भौगोलिक विस्तार
1500 ई.पू. से 1000 ई. पू. तक के काल को ऋग्वैदिक काल कहा जाता है एवं 1000 ई. पू. से 600 ई.पू. तक के काल को 'उत्तर वैदिक काल' कहा जाता है।
उत्तर वैदिक काल में ऋग्वेद को छोड़कर अन्य वेदों, ब्राह्मण, अरण्यक एवं उपनिषदों की रचना की गई।
इस काल में तीन वेदों सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के अतिरिक्त ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद और वेदांशो की रचना हुई। ये सभी ग्रन्थ उत्तर वैदिक काल के साहित्यिक स्रोत माने जाते हैं।
इस काल के प्राप्त बर्तनों को धूसर मृदभांड कहा जाता है । चित्रित धूसर मृद्भाण्ड इस काल की विशिष्टता थी, क्योंकि यहाँ के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों तथा थालियों का प्रयोग करते थे।
इस काल में लोहे के प्रयोग ने समाजिक-आर्थिक क्रांति पैदा कर दी।
उत्तर वैदिक काल में आर्यो का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ का उपयोग जान गए थे।
उत्तर वैदिक काल में आर्यों ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया और गंगा के आगे बढ़ते हुए पूर्वी प्रदेशों में निवास करने लगे ।
दिल्ली और दोआब के उपरी भाग पर अधिकार करते हुए बरेली, बदायूं, फर्रुखाबाद तक पहुँच गए और हस्तिनापुर को अपनी राजधानी बनाया, जो उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित है।
मगध में निवास करने वाले लोगों को अथर्ववेद में 'व्रात्य' कहा गया है। ये प्राकृत भाषा बोलते थे।
उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता का मुख्य केंद्र मध्य प्रदेश था, जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर गंगा के दोआब तक था।
विदेथ माधव कला का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। जो आर्यों के गंगा नदी के पूर्व की ओर विस्तार का प्रतीक है।
राजनितिक व्यवस्था
ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शासन पद्धतियाँ
स्थिति | शासन का नाम | शासन का प्रधान |
---|---|---|
पूर्व | साम्राज्य | सम्राट |
मध्य | राज्य | राजा |
पश्चिमी | स्वराज्य | स्वराट |
उत्तर | वैराज्य | विराट |
दक्षिण | भोज्य | भोज |
शतपथ ब्राह्मण ने पंजालों को वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा।
अथर्ववेद में परिक्षित को मृत्यु लोक का देवता कहा गया है।
राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था और सशक्त हुई।
इस काल में राज्य का आकार बढ़ने से राजा का महत्त्व बढ़ा और उसके अधिकारों का विस्तार हुआ। अब राजा को सम्राट, एकराट और अधिराज आदि नामों से जाना जाने लगा।
इस काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया।
'राष्ट्र' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल में ही किया गया।
पुनर्जन्म के सिद्धांत का सर्वप्रथम वर्णन शतपथ ब्राह्मण में किया गया।
उत्तर वैदिक में संस्थाओं, सभा और समिति का अस्तित्व कायम रहा किन्तु विदथ का उल्लेख नहीं मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में 'सभा' में महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध हो गया।
वैदिक कालीन शासन की सबसे बड़ी इकाई जन का स्थान जनपद ने ले लिया।
यजुर्वेद में राज्य के उच्च पदाधिकारियों को 'रत्नीय' कहा जाता था। ये राजपरिषद के सदस्य होते थे।
'रत्नीय' की संख्या 12 बतायी गयी है। रत्नियों को सूची में, राजा के सम्बन्धी, मंत्री, विभागाध्यक्ष एवं दरबारी आते थे।
उत्तर वैदिक काल में त्रिककुद, कैञ्ज तथा मैनाम (हिमालय क्षेत्र में स्थित) पर्वतों का उल्लेख भी मिलता है।
सभा को अथर्ववेद में नरिष्ठा कहा गया है।
इस काल में राजा के प्रभाव में वृद्धि के साथ ही जन परिषदों (सभा और समिति का महत्त्व घट गया।
ऋग्वैदिक काल में बलि एक स्वेच्छाकारी कर था, जो की उत्तर वैदिक काल में नियमित कर बन गया।
अथर्ववेद के अनुसार राजा को आय का 16वां भाग मिलता था।
उत्तर वैदिक कालीन यज्ञों- राजसूर्य, अश्वमेघ और वाजपेय का राजनीतिक महत्त्व था । ये यज्ञ राजा के द्वारा संपन्न कराये जाते थे।
सामाजिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक काल में समाज स्पष्ट रूप से चार वर्णों में विभक्त था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ।
इस काल में ब्राह्मणों ने समाज में अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर ली थी।
क्षत्रियों ने योद्धा वर्ग का प्रतिनिधित्व किया। इन्हें जनता का रक्षक माना गया। राजा का चुनाव इसी वर्ग से किया जाता था।
वैश्य व्यापार, कृषि और विभिन्न दस्तकारी के धंधे ऋग्वैदिक काल से ही अपना लिए थे और उत्तर वैदिक काल एक प्रमुख करदाता बन गए थे।
शूद्रों का काम तीनों उच्च वर्ग की सेवा करना था। इस वर्ग के सभी लोग श्रमिक थे।
उत्तर वैदिक काल में तीन उच्च वर्गों और शूद्रों के मध्य स्पष्ट विभाजन रेखा उपनयन संस्कार के रूप में देखने को मिलती है।
स्त्रियों को सामान्यतः निम्न दर्जा दिया जाने लगा। समाज में स्त्रियों को सम्मान प्राप्त था, परन्तु ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा इसमें कुछ गिरावट आ गयी थी। लड़कियों को उच्च दी जाती थी। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को कृपष कहा गया है।
पारिवारिक जीवन ऋग्वेद के समान था। समाज पित्रसत्तात्मक था, जिसका स्वामी पिता होता था। इस काल में स्त्रियों को पैत्रिक सम्बन्धी कुछ अधिकार भी प्राप्त थे।
इस काल में सती प्रथा के उद्भव का पता चलता है, लेकिन इसका प्रचलन बड़े पैमाने पर नहीं था। विधवा विवाह का प्रमाण नहीं मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई। गोत्र शब्द का अर्थ है वह स्थान जहाँ समूचे कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था। परन्तु बाद में इस शब्द का अर्थ एक मूल पुरुष का वंशज हो गया ।
उत्तर वैदिक काल में केवल तीन आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ की जानकारी मिलती है, चौथे आश्रम सन्यास की अभी स्पष्ट स्थापना नहीं हुई थी।
सर्वप्रथम चारों आश्रमों का उल्लेख जबालोपनिषद में मिलता है।
उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था
कृषि एवं पशुपालन
उत्तर वैदिक ग्रन्थों में लोहे के लिए लौह अयस एवं कृष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। अतरंजीखेड़ा में पहली बार कृषि से सम्बन्धित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
उत्तर वैदिक काल में आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि बन गया । शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं जुताई, बुनाई, कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में पृथुवैन्य को हल एवं कृषि का अविष्कारक कहा गया है।
पशुपालन का महत्व कायम था। गाय और घोड़ा अभी भी आर्यों के लिए उपयोगी थे। वैदिक साहित्यों से पता चलता है की लोग देवताओं से पशु की वृद्धि के लिए प्रार्थना करते थे।
यव (गौ), व्रीहि (धान), माड़ (उड़द), गुदग (मूंग), गोधूम (गेंहू), मसूर आदि खाद्द्यानों का वर्णन यजुर्वेद में मिलता है।
संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचने का उल्लेख मिलता है।
वाणिज्य व्यापार
उत्तर वैदिक काल में जीवन में स्थिरता आ जाने के बाद वाणिज्य एवं व्यापार का तीव्र गति से विकास हुआ।
इस काल के आर्य सामुद्रिक व्यापार से परिचित हो चुके थे।
शतपथ ब्राह्मण में वाणिज्य व्यापार और सूद पर रुपये देने वाले 'बोहरे' का उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो चुका था। परन्तु सामान्य लेन-देन में या व्यापार में वस्तु विनिमय का प्रयोग किया जाता था।
निष्क, शतमान, कृष्णल और पाद मुद्रा के प्रकार थे।
ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लिखित 'श्रेष्ठी तथा वाजसनेयी संहिता में उल्लिखित गण या गणपति' शब्द का प्रयोग संभवतः व्यापारिक संगठन के लिए किया गया है।
स्वर्ण तथा लोहे के अतिरिक्त इस युग के आर्य टिन, तांबा, चांदी और सीसा से भी परिचित हो चुके थे।
उद्योग एवं व्यवसाय
उद्योग और विभिन्न प्रकार के शिल्पों का उदय उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था की अन्य विशेषता थी । वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तरीय ब्राह्मण में विभिन्न व्यवसायों की लम्बी सूची मिलती है।
उत्तर वैदिक काल में अनेक व्यवसायों के विवरण मिलते हैं, जिनमें धातु शोधक, रथकार, बढ़ई, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्हार आदि का उल्लेख मिलता है।
इस काल में वस्त्र निर्माण उद्योग एक प्रमुख उद्योग था । कपास का उल्लेख नहीं मिलता। उर्ण (ऊन), राज (सन) का उल्लेख उत्तर वैदिक काल में मिलता है।
बुनाई का काम बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः यह काम स्त्रियाँ करती थीं। रंगसाजी एवं कढ़ाई का काम भी स्त्रियाँ करती थीं।
सिलाई हेतु सूची (सुई) का उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में मृदभांड निर्माण कार्य भी व्यवसाय का रूप ले चूका था। इस काल के लोगों में लाल मृदभांड अधिक प्रचलित था।
धातु शिल्प उद्योग बन चुका था। इस युग में धातु गलने का उद्योग बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः तांबे को गलाकर विभिन्न प्रकार के उपकरण व वस्तुएं बनायीं जाती थीं।
धार्मिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक काल में धर्म का प्रमुख आधार यज्ञ बन गया, जबकि इसके पूर्वज ऋग्वैदिक काल में स्तुति और आराधना को महत्व दिया जाता था ।
उत्तर वैदिक काल में मूर्ति पूजा के आरंभ होने के कुछ संकेत मिलते हैं।
यज्ञ आदि कर्मकांडो का महत्त्व इस युग में बढ़ गया था। इसके साथ ही आनेकानेक मन्त्र विधियाँ एवं अनुष्ठान प्रचलित हुए।
उपनिषदों में स्पष्ट रूप से यज्ञों तथा कर्मकांडों की निंदा की गयी।
इस काल मेंऋग्वैदिक देवता इंद्र, अग्नि और वायु रूप महत्वहीन हो गए। इनका स्थान प्रजापति, विष्णु और रूद्र ले लिया।
प्रजापति को सर्वोच्च देवता कहा गया, जबकि परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया।
उत्तर वैदिक काल में ही वासुदेव साम्प्रदाय एवं 6 दर्शनों सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा व उत्तर - अविर्भाव हुआ ।
सांख्य दर्शन भारत के सभी दर्शनों में सबसे पुराना था. इसके अनुसार मूल तत्व 25 हैं, जिनमें पहला तत्व प्रकृति है।
दर्शन - प्रवर्तक
1. चार्वाक - चार्वाक
2. योग - पतंजलि
3. सांख्य - कपिल
4. न्याय - गौतम
5. पूर्वमीमांसा उत्तरमीमांसा - जैमनी बादरायण
6. वैशेषिक - काक या उलूक
गृहस्थ आर्यों के लिए पंच महायज्ञ का अनुष्ठान आवश्यक था। पांच महायज्ञ निम्न हैं-
ब्रह्मयज्ञ - प्राचीन ऋषियों के प्रति कृतज्ञता
देवयज्ञ - हवन द्वारा देवताओं की पूजा अर्चना
पितृयज्ञ - पितरों का वर्णन
नृपश - अतिथि संस्कार
भूत यज्ञ की बलि - समस्त जीवों के प्रति कृतज्ञता
उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में कर्मकांड एवं अनुष्ठानों के विरोध में वैचारिक आन्दोलन शुरू हुआ। इस आन्दोलन की शुरुआत उपनिषादों ने की।
उपनिषदों में पुनर्जन्म, मोक्ष और कर्म के सिद्धांतों की स्पष्ट रूप से व्याख्या की गयी है।
उपनिषदों में ब्रह्म और आत्माके संबंधों को व्याख्या की गयी है।
छान्दोयज्ञ उपनिषद् में बताया गया है की मनुष्य इस जीवन में ब्रह्म, ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह मृत्यु के पश्चात ब्रह्म तत्व में विलीन हो जाता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
निष्काम कर्म का सिद्धांत सर्वप्रथम - "ईशोपनिषद् " में दिया गया है।
कठोपनिषद् में यम और नचिकेता का संवाद है। वृहदराण्यक उपनिषद में गार्गी याज्ञवल्क्य संवाद है।
1. सामवेद
इसे भारतीय संगीत का प्राचीनतम एवं प्रथम ग्रन्थ माना जाता है।
सामवेद में प्रमुख देवता 'सविता' या 'सूर्य' है, इसमें मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं किन्तु इंद्र सोम का भी इसमें पर्याप्त वर्णन है।
सामवेद का पाठ उद्गात्र या उद्गाता नामक पुरोहित ही करते थे। इसमें मंत्रों की संख्या 1869 है। लेकिन 75 मन्त्र मौलिक हैं। शेष मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं।
सामवेद की तीन शाखाएं हैं- कौथुम, रामायनीय और श्रमनीय ।
सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है। फिर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है।
2. यजुर्वेद
यह कर्मकांड से सम्बंधित है। इसमें अनुष्ठान परक और स्तुति परक दोनों तरह के मन्त्र हैं।
यह गद्य और पद्य दोनों में रचित है।
इसके दो भाग हैं- शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद । दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा ।
यजुर्वेद में मंत्रों की संख्या 2086 है।
यजुर्वेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाला पुरोहित अध्वर्यु कहलाता था।
कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिठल तथा संहिता ।
शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं-मयादिन तथा कण्व संहिता।
यजुर्वेद में राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोहों का उल्लेख है।
यजुर्वेद में गायत्री मंत्र तथा महामृत्युञ्जय मन्त्र का भी उल्लेख है। गायत्री मन्त्र का प्रयोग सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है।
3. अथर्ववेद
इसकी रचना सबसे अंत में हुई। अथर्ववेद में मंत्रों की संख्या 6000, 20 अध्याय तथा 731 सूक्त है।
अथर्ववेद में ब्रह्मज्ञान, धर्म, समाजनिष्ठा, औषधि प्रयोग, रोग निवारण मन्त्र, जादू टोना आदि अनेक विषयों का वर्णन है।
अथर्ववेद की दो शाखाएं हैं- पिप्पलाद और शौनक ।
अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी।
इसमें मगध वासियों को व्रात्य कहा गया है।
अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का भी महत्व है।
अथर्ववेद से स्पष्ट है कि कालान्तर में आर्यों में प्रकृति-पूजा की उपेक्षा हो गयी थी और प्रेत आत्माओं व तन्त्र-मन्त्र में विश्वास किया जाने लगा
4. ब्राह्मण ग्रन्थ
ब्राह्मण ग्रंथों की रचना वेदों की सरल व्याख्या हेतु की गयी थी। इन्हें वेदों का टीका भी कहा जाता है।
इसमें यज्ञों का अनुष्ठानिक महत्त्व दर्शया गया है।
इन ग्रंथों की रचना गद्य में की गई है। ये वैदिक वांग्मय का दूसरा हिस्सा है जिसमें गद्य रूप में देवताओं की यज्ञ के कर्मकाण्डों की व्याख्या की गयी है और मन्त्रों पर भाष्य दिया गया है।
इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। हर वेद का एक या एक से अधिक ब्राह्मण है (हर वेद की अपनी अलग अलग शाखा है। आज ये ही ब्राह्मण उपलब्ध हैं-
- ऋग्वेद - ऐतरेय ब्राह्मण (शाकल शाखा)
- कौषीतकि (या शांखायन) ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)
- सामवेद प्रौढ (या पंचविंश) ब्राह्मण
- षडविंश ब्राह्मण
- आर्षेय ब्राह्मण
- मन्त्र (या छान्दिग्य) ब्राह्मण
- जैमिनीय (या तावलकर) ब्राह्मण
- यजुर्वेद शुक्ल यजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मण (माध्यन्दिनि शाखा)
- शतपथ ब्राह्मण (काण्व शाखा)
- कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय ब्राह्मण
- मैत्रायणी ब्राह्मण
- कठ ब्राह्मण
- कपिष्ठल ब्राह्मण
- अथर्ववेद गोपथ ब्राह्मण
5. आरण्यक
आरण्यक ग्रंथों की रचना जंगलों में निवास करने वाले विद्वानों द्वारा की गयी है।
इसमें यज्ञ, धार्मिक अनुष्ठान एवं दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा है।
आरण्यकों में आत्मा, परमात्मा, संसार और मनुष्य सम्बन्धी ऋषियों के दार्शनिक विचार निबद्ध हैं। वर्तमान में कुल 7 आरण्यक हैं- ऐतरेय, शाखायन, तैत्तरीय, मैत्रायणी, मयादिन, वृहदारण्यक, तल्वकार व छन्दोग्य |
वेद सम्बन्धित आरण्यक
> ऋग्वेद ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक या कौषीतकि आरण्यक
> यजुर्वेद बृहदारण्यक, मैत्रायणी, तैत्तिरीयारण्यक
> सामवेद जैमनीयोपनिषद या तवलकार आरण्यक
> अथर्ववेद कोई आरण्यक नहीं
ऐतरेय आरण्यक का संबंध ऋग्वेद से है। ऐतरेय के भीतर पांच मुख्य अध्याय (आरण्यक हैं जिनमें प्रथम तीन के रचयिता ऐतरेय, चतुर्थ के आश्वलायन तथा पंचम के शौनक माने जाते हैं। डाक्टर कीथ इसे निरुक्त की अपेक्षा अर्वाचीन मानकर इसका रचनाकाल 6वीं शताब्दी का मानते हैं, परंतु वस्तुत: यह निरुक्त से प्राचीनतर है। ऐतरेय के प्रथम तीन आरण्यकों कर्ता महिदास हैं इससे उन्हें ऐतरेय ब्राह्मण का समकालीन मानना न्याय्य है।
शांखायन का भी संबंध ऋग्वेद से है। यह ऐतरेय आरण्यक के समान है तथा पंद्रह अध्यायों में विभक्त है जिसका एक अंश कौषीतकी उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है।
तैत्तिरीय आरण्यक दस परिच्छेदों (प्रपाठकों में विभक्त है, जिन्हें "अरण" कहते हैं। इनमें सप्तम, अष्टम तथा नवम प्रपाठक मिलकर " तैत्तिरीय उपनिषद" कहलाते हैं।
बृहदारण्यक वस्तुतः शुक्ल युजर्वेद का एक आरण्यक ही है, परंतु आध्यात्मिक तथ्यों की प्रचुरता के कारण यह उपनिषदों में गिना जाता है।
तवलकार (आरण्यक), सामवेद से संबद्ध एक ही आरण्यक है। जिसमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में कई अनुवाक । चतुर्थ अध्याय के दशम अनुवाक में प्रख्यात तवलकार (या केन) उपनिषद् है ।
6. उपनिषद
उपनिषद अरण्यकों के पूरक ग्रन्थ हैं। वैदिक साहित्य के अंत में इनकी रचना हुई, इसलिए इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है।
उपनिषद का अर्थ है- वह विद्या जो मुक्त के समीप बैठकर सीखी जाती है।
उपनिषदों की कुल संख्या 108 मानी गयी है, किन्तु प्रमाणिक उपनिषद - 12 ही हैं।
भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' मुण्डोकपनिषद से लिया गया है।
उपनिषदों में आत्मा, परमात्मा, मोक्ष एवं पुनर्जन्म की अवधारणा पर विचार किया गया है।
वेद - सम्बन्धित उपनिषद
ऋग्वेद - ऐतरेयोपनिषद
यजुर्वेद - बृहदारण्यकोपनिषद
शुक्ल यजुर्वेद - ईशावास्योपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद - तैत्तिरीयोपनिषद, कठोपनिषद, श्वेताश्वतरोपनिषद, मैत्रायणी उपनिषद
सामवेद - वाष्कल उपनिषद, छान्दोग्य उपनिषद, केनोपनिषद
अथर्ववेद - माण्डूक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद, मुण्डकोपनिषद
7. वेदांग
वेदांगों की संख्या 6 है- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष एवं छन्द ।
1. शिक्षा - वैदिक स्वरों के शुद्ध उच्चारण के लिए इनकी रचना हुई। इसे वेद की नासिका कहा गया। इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है।
2. कल्प - ये सूत्र हैं। इन्हें वेदों का हाथ कहा गया। वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र और धर्म सूत्र ।
3. व्याकरण - व्याकरण को वेदों का मुख कहा गया। इसमें नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग और प्रत्यय के प्रयोग, समासों एवं संधि के नियम बताए गए हैं। इससे प्रति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है।
4. निरुक्त - निरुक्त की रचना यास्क द्वारा की गयी है। इसमें शब्दों की व्युपत्ति की जानकारी मिलती है। वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया गया है।
5. छन्द - छंदों को वेदों का पैर माना गया है। वैदिक साहित्य में गायत्री तिष्ट्रप, जगती, वृहति आदि छंदों का प्रयोग मिलता है। वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है।
6. ज्योतिष - ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है। इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब 'वेदांग ज्योतिष' से है।
स्मरणीय तथ्य
उत्तर वैदिक काल में लोग पक्की ईंटों का प्रयोग करना नहीं जानते थे ।
अथर्ववेद में एक स्थान पर विश द्वारा राजा के चुनाव का वर्णन मिलता है।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा वाही होता है, जिसे प्रजा का अनुमोदन प्राप्त हो ।
यम और नचिकेता की कहानी का वर्णन कठोपनिषद में किया गया है।
उत्तर वैदिक काल में स्थायी सैन्य व्यवस्था की शुरुआत हुई।
उत्तर वैदिक काल में सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य कुरु और पांचाल थे।
गौतम ने ब्राह्मण के तीन कर्म बताये गए हैं- अध्यापन, पाजन एवं आपरिग्रह । ब्राह्मण उन सोलह प्रकार प्रकार के पुरोहितों में से एक थे, जो यज्ञों का नियोजन करते थे।
शिल्पियों में रथकार आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊंचा था और उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था।
तैत्तरीय ब्राह्मण में करघा के लिए 'वेमन' शब्द का प्रयोग मिलता है।
उत्तर वैदिक कालीन आर्यों को गोबर की खाद तथा ऋतुओं के बारे में जानकारी थी।
भारत में लोहे का साक्ष्य उत्तर वैदिक काल में सर्वप्रथम अंतरजीखेड़ा से प्राप्त होता है ।
राजसूय यज्ञ करने वाले प्रधान पुरोहित को 2,40,000 गाय दक्षिणा में दी जाती थी ।
उत्तर वैदिक काल में धार्मिक क्षेत्र में पशुओं की बलि देने की प्रथा का प्रचलन हुआ।
ऋग्वैदिक कालीन यज्ञों में 7 पुरोहित होते थे, जबकि उत्तर वैदिक कालीन यज्ञों में 14 पुरोहित होते थे
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