशोक के उत्तराधिकारी कुणाल के पुत्र सम्प्रति द्वारा बनवाए गए मंदिर इस वंश के प्रभाव की पुष्टि करते हैं .
कुमारपाल प्रबंध तथा अन्य जैन ग्रन्थों से अनुमानित है कि चित्तौड़ का किला व एक चित्रांग तालाब मौर्य राजा चित्रांग का बनवाया गया है .
चित्तौड़ से कुछ दूर मानसरोवर नामक तालाब पर मौर्यवंशी राजा मान का शिलालेख मिला है .
जी . एच . ओझा ने उदयपुर राज्य के इतिहास में लिखा है कि चित्तौड़ का किला मौर्य वंश के राजा चित्रांगद ने बनाया था , जिसे आठवीं शताब्दी में बापा रावल ने मौर्य वंश के अंतिम राजा मान से यह किला छिना था
इसके अतिरिक्त कोटा के कणसवा गाँव से मौर्य राजा धवल का शिलालेख मिला है जो बताता है कि राजस्थान में मौर्य राजाओं एवं उनके सामंतों का प्रभाव रहा होगा .
यवन शुंग कुषाण काल
मौर्यो के अवसान के बाद शुंग वंश का उत्थान हुआ था .
पंतजलि के महाभाष्य से ज्ञात होता है कि शुंगों ने यवनों से माध्यमिका की रक्षा की थी . ईस्वी पूर्व की दूसरी शती में यवन शासक मिनाडंर द्वारा माध्यमिका को विजित किया गया था .
नलियासर , बैराठ और नगरी से यवन शासकों के सिक्के मिले हैं .
कनिष्क के शिलालेखानुसार राजस्थान के पूर्वी भागों में उसका राज्य था .
गुप्तकाल
कुषाणों के पतन के उपरान्त प्रयाग और पाटलिपुत्र में गुप्तों का आविर्भाव हुआ जिनमें समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़े प्रसिद्ध थे . जैसा कि प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने यौद्धेय मालव एवं आभीर जनजातियों को पराजित कर दिया किन्तु अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं लाया उसके स्थान पर सर्वकर्मदान प्रणाम आज्ञाकरण की नीति अधिरोपित की .
पश्चिम भारत में शको का प्रभाव था , किन्तु जब चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य शक शासक रूद्र सिंह को पराजित करता है तो पश्चिम भारत में भी गुप्तों का आधिपत्य स्थापित हो जाता है .
इन राज्यों में वरीके वंश प्रमुख है . 371 ई . के विजयगढ़ ( बयाना ) प्रस्तर शिलालेख से विष्णुवर्धन नामक वरीक वंश के राजा का उल्लेख मिलता है , जिसके पिता यशोवर्धन थे . संभवतः ये समुद्र गुप्त के सामंत रहे हो .
इसी प्रकार 423 ई . का झालावाड़ से एक शिलालेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि दक्षिण - पूर्वी राजस्थान में औलीकर वंश का शासन था .
यह लेख विष्णु वर्मन नामक शासक का है जिसके द्वारा किए गए । जनहित कार्यों की जानकारी मिलती है . कुछ विद्वान औलीकर वंश का सम्बन्ध वर्धन वंश से भी जोड़ते हैं .
हूण
गुप्तवंशी सम्राट् स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा तो की थी , परंतु इनके आक्रमणों ने इनके साम्राज्य की नींव को जर्जरित कर दिया .
हूण राज्य तोरमाण ने 503 ई . में राजपूताना , गुजरात , काठियावाड़ आदि भागों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया . तोरमाण के मिट्टिरकुल का भी राजस्थान के कई भागों पर अधिकार बना रहा .
मिहिरकुल ने बडौली में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था . हूणों ने माध्यमिका पर भी आक्रमण किया था तथा गुहिल नरेश अल्लट द्वारा हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया तथा उस रानी ने हर्षपुर गाँव भी बसाया था .
गुप्तों के पतन और हूणों द्वारा अराजकता पैदा करने की स्थिति से लाभ उठाकर मालवा के यशोवर्मन ने 532 ई . के आस - पास मिहिरकुल को परास्त कर हूणों की शक्ति को निर्बल बना दिया .
वे अपने अधिकारों को बनाए रखने के लिए यत्र - तत्र कई राजाओं से लड़ते रहते , परन्तु अन्त में उनको यहाँ की लड़ाकू जातियों जैसे कुनबी कुषकों के साथ विलय के लिए बाध्य होना पड़ा .
आबू क्षेत्र में रहने वाला ' कुनबी ' या कलबी ( Kalbi ) समुदाय स्वयं को हूणों का वंशज मानते हैं तथा ' हूण ' को उज्जमकर , की तरह उपयोग करते हैं .
हर्षवर्धन एवं राजस्थान के सम्बन्धों को लेकर ठोस जानकारी का अभाव है .
संभवतः हर्षवर्धन ने भी मौर्य व गुप्तों के शासन राजस्थान पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित न किया हों किन्तु इस समय कई क्षेत्रीय राज्यों की जानकारी मिलती है .
इसमें से एक प्राचीन राजपूत जाति है चावड़ा , इस जाति का शासन आबू एवं भीनमाल पर था .
इसकी जानकारी रज्जिल के 625 ई . के बसंतगढ़ लेख में मिलती है , इसमें पता चलता है कि आबू प्रदेश पर वर्मलात का शासन था .
भीनमाल के रहने वाले कवि माघ के शिशुपाल वध से ज्ञात होता है कि उसके पितामह सुप्रभदेव वर्मलाल के मंत्री थे .
इसी प्रकार भीनमाल के अन्य विद्वान ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त में 628 ई . व्याघ्रमुख नामक चंपा वंशी राजा का उल्लेख मिलता है .
ह्वेनसांग 661 ई . के आसपास भीनमाल आया था तब यहाँ चावड़ों का ही शासन था . अरब आक्रमण से चावड़ों का राज्य कमजोर हो गया और उनके राज्य को प्रतिहारों ने अपने अधिकार में कर लिया .