भारतीय ऐतिहासिक स्थल महत्वपूर्ण नोट्स (PDF)

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कर्णसुवर्ण– कर्णसुवर्ण वर्तमान में पश्चिमी बंगाल का मुर्शिदाबाद है . चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कर्णसुवर्ण का अपने यात्रा वृत्तान्त में उल्लेख किया है . ह्वेनसांग के समय का यह अत्यन्त समृद्ध नगर गौड़ नरेश शशांक के शासनोपरान्त कामरूप के शासक भास्कर वर्मा द्वारा अपने राज्य में मिला लिया गया . पुनः सेनवंशीय राजाओं ने इसे गौड़ राज्य में मिलाया तथा कर्णसुवर्ण को गौड़ प्रदेश की राजधानी बनाया था .

साँची- साँची महत्वपूर्ण बौद्धस्थल है , जो वर्तमान में मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले में अवस्थित क्षेत्र है . बौद्धों के तीर्थस्थल एवं स्तूपों के लिए विख्यात यह क्षेत्र पहाड़ी पर बसा हुआ है . यहाँ के एक विशाल स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक ने कराया था .

नालंदा - शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीनकाल से विख्यात रहा यह क्षेत्र वर्तमान में दक्षिण बिहार के राजगिरि के पास के क्षेत्रों में अवस्थित है . प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय इसी स्थल पर अवस्थित था . चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहाँ पर वीद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त की थी . बौद्ध भिक्षु शीलभद्र ह्वेनसांग के समय नालंदा विश्वविद्यालय का कुलपति था . मगध शासक की अनुमति से वालपुत्रदेव यहाँ पर पठन - पाठन के लिए आए विद्वानों के लिए एक विहार का निर्माण भी कराया था .

बुर्जहोम - वर्तमान में यह स्थल बुर्जहोम के नाम से ज्ञात , जो जम्मू - कश्मीर राज्य में अवस्थित है . यह स्थल नवपाषाणकालीन स्थलों में से प्रमुख स्थल है . सन् 1935 में प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता पीटरसन एवं डी . टेरा ने उत्खनन कर यहाँ से मिट्टी के बर्तन , भेड़ - बकरी आदि पशुओं की हड्डियाँ एवं नवपाषाणकालीन अन्य साक्ष्य प्राप्त किये थे . इस स्थल पर शवों के साथ कुत्तों के दफनाए जाने के साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं .

लोथल- लोथल सिन्धु सभ्यता का प्रमुख स्थल था , - जो भोगवा नदी के किनारे वर्तमान गुजरात के अहमदाबाद जिले में अवस्थित है . यह सिन्धु सभ्यता का प्रसिद्ध वन्दरगाह है . यहाँ पर एक गोदीवाडा ( Dockyard ) , मुद्रा , जहाज का चित्र एवं अन्य सिन्धु सभ्यता के प्रमुख साक्ष्य प्राप्त हुए यहाँ पर चावल उत्खनन के दौरान प्राप्त हुए हैं .

ब्रह्मगिरि- ब्रह्मगिरि वर्तमान में कर्नाटक के चित्तल दुर्ग जिले में अवस्थित है . यहाँ पर मौर्य सम्राट् अशोक का एक लघु शिलालेख प्राप्त हुआ है . अशोक के धर्म प्रचार के सम्बन्ध में इस शिलालेख में उल्लेख प्राप्त होता है . अशोक के दक्षिणी प्रान्त का केन्द्र सुवर्णगिरि था और वहाँ पर ' कुमार ' प्रशासन को सँभालता था . इस तरह का वर्णन भी इस अभिलेख में प्राप्त होता है .

प्रतिष्ठान- पुराणों के अनुसार प्रतिष्ठान को ब्रह्माजी के द्वारा बसाया हुआ माना जाता है . वर्तमान में यह महाराष्ट्र के औरंगाबाद से 35 किमी दूरी पर अवस्थित था . इसी नगर को विभिन्न विद्वानों ने ' प्लीयान ' ( एशियन ने ) , ' वैथन ' ( टॉलेमी ने ) , पैथान या पीथान ( पेरीप्लस के अज्ञात लेखक ने ) नाम से सम्बोधित किया है . यह सातवाहन शासक पुलुमावि की राजधानी , सातवाहनों का आदिस्थान माना जाता है . यहाँ पर से हाथीदाँत एवं शंख की वस्तुएँ , मिट्टी की मूर्तियाँ , भवनों के खण्डहर प्राप्त हुए

कुम्भकोणम् – यह विख्यात प्राचीनकालीन शिक्षा केन्द्र के रूप में पहचाना जाता था . कुम्भकोणम् तमिलनाडु में कावेरी नदी के तट पर अवस्थित था . यहाँ पर सारंगपाणी ( विष्णु के अवतार ) के मन्दिर की नक्काशी विश्वविख्यात है . कुम्भ के आयोजन के लिए भी यह स्थल चर्चित है . रामास्वामी , कुम्भेश्वर एवं नागेश्वर के मन्दिर भी यहाँ की प्रसिद्धि का प्रमुख कारण है .

वातापी - वातापी की स्थापना पुलकेशिन प्रथम ने की थी . यह नगर चालुक्य शासकों की राजधानी था . वर्तमान में वातापी कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले का वादामी ' क्षेत्र है . यहाँ पर चार स्तम्भ युक्त बरामदे बने हुए हैं जिनमें तीन हिन्दुओं के एवं एक जैन धर्म का है . वैष्णव गुहा , विष्णु की अनन्तशायी एवं नृसिंह की मूर्तियों के लिए विख्यात है . गुफाओं की चित्रकारी के लिए भी यह स्थल प्रसिद्ध है . पुलकेशिन प्रथम के द्वारा निर्मित दुर्ग भी वातापी में ही स्थित है .

बाणपुर - वाणपुर वर्तमान में राजस्थान के भरतपुर जिले का बयाना स्थल है . यहाँ पर उत्खनन से गुप्तकालीन मुद्राएँ प्राप्त हुई है . वाणपुर के पास खानवा के मैदान में बाबर और राणासांगा के मध्य खानवा का युद्ध यहीं पर हुआ था . मुगलकाल में यह भरतपुर के जाट राजाओं की रियासत भी रही थीं . करावली वंश के प्रथम शासक राजा विजयपाल ने बाणपुर में विजय मंदिर गढ़ बनवाया था .

पुष्कलावती - पुष्कलावती वर्तमान में चारसड्डा नामक नगर है , जो पाकिस्तान में पेशावर से 17 मील की दूरी पर अवस्थित था . यूनानी सम्राट सिकन्दर के आक्रमण के समय यह नगर धर्म और कला का मुख्य केन्द्र था . ह्वेनसांग के समय यह प्रमुख बौद्ध धर्म का केन्द्र था . यहाँ पर बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए कई बौद्ध बिहारों का निर्माण कराया था .

कलकत्ता – भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं अंग्रेजों का प्रमुख व्यापारिक स्थल कलकत्ता था . बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में कलकत्ता क्रांतिकारियों की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था . सन् 1911 तक कलकत्ता ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की राजधानी थी .

देवगढ़ - झाँसी के पास ललितपुर क्षेत्र में देवगढ़ एक छोटे से गाँव के रूप में आज अवस्थित है , किन्तु देवगढ़ भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्थल है . यहाँ पर गुप्तकाल में निर्मित दशावतार मन्दिर के अतिरिक्त अनेक मन्दिर एवं उनके अवशेष हैं . उल्लेखनीय है कि उत्तरी भारतीय स्थापत्य के नागर शैली के मन्दिरों में देवगढ़ का दशावतार मन्दिर प्रतिनिधि कलाकृति माना जाता है . यह विष्णु के दस अवतारों से सम्बन्धित है . विष्णु के अतिरिक्त यहाँ शिव , पार्वती , देवी तथा देवताओं की अनेक कलात्मक मूर्तियाँ पायी जाती हैं .

दशपुर- मध्य प्रदेश राज्य का मंदसौर नगर प्राचीन समय में दशपुर के नाम से सम्बोधित किया गया है . शिवना नदी के तट पर स्थित इस नगर का उल्लेख कालिदास ने अपने साहित्य ( मेघदूत ) में किया है . मालवा क्षेत्र के दशपुर की एक विशिष्ट मालवी संस्कृति रही है . प्राचीनकाल में यहाँ एक उल्लेखनीय सूर्य मन्दिर था . कुमारगुप्त के समय में दशपुर नगर वैभव एवं समृद्धि के लिए विख्यात था .

कल्याण- भड़ौच के निकट स्थित कल्याण दक्षिण भारत का एक प्रमुख नगर है . यह प्राचीन भारत के प्रमुख व्यापारिक नगरों में से एक माना जाता है . यहाँ से एक व्यापारिक मार्ग वेंगी को कल्याण से जोड़ता था . उल्लेखनीय है कि कल्याण से विदेशी व्यापार वर्जित था . कल्याण शक शासक के अधीन रहा था . यह चालुक्यों के शासन में भी रहा था .

शाकल – स्यालकोट नगर ( वर्तमान में पाकिस्तान स्थित ) का प्राचीन नाम शाकल्य एवं शाकल पाया जाता है . यह नगर प्राचीन भारत का प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था . यह मद्र देश की राजधानी भी थी . यहाँ बौद्ध साहित्य तथा दर्शन की शिक्षा दी जाती थी .

काशगर - मध्य एशिया में स्थित काशगर नामक स्थान तुर्किस्तान में स्थित है . कनिष्क का शासन क्षेत्र काशगर तक फैला हुआ था . प्राचीन सभ्यता केन्द्रों में काशगर तथा खोतान की सभ्यताएँ उल्लेखनीय हैं . कनिष्क के शासनकाल में काशगर बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था . कनिष्क एकमात्र भारतीय राजा हुआ जिसने अपना राज्य मध्य एशिया के इन भागों तक फैलाने में सफलता प्राप्त की थी .

रामेश्वरम् – भारत के दक्षिणी छोर में वर्तमान में तमिलनाडु राज्य के अन्तर्गत रामेश्वरम् आता है . रामायण कथा में वर्णित रामेश्वरम शिवलिङ्ग एवं समुद्र सेतु इस स्थल पर भगवान् श्रीराम ने बनवाया था . आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित दक्षिणी पीठ रामेश्वरम् में है . यहाँ के शिवलिंग की गणना भारत के वारह ज्योतिर्लिंगों में होती है .

कावेरीपत्तनम् – यह वर्तमान में कावेरी नदी के तट - पर अवस्थित है . यह चोल शासकों की राजधानी थी . कावेरीपत्तनम् दक्षिण भारत का प्राचीनकाल में प्रमुख व्यापारिक नगर था . कावेरीपत्तनम् में चोल शासकों द्वारा निर्मित अनेक मन्दिर प्रसिद्ध हैं .

साकेत - अंगुत्तरनिकाय में वर्णित सोलह महा जनपदों में कोसल भी एक था , जो अयोध्या का प्राचीन नाम था . कालान्तर में उत्तरी साकेत और दक्षिणी साकेत के रूप में यह महाजनपद विभक्त हो गया . उत्तरी कोशल की राजधानी साकेत थी . प्रसिद्ध राजवैद्य ' जीवक ' यहाँ का निवासी था . शुंगकाल में पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेध यज्ञ किया . यह नगर धनी सेठों के लिए भी प्रसिद्ध था .

विक्रमशिला- प्राचीन भारत के प्रख्यात विश्व विद्यालयों में से एक विक्रमशिला राज्य के भागलपुर जिले में स्थित था , जिसे मुस्लिम आक्रमणों का शिकार होकर समाप्त हो जाना पड़ा . इसकी स्थापना तत्कालीन गौड़ नरेश देवपाल ने की थी . इसके अवशेष अभी भी भागलपुर से 25 मील दूर पाथर घाटा नामक स्थान पर बिखरे पड़े हैं . यह विश्वविद्यालय आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक दक्षिण पूर्वी एशिया का सर्वोत्तम शिक्षा केन्द्र था . यहाँ बौद्ध , जैन तथा हिन्दू दर्शन की शिक्षा दी जाती थी . ज्यामिति एवं खगोल तथा आयुर्वेद अन्य प्रमुख विषय थे . इसके अवशेषों को देखकर तत्कालीन स्थापत्य तथा नियोजन पद्धति की खूवियों की जानकारी मिलती है

कुरुक्षेत्र - स्थानेश्वर या थानेश्वर के निकट स्थित कुरुक्षेत्र के मैदान में ही महाभारत का युद्ध हुआ था . यहीं कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था . वर्तमान में कुरुक्षेत्र हरियाणा का एक जिला मुख्यालय है . यहाँ पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय स्थित था .

काँची - दक्षिण भारत की काशी कही जाने वाली इस नगरी की गणना भारत की सात स्वर्गतुल्या नगरियों में की जाती थी . यह प्राचीन समय में पल्लवों की राजधानी थी . वर्तमान समय में यह तमिलनाडु राज्य में स्थित है . दक्षिण भारत के इतिहास में यह कला - संस्कृति , साहित्य तथा संगीत के केन्द्र के रूप में जानी जाती थी .

नादिया- इसका एक नाम नवद्वीप भी पाया जाता है . नादिया शब्द नवद्वीप का ही अपभ्रंश रूप है . स्थान पूर्वी बंगाल में भागीरथी एवं जंगाली नदी संगम पर स्थित है . भारत के प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास में नवद्वीप शिक्षा के एक विख्यात केन्द्र के रूप में जाना जाता है . इसलिए केन्द्र के तर्कशास्त्र को काफी मान्यता थी . संस्कृत के कवि जयदेव जिनकी रचना ' गीतगोविन्दम् ' है यहीं के निवासी थे . ' स्मृतिविवेक ' नामक ग्रन्थ के रचयिता शूलपाणि नादिया के ही निवासी थे .

ओदन्तपुरी - प्राचीन भारत में बौद्ध - शिक्षा के अनेक केन्द्र थे . इनमें से कई वर्तमान के विहार राज्य में स्थित थे . ओदन्तपुरी नामक स्थान विहार में गया के पास स्थित एक ऐसा ही केन्द्र था . बंगाल के पालवंशीय शासकों ने इसे बौद्ध शिक्षा केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित करने में काफी योगदान किया था . यहाँ पर बौद्ध धर्म की शिक्षा के साथ - साथ ब्राह्मण धर्म की शिक्षा भी दी जाती थी .

महोबा - वर्तमान उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में स्थित महोबा एक प्राचीन नगर है . चंदेल राजपूतों ने नवीं से तेरहवीं शताब्दी तक इसे अपनी राजधानी बनाए रखा . उस समय यह क्षेत्र जेजाकभुक्ति या जुझौती कहलाता था . पृथ्वीराज चौहान ने 1182 ई . में चंदेल शासक परमार्दिदेव को पराजित करके इस पर अधिकार कर लिया , लेकिन कुछ समय बाद चंदेलों ने इस पर पुनः अधिकार कर लिया . 1202 ई . में समस्त बुंदेलखंड के साथ ही महोदा भी दिल्ली के तुर्क साम्राज्य का अंग बन गया . कला प्रेमी चंदेलों द्वारा निर्मित अनेक मन्दिरों के अवशेष आज भी प्राप्त होते हैं .

उदयगिरि - उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से सात मील दूर उत्तर पश्चिम में उदयगिरि नामक स्थान के निकट स्थित पहाड़ियों की शृंखला में 123 फीट ऊँची है . कलिंग नरेश खारवेल का प्रसिद्ध हाथी गुम्फा अभिलेख खंडगिरि से कुछ ही दूर स्थित है . खंडगिरि की गुफाएँ जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं . इन गुफाओं का निर्माण सम्भवतः प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में किया गया था .

पुरी - जगन्नाथपुरी उड़ीसा राज्य के समुद्र तट पर स्थित एक प्राचीन ऐतिहासिक व धार्मिक नगर है . शंकराचार्य ने पूर्वी धाम जगन्नाथ पीठ यहीं स्थापित किया है . यहाँ प्राचीन जगन्नाथ का मन्दिर प्रसिद्ध है इसकी स्थापत्य कला का उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है . यहाँ की रथयात्रा सदियों से चली आ रही अबाध श्रद्धाधारा ही है . प्राचीन भारत की सप्त पुरियों में पुरी या जगन्नाथपुरी एक है . जगन्नाथ मन्दिर का निर्माण 11 वीं शती में यहाँ के तत्कालीन शासक अवन्ति वर्मा द्वारा करवाया गया था .

महाबलीपुरम्- इसे मामल्लपुरम् भी कहते हैं . यह स्थान तमिलनाडु में मद्रास ( चेन्नई ) से 40 मील की दूरी पर समुद्र तट पर स्थित है . सुदूर दक्षिण में शासन करने वाले पल्लव शासकों के काल में यह नगर एक प्रसिद्ध समुद्री बन्दरगाह तथा कला का प्रमुख केन्द्र था . यहाँ पर कठोर चट्टानों को काटकर मण्डप तथा एकाश्मक ( Monolithic Temple ) बनाये गए , जिन्हें रथ कहा गया . चट्टानों से निर्मित रथों को ' सप्तपैगोडा ' कहा जाता है . ये महाभारत के दृश्यों का चित्र प्रस्तुत करते हैं . इन पर दुर्गा , इन्द्र , शिव पार्वती , हरिहर ब्रह्म स्कंद तथा गंगा आदि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई थीं .

कोशाम्बी- वर्तमान इलाहाबाद के दक्षिण पश्चिम में लगभग 33 मील की दूरी पर स्थित ' कोसम ' नामक स्थान ही प्राचीन समय में कोशाम्बी के नाम से जाना जाता था . यह नगर यमुना के तट पर बसा हुआ था . पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर के राजा ने हस्तिनापुर के गंगा प्रवाह में नष्ट हो जाने के पश्चात् इस नगर की स्थापना की थी . पाँचवी - छठी शती ईसा पूर्व में कोशाम्बी में वत्स राज्य की राजधानी थी , जहाँ का शासक उद्यन था . गौतम बुद्ध ने इस नगर में अनेक उपदेश दिए थे . बौद्ध धर्म के केन्द्र होने के अतिरिक्त कोशाम्बी एक प्रमुख व्यापारिक नगर भी था . मौर्यकाल में पाटलिपुत्र का महत्व बढ़ जाने के कारण कोशाम्बी का गौरव कुछ कम हो गया और गुप्तकाल तक यह वीरान होने लगा था . कनिंघम महोदय ने सबसे पहले 1861 ई . में यहाँ की यात्रा की और पुरातत्त्वविदों का ध्यान आकृष्ट किया . फलतः 1937 में एन . जी . मजूमदार ने यहाँ उत्खनन का कार्य किया , लेकिन उनके निधन से इस कार्य में अवरोध आ गया . 1949 से 1966 ई . तक जी . आर . शर्मा के नेतृत्व में यहाँ व्यापक स्तर पर उत्खनन अभियान चलाया गया जिससे पुरातत्व महत्व की अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं .

भटनेर - वर्तमान राजस्थान में हनुमानगढ़ के समीप एक पूर्व मध्यकालीन स्थल 12 वीं तथा 13 वीं शताब्दी में इस पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार था . भाटी लोग दक्षिणी पंजाब से उत्तर - पश्चिमी राजस्थान के भू - भाग पर फैले हुए थे . यहाँ का किला अपनी सुन्दरता के लिए बेहद प्रसिद्ध है .

कोणार्क – वर्तमान राज्य उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर के समीप ही लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोर्णाक पुरी से 33 किलोमीटर दूरी पर अवस्थित है . आइन - ए - अकवरी के लेखक अबुल फजल के अनुसार कोर्णाक में स्थित सूर्य मन्दिर का निर्माण 9 वीं शताब्दी में केशरीवंशी एक राजा द्वारा करवाया गया था . 13 वीं शताब्दी में गंग वंश के राजा नरसिंह देव प्रथम द्वारा इसे नया रूप प्रदान किया गया . चतुर्भुजाकार परकोटे पर स्थित इस मन्दिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर था और सूर्योदय के समय सूर्य की पूजा की जाती थी . इस मन्दिर के गर्भगृह में पशु - पक्षियों , किन्नरों , देवताओं , देवियों , गन्धर्वों तथा अप्सराओं की विभिन्न मूर्तियाँ अभी भी हैं . यहाँ की मूर्तियों में खजुराहो शैली की झलक दिखायी देती है .

उत्तरा मेरूर - तमिलनाडु में स्थित एक ग्राम , जहाँ से लगभग 200 चोल एवं पल्लवकालीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं . इनसे यह स्पष्ट होता है कि चोल शासन के दौरान ग्राम अधिकाधिक स्वायत्त थे . 10 वीं शताब्दी के मन्दिर पर उत्कीर्ण एक लेख से विदित होता है कि चोल शासन में स्थानीय निकाय ' सभा ' के सदस्यों का चुनाव लॉटरी पद्धति से होता था . चोल काल में प्रशासन के उच्च स्तरों और राजनैतिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों से ग्रामों का दैनन्दिन जीवन अप्रभावित रहता था .

भगवानपुरा- यह स्थान वर्तमान में हरियाणा राज्य - के कुरुक्षेत्र में एक छोटे से गाँव के रूप में है . 1975 ई . में किए गए उत्खनन से यहाँ हड़प्पाकालीन सभ्यता के साक्ष्य मिले हैं . यहाँ के एक स्तर से हड़प्पाइयों तथा आर्यों के साक्ष्य मिलने से यह प्रमाणित होता है कि कभी वे एक ही वस्ती में रहते थे .

सित्तनवासल- यह स्थल तमिलनाडु के तंजोर जिले में पुदुकोट्टा नामक स्थान से 16 किलोमीटर दूरी पर पश्चिमोत्तर दिशा में स्थित है . यहाँ के शैल गुहा मंदिर उल्लेखनीय हैं . ' सित्तनवासल ' शब्द से अभिप्राय जैन मुनियों से सम्बन्धित ' सिद्धों के निवास से है . इस कथन की पुष्टि यहाँ से प्राप्त तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के ब्राह्मी अभिलेख से भी होती है , जिसके अनुसार ये शैल - गुहाएँ जैन मुनियों के निवास हेतु निर्मित की गयी थीं . इन गुहाओं में उत्कृष्ट भित्तिचित्रों के अवशेष सुरक्षित हैं . बचे हुए चित्रों के रंग हालांकि उड़ गए हैं ; फिर भी उस समय की उत्कृष्ट चित्रकला की जानकारी के लिए पर्याप्त हैं . इन भित्तिचित्रों को कुछ समय पूर्व तक पल्लव चित्रकला का अवशेष माना जाता था , लेकिन अब यह तथ्य प्रकाश में आया है कि ये पल्लव कालीन न होकर पांड्यकालीन हैं और इन्हें अब राजसिंह प्रथम ( 730-765 ई . ) द्वारा बनवाया हुआ माना जाता है .

कपिशा- कपिशा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक नगर था जिसे छठी शताब्दी ई . पू . के मध्य पुक्कुशाती नामक शासक ने आक्रमण कर नष्ट कर दिया . कपिशा वर्तमान में काबुल के उत्तर - पूर्व में पंचशीर नदी के तट का क्षेत्र है .

पुरुषपुर- पेशावर के नाम से जाना जाने वाला यह नगर कनिष्क की राजधानी था .

तक्षशिला- तक्षशिला चौथी शताब्दी ई . पू . में भारत के उत्तर पश्चिम में मध्य एशिया से भारत आने वाले मार्ग पर स्थित था . यह शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र था और यहीं पर चाणक्य ने शिक्षा ग्रहण की थी .

हस्तिनापुर - हस्तिनापुर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्थित पौराणिक नगर है . महाभारत में इसे धृतराष्ट्र ( कुरुवंश ) की राजधानी बताया गया है .

इन्द्रप्रस्थ- इन्द्रप्रस्थ का पहले खाण्डवप्रस्थ नाम था . पाण्डवों ने इसे अपनी राजधानी बनाया और इसे यह नाम दिया .

कपिलवस्तु - छठी शताब्दी ई . पू . में यहाँ के शाक्य शासक सिद्धार्थ के यहाँ महावीर स्वामी का जन्म हुआ था . यह नगर नेपाल की तराई में बस्ती जिले के उत्तर में स्थित था .

कान्यकुब्ज– मध्यकाल में कन्नौज कहा जाने वाला यह नगर मौखरी राजाओं की राजधानी था . बाद में सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन ने इसे अपनी राजधानी बनाया था .

अयोध्या- यहाँ रामायण के नायक भगवान् राम का जन्म हुआ था . वर्तमान में यह नगर उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में स्थित है .

नासिक - नासिक गोदावरी के तट पर महाराष्ट्र में स्थित है . प्राचीनकाल में यह एक शक क्षत्रप की राजधानी था .

अबोहर - स्थल है , जिसे भट्टी राजपूत द्वारा वसाया गया था . वर्तमान में यह पंजाब के फिरोजपुर जिले में अवस्थित है . महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग एवं विदेशी आक्रमणकारियों के लिए इसे अत्यन्त प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी . यहाँ पर मुल्तान के सूबेदार एवं मुहम्मद विन तुगलक के मध्य 1328 ई . में युद्ध भी हुआ था . अवोहर में बलवन ने मंगोलों से बचने के लिए एक किले का निर्माण कराया था .

एलोरा - यह स्थान गुफाओं और द्रविड़ शैली के प्रसिद्ध कैलाश मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है .

गिलुण्ड- बनास संस्कृति के नाम से विख्यात गिलुण्ड ताम्रपाषाणिक सभ्यता का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थल था . वर्तमान में यह स्थल राजस्थान में उदयपुर के सन्निकट बनास नदी के किनारे पर अवस्थित है . यहाँ का पुरातात्त्विक टीला 750 फीट चौड़ा एवं 1500 फीट लम्बा था . यहाँ से कच्चे मकान , पशुओं के साक्ष्य एवं मिट्टी , ताँबे के बर्तन उत्खनन से प्राप्त हुए हैं .

अमरावती- प्राचीनकाल में धान्य कष्ठ नाम से प्रसिद्ध यह स्थल वर्तमान में आन्ध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में कृष्णा नदी के दाहिने तट पर अवस्थित है . सातवाहन शासकों के काल में यह हिन्दू संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था . आन्ध्रवंशीय सातवाहन शासक शातकर्णी प्रथम ने 180 ई . पूर्व में अमरावती को अपनी राजधानी बनाया था .

औरंगाबाद - इस स्थल का पूर्व नाम फतेहनगर था . जिसे औरंगजेब ने औरंगाबाद नाम दिया था . औरंगजेब द्वारा निर्मित मकवरा जिसे द्वितीय ताजमहल कहा जाता है , औरंगाबाद में अवस्थित है . नोखण्डा महल और काली मस्जिद के लिए भी यह स्थान प्रसिद्ध है .

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