जैव प्रौद्योगिकी विज्ञान की वह शाखा है जिसमें जीव सम्बन्धी अभिकर्ताओं द्वारा पदार्थों और सेवाओं का निर्माण किया जाता है जैसे शराब बनाना, दूध से दही या पनीर बनाना आदि ये सभी क्रियाएं जैव प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित हैं। जैव प्रौद्योगिकी की वैश्विक पहचान, त्वरित रूप से उभरती, व्यापक विस्तार वाली प्रौद्योगिकी के रूप में हुई है। यह विज्ञान का अग्रणी क्षेत्र है जो राष्ट्र की वृद्धि और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसका आशय किसी भी प्रौद्योगिकीय अनुप्रयोग से हैं जो जैव-विज्ञानी रूपों का उपयोग करता और प्रणालियों का प्रयोग करता है वह भी नियंत्रण योग्य तरीके से, जिससे कि नए और उपयोगी उत्पादों और प्रक्रियाओं का उत्पादन किया जा सके तथा विद्यमान उत्पादों को परिवर्तित किया जा सके। यह न केवल मानव जाति को लाभ पहुंचाना चाहता है अपितु अन्य जीव रूपों को भी जैसा कि सूक्ष्म जीवा यह पर्यावरण में हानिकारक हाइड्रोकार्बन कम करके, प्रदूषण नियंत्रण करके अनुकूल पारिस्थितिकी संतुलन कायम रखने में सहायता करता है। वास्तव में जैव तकनीक की संकल्पना कोई नई नहीं है। मद्दकरण पकाना, शराब बनाना तथा पनीर का निर्माण ये सभी क्रियाएं बहुत पहले के समय से चलती आ रही हैं। यूरोपीय जैव प्रौद्योगिकी महासंघ ने विज्ञान की इस शाखा को प्राकृतिक विज्ञान एवं जीवों, उनकी कोशिकाओं तथा कई शारीरिक भागों के मध्य का अंतरसम्बन्ध कहा है। अगर ऐतिहासिक नजर डालें तो पता चलता है कि, जैव प्रौद्योगिकी की संकल्पना 6000 ईसा पूर्व विकसित हुई थी। इस अवधि में बेबिलोनिया तथा सुमेर के नागरिकों को मद्द निर्माण का ज्ञान प्राप्त था 4000 ईसा पूर्व मिस्र निवासियों को भी इस तकनीक का ज्ञान था 19वी शताब्दी के अंत तक जैव तकनीक के अंतर्गत विकसित हुई तकनीकों की | मदद से इथेनोल, ब्यूटानॉल, एसिटिक अम्ल तथा एसीटोन जैसे कई पदार्थों का निर्माण किया जा चुका था। आधुनिक विश्व में सभी देशों में जैव प्रौद्योगिकी के प्रति काफी अधिक रूचि आई है।
जैव प्रौद्योगिकी की सभी विधियों की तीन प्रमुख प्राथमिकताएं हैं-
- एक ऐसे जैव उत्प्रेरक की खोज जो किसी अभिक्रिया को शुरू करने के लिए आवश्यक है।
- प्राप्त जैव उत्प्रेरक की कार्यक्षमता में वृद्धि करने के लिए पर्याप्त वातावरण का निर्माण करना।
- किण्वन प्रक्रिया के माध्यम से विभिन्न उत्पादों का पृथक्कीकरण और शुद्धिकरण ।
ज्यादातर जैव तकनीक में इस्तेमाल होने वाले जैव उत्प्रेरक सम्पूर्ण सूक्ष्म जीव होते हैं जिसके कारण यह कहा जा सकता है। कि जैव प्रौद्योगिकी कि सम्पूर्ण कार्यविधि सूक्ष्म जीवों से सम्बन्धित होती है।
जैव प्रौद्योगिकी के अंतर्गत वे सभी क्षेत्र आते हैं, जो सजीवों तथा उनसे प्राप्त पदार्थों के कृषि तथा उद्योग में उपयोग के लिए विकसित किये गये हैं। इन तकनीकों के कुछ प्रमुख उदारहण निम्नवत् हैं- जैव उर्वरक, जैविक गैस, ऊत्तक संवर्द्धन, जीन अभियांत्रिकी, भ्रूण प्रतिरोपण, परखनली शिशु आदि। इस तकनीक के अनेक उत्पादों, जैसे- खमीर ( यीस्ट), टीके, एंजाइम, प्रतिजैविक औषधियां, अल्कोहल, एमीनो अम्ल, हॉर्मोन साइट्रिक, ग्लूकोनिक तथा लैक्टिक अम्ल इत्यादि पर वर्तमान सभ्यता काफी हद तक निर्भर है। जैव तकनीकी में हुआ विकास गत दो दशकों में जीवविज्ञान, आणविक जीवविज्ञान, जीन अभियांत्रिकी तथा रासायनिक अभियांत्रिकी के क्षेत्र में हुई नवीनतम खोजों का परिणाम माना जा सकता है।
जैव तकनीक समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने में सक्षम रहा है, लेकिन इसके अनेक हानिप्रद पहलू भी हैं। वैज्ञानिक विधियों द्वारा, जहां हम कुछ सीमा तक प्रकृति के अजैविक स्वरूप को हानि पहुंचाते हैं, वहीं इसके द्वारा हम जीवन के वास्तविक रूप को ही परिवर्तित कर देते हैं। अनेक अर्थों में इसके परिणाम अभी तक के विनाश के सभी साधनों से भयानक हो सकते हैं। विश्व में लगातार बढ़ती जा रही जनसंख्या की खाद्य व्यवस्था के लिए आजकल मनुष्य फसलों की केवल सर्वोत्तम प्रजातियों का ही उपयोग कर रहा है। आज लगभग 30 प्रकार के पौधों से ही पोषण प्राप्त किया जा रहा है। इनमें से भी केवल गेहूं, चावल एवं मक्का लगभग 70% आवश्यकताएं पूरी करते हैं। इन फसलों में भी केवल उन्नत प्रजातियों की ही खेती की जाती है। इस प्रकार, अन्य प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़-सा गया है। वे प्रजातियां विलुप्त होने की ओर अग्रसर हैं, जिनकी हमें भविष्य में आवश्यकता पड़ सकती है। 1840 में आयरलैंड में 20 लाख से अधिक लोग ब्लाइट रोग से ग्रसित आलू खाने के कारण मौत के शिकार हुए थे। फसल की यह किस्म कैरेबियन देशों से लायी गयी एक विशेष किस्म की संतति थी। यदि इस उन्नत प्रजाति को अन्य प्रजातियों से संकरित होने का अवसर प्राप्त होता, तो संभवतः ऐसी बड़ी दुर्घटना से बचा जा सकता था। इसी प्रकार 1970 के दशक में अमेरिका में मक्के की फसल एवं 1980 में क्यूबा में तम्बाकू की फसल नष्ट हो गयी थी। स्पष्ट है कि प्रकृति की अनेकता को सीमित करना कभी-कभी अत्यन्त हानिप्रद सिद्ध होता है। जीन अभियांत्रिकी की सहायता से कृत्रिम भिन्नता कुछ हद तक सीमित की जा सकती है, परन्तु प्राकृतिक भिन्नता को सीमित करना अप्राकृतिक ही होगा। हालांकि जैव तकनीक से अनेक दुष्प्रभाव संभव हैं, तथापि इन दुष्प्रभावों पर नियंत्रण भी किया जा सकता है। जैव तकनीक के अंतर्गत निम्नलिखित क्षेत्रों का अध्ययन किया जाता है-
- जीन अभियांत्रिकी,
- कोशिका संलयन,
- ऊत्तक संवर्द्धन,
- किण्वन,
- जीन थिरेपी (जीन उपचार), तथा
- क्लोनिंग।
जैव प्रौद्योगिकी : जीवाणुओं, छोटे जंतुओं तथा पादपों की सहायता से वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया जैव प्रौद्योगिकी अथवा जैव तकनीक कहलाती है। क्लोनिंग की सफलता ने इस प्रक्रिया को एक अभूतपूर्व गति एवं सामर्थ्य प्रदान कर दी है। रासायनिक संश्लेषण की बजाय जैव संश्लेषण से बनाये गये पदार्थ तुलनात्मक रूप से बहुत ही सस्ते एवं प्रदूषण रहित होते हैं। इस तकनीक का प्रयोग निम्नलिखित क्षेत्रों में व्यापक रूप से किया जा रहा है :
- औषधियों के निर्माण में :जैव तकनीक ने औषधि उत्पादन के क्षेत्र में एक क्रांति-सी ला दी है। सर्वप्रथम 1982 में इस प्रक्रिया द्वारा इन्सुलिन को प्राप्त करने में सफलता मिली, जिसका व्यापारिक नाम ह्यूमलिन रखा गया। इसने मधुमेह रोगियों के लिए वरदान सा काम किया है। शरीर में बनने वाले हॉर्मोन, अन्य रोग-प्रतिरोधी प्रतिजैविक प्रोटीन (यथा-इंटरफेरॉन) तथा टीके की उत्तम गुणवत्ता वाले उत्पादन उत्पादन के लिए विशिष्ट रसायनों की प्राप्ति बहुत कम खर्च पर इस तकनीक की प्रगति के कारण संभव हो सकी है। कृषि के अवशिष्ट पदार्थों से महत्त्वपूर्ण रसायन बनाने, एंटीबायोटिक दवाओं, विटामिन एवं स्टीरॉयड के निर्माण में तथा औद्योगिक उत्पादों के संरक्षण हेतु जैव प्रौद्योगिकी का वृहद् उपयोग किया जा रहा है।
- चिकित्सा क्षेत्र में: जीन की मरम्त कर रोगों की रोकथाम में जीन चिकित्सा तथा संतान के आनुवंशिक गुणों को सुधारने तथा उसके दोषों को दूर करने में जीन इंजीनियरिंग का उपयोग सुजननिकी तथा जराविज्ञान के लिए प्रभावी साबित हुआ है। भ्रूण प्रतिरोधण की तकनीक ने पशुओं की अच्छी प्रजातियों की तेजी से वृद्धि की है तथा अनेक रोगों का सफल इलाज किया है। कृत्रिम प्रजनन द्वारा परखनली शिशु का विकास भी जैव प्रौद्योगिकी के कारण ही संभव हो सका है।
- पशुधन संवर्द्धन में: जैव प्रौद्योगिकी की विभिन्न विधाओं, यथा-भ्रूण स्थानांतरण, परखनली निषेचन, भ्रूण परिवर्द्धन, किण्वन आदि द्वारा पालतू पशुओं की दशा में कई तरह के सुधार लाये जा रहे हैं। बी०एस०टी० एक ऐसा कृत्रिम हॉर्मोन है, जो गाय अथवा भैंस के दूध की मात्रा को बढ़ा देती है। लेकिन इसकी कुछ खामियां भी हैं, क्योंकि इससे छूत के रोगों में वृद्धि हो सकती है, पशुओं की जनन क्षमता में कमी आ सकती है तथा गर्मी को झेल पाने में असहजता महसूस होती है।
- खाद्य सामग्री, ईंधन तथा रसायन उद्योग में: जैव प्रतिकारकों के प्रयोग से बहुत थोड़े समय में कम लागत तथा कम श्रम द्वारा पौष्टिक एवं परिष्कृत खाद्य सामग्रियों का उत्पादन संभव हो सका है। जैव प्रौद्योगिकी द्वारा शैवाल एवं जीवाणुओं में मूलभूत परिवर्तन करके उन्हें संवर्द्धित तथा परिष्कृत करने में मदद मिली है। इससे पौष्टिक भोज्य पदार्थों तथा शक्तिशाली औषधियों के उत्पादन में भी मदद मिलती है। किण्वन प्रक्रिया द्वारा अनेक रसायनों, ईंधनों आदि के उत्पादन में सुधार लाया जा सका है। विटामिनों के संश्लेषण हेतु जीवाणुओं एवं शैवालों का प्रयोग किया जा रहा है। जैव विधि से कार्बनिक पदार्थों के विघटन से प्राप्त गैस का उपयोग ईंधन के रूप में किया जा रहा है।
- खेती-बागवानी एवं वन विकास में : जैव प्रौद्योगिकी द्वारा अब किसी पौधे में नये तथा उपयोगी गुणों को कुछ ही समय में उत्पन्न करना संभव हो गया है। इससे विभिन्न पौधों के हाइब्रिड भी तैयार किये जा रहे हैं। उदाहरणार्थ, जैव प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर सनवीन नामक विलक्षण गुणों वाले एक पौधे का विकास फ्रेंचबीन तथा सूरजमुखी दोनों के जीनों को मिलाकर किया गया है। इसी प्रकार पौधे की प्रकाश संश्लेषण एवं श्वसन क्षमता को बढ़ाकर अधिकाधिक उत्पादकता प्राप्त किया जा सकता है। फसलों में किसी खास प्रोटीन की मात्रा में वृद्धि करना भी उससे संबंधित जीनों की नियंत्रण क्षमता में परिवर्तन द्वारा संभव हो सका है। उर्वरकों के रूप में रसायनों के स्थान पर जीनों पर आधारित पदार्थों का उपयोग कृषि कार्य हेतु किया जा रहा है। इन्हें ही जैव उर्वरक कहा जाता है। ये जैव उर्वरक भूमि की उर्वराशक्ति को बनाये रखते हैं।
- पर्यावरण संरक्षण में :जैव रासायनिक खनन एवं औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों के उपचार की जैव प्रौद्योगिकीय प्रणालियां पर्यावरण संरक्षण में काफी मददगार साबित हुई हैं। खनिजों से धातुओं के निष्कर्षण में अयस्कों को उपयुक्त घुलनशील स्वरूप प्रदान करने के लिए अनेक प्रकार के जीवाणुओं का प्रयोग किया जाता है। यह प्रक्रिया पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। खनिज तेलों एवं पेट्रोलियम के स्रोतों से तेल की अधिक प्राप्ति में अनेक सूक्ष्म जीवाणु काफी कारगर साबित हुए हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नागपुर) के वैज्ञानिकों ने गैस युक्त ईंधनों से हाइड्रोजन सल्फाइट को हटाने के लिए जीवाणुओं का उपयोग किया है। प्लास्टिक, डिटर्जेंट आदि के प्रदूषण रहित उत्पादन में भी जैव प्रौद्योगिकी का प्रयोग बढ़ता जा रहा है।
- जनसंख्या नियंत्रण में :जैव प्रौद्योगिकी पर आधारित अनेक गर्भनिरोधकों के निर्माण की संभावना बनी है, जिससे जनसंख्या की भीषण स्थिति से निबटने में सहायता मिल सकती है।
- डी.एन.ए. फिंगर प्रिंटिंग में : डी. एन. ए. फिंगर प्रिंटिंग, जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की एक विलक्षण जैविक तकनीक है, जिसका उपयोग सामान्यतः अपराध अनुसंधान क्रम में वास्तविक अपराधियों को पकड़ने में किया जाता है। इस तकनीक से अपराधियों के वंशज अथवा संतति में उनके डी. एन. ए. की संरचना के अध्ययन द्वारा वास्तविकता का पता लगाया जाता है।
- जैविक खाद का विकास: जुलाई 1999 में टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने एक ऐसे जैविक खाद की खोज की (जिसका नाम 'माइकोराइजा' है), जो सब्जियों, फसलों, वृक्षों तथा फूलों की उत्पादकता को बढ़ाने में सक्षम हो सकेगा। कैडिला फार्मास्यूटिकल्स नामक दवा कंपनी ने इस प्रौद्योगिकी को टी. ई.आर.आई. से खरीद लिया है। ध्यातव्य है कि माइकोराइजा वस्तुतः कवकों का मिश्रण होता है, जो स्वयं को पौधों की जड़ों से संबंधित रख कर उनसे एक तरह का सहजीवी संबंध बना लेते हैं। वे वायुमंडल से नाइट्रोजन लेकर उसे पौधों के लिए उपयोगी बनाने का काम करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि ये दोनों ही पदार्थ क्रमशः वायुमंडल तथा मिट्टी में मौजूद तो होते हैं, परंतु पौधे इन्हें प्रत्यक्ष रूप से लेने में असमर्थ होते हैं। लेकिन 'माइकोराइजा इन पदार्थों को ग्रहण कर इन्हें पौधों को स्थानांतरित कर देते हैं।
- अन्य क्षेत्रों में: इसके अलावा, जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग उत्तक संवर्द्धन, मशरुम संवर्द्धन, जैव कृषि, क्लोनिंग तकनीक आदि में भी व्यापक रूप से किया जा रहा है।
उपयोग एवं अनुसंधान
आनुवांशिक रूपांतरित फसलें
जैव प्रौद्योगिकी से बीमारियों और कीटों की प्रतिरोधी प्रजातियों के जरिए फसल को होने वाले नुकसान को न्यूनतम करने, रासायनिक तत्वों के इस्तेमाल में कमी लाने और फसली पौधों में दबाव सहने की क्षमता बढ़ाने में मदद मिलती है। इस प्रकार अनुत्पादक भूमि पर भी उत्पादक खेती संभव हो सकती है। इससे एक तरफ पर्यावरणीय घटकों से होने वाले नुकसान को कम से कम किया जा सकता है और दूसरी तरफ फलों और सब्जियों को संरक्षित रखने की अवधि बढ़ाई जा सकती है।
कृषि उत्पादकता में वृद्धि के लिए आरएफएलजी पर आधारित आनुवांशिकी अभियांत्रिकी के क्षेत्र में अनुसंधान के महत्व को देखते हुए जैव प्रौद्योगिकी विभाग के चावल, सरसों, अरहर, गेहूं, कपास आदि फसलों पर अनुसंधान कार्य चल रहे हैं। चौलाई से ज्यादा लाइसिन और सल्फरयुक्त एमीनो अम्ल वाले प्रोटीन का कोड विकसित तथा संश्लेषित किया गया है, जिससे कि खाद्यान्नों में पोषक तत्व बढ़ाए जा सके और बीजों के भंडारण से संबद्ध प्रोटीन के जीनों की कार्यप्रणाली का अध्ययन किया जा सके। नियोमाइसिन, फास्फोट्रांसफेरेज- मार्कर जीन में एग्रो बैक्टीरियम के आनुवांशिक तत्वों का उपयोग कर उड़द की बेहतर किस्म विकसित की गयी है।
सरसों में भी नयी प्रजातियां विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं। धान में होने वाली बीमारी के नियंत्रण के लिए उत्तरदायी जी का पता लगाने के लिए दो मालिक्यूलर तकनीकें आरएफएलपी और आरएसपीडी विकसित की गयी है। राई में प्रोटोप्लास्ट संलयन और आरएफएलपी मार्करों के माध्यम से समान आनुवांशिक संरचना पर पृथक पृथक रूपों वाली वर्णसंकर प्रजातियां विकसित की गयी है।
जैव उर्वरक
जैव उर्वरक से तात्पर्य है ऐसे सूक्ष्म सजीव जीव जीवाणु जो पौधों के उपयोग के लिए पोषक तत्व उपलब्ध कराए। जैव उर्वरक का सबसे महत्वपूर्ण कार्य नाइट्रोजन उपलब्धता के संदर्भ में है क्योंकि वह वायुमंडल से मुक्त नाइट्रोजन को ग्रहण करके पोषक पदार्थ का निर्माण करता है, जिसका उपयोग पौधे अपनी वृद्धि के लिए करते हैं। भारत में दो प्रमुख जैव उर्वरकों का इस्तेमाल होता है, ये हैं- राइजोबियम और नील हरित शैवाल । राइजोबियम, एजोला, एजोस्पिरिलम, लाइपोफेरम, माइकोराइजा, स्वतंत्र जीवाणु आदि जैव उर्वरक के घटक हैं। राइजोनियम 'लेग्यूमिनस' पौधों की जड़ों में गांठ बनाता है तथा वातावरण में मुक्त नाइट्रोजन को ग्रहण कर पोषक पदार्थ का निर्माण करता है।
एजोला तीव्र गति से विकसित होने वाली 'फर्न' की प्रजाति है, जो पानी पर तैरती रहती है। माइकोराइजा के द्वारा नाइट्रोजन के स्थिरीकरण से पौधों को पोषक पदार्थों की आपूर्ति होती है। एजेटोबैक्टर, बेसिलस, पालीमिक्सा आदि स्वतंत्र जीवाणु गेहूं, चावल, फल आदि की फसलों को पोषक पदार्थ उपलब्ध कराते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तत्वावधान में चावल के लिए | सस्ती शैवालीय जैव उर्वरक प्रौद्योगिकी विकसित की जा रही है।
जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने जैव उर्वरक पर 'टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट एंड डेमोस्ट्रेशन परियोजना' शुरू की है। 'ब्लू-ग्रीन एल्गी परियोजना' भी चल रही है, जिसका उद्देश्य सुदृढ़ अनुसंधान एवं विकास आधार, शैवालीय जैव उर्वरक के वृहत-स्तरीय अनुप्रयोग के लिए निर्मित करना है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में राइजोबियम परियोजना दो चरणों में चल रही है।
इस परियोजना के मुख्य तत्व है- लाभप्रद सूक्ष्म जैविक तत्वों की पहचान एवं उनका उपयोग, विभिन्न दलहनी तथा तिलहनी बीज फलियों का विकास इत्यादि । बार्क के वैज्ञानिक इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि विकिरण का उपयोग कर दलहन पौधों का कुछ ऐसा रूपांतरण किया जाए कि यह व्यापक पैमाने पर हवा से मुक्त नाइट्रोजन ग्रहण कर उसे जमीन में संग्रहीत कर सके। इस संस्थान के वैज्ञानिकों ने गामा किरणों का उपयोग कर सैस्वेनिया रास्ट्रेरा नामक फली वाले पौधों को रूपांतरित किया है।
जैव कीटनाशक तथा जैव रोग नाशक
जैव कीटनाशक तथा जैव रोग नाशक गैर-कारसाइनोजेनिक है। जैव कीटनाशक का मुख्य तत्व बैसिलस थ्यूरिन्जाइएन्सिस है। जैवनाशी के रूप में वाइरसों, बैक्टीरियाओं, कवकों, प्रोटोजोओं एवं चिंचड़ियों का उपयोग किया जाता है। जैविक नियंत्रण का उपयोग मुख्यतः कपास, तिलहन, गन्ना, दलहन तथा फलों एवं सब्जियों के पौधों में होने वाले रोगों उन पर कीटों के आक्रमण से बचाव के लिए किया जा रहा है। जैव कीटनाशकों के व्यापकीकरण को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से दो केंद्रों टीएनएयू और एमकेएनयू में दो जैव नियंत्रण प्रायोगिक संयंत्र लगाए गए हैं। प्रत्येक बीसीजीजी में पर्याप्त जैव नियंत्रक तत्व निर्मित करने का लक्ष्य रखा गया है, जिससे अरहर, मूंगफली, कपास, सूरजमुखी, तंबाकू, अरण्डी, गन्ना, उड़द, मूंग आदि फसलों की आवश्यकताएं पूर्ण हो सके।
जंतु जीव प्रौद्योगिकी
भारत में जैव-प्रौद्योगिकी ने पशुओं के नार नस्ल विकसित करने में, नस्ल सुधार में तथा पशुओं के स्वास्थ्य सुधार में विशेष योगदान दिया है। शारीरिक क्रिया प्रणाली में सुधार तथा जीन-प्रत्यारोपण प्रणाली प्रमुख पद्धतियां हैं। भ्रूण हस्तांतरण के दौरान भ्रूण. के लिंग को जानने के लिए डी. एन. मार्क्स विकसित किए गए हैं जिसे उपभोक्ताओं की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित किया गया है। भ्रूण के लिंग को तय करने का कार्य विशिष्ट बैलों के समूह पर किया गया है। ओपन न्यूक्लिअस ब्रीडिंग के अंतर्गत नर बछड़ों का आनुवांशिक मानवीकरण किया गया है, जो राष्ट्रीय कृत्रिम गर्भाधान कार्यक्रमों के लिए उत्तम शुक्राणु प्रदान करेंगे।
रिंडरपेस्ट जींस डिजीज, ब्लू वर्णीय वायरस, उकप्लेग वायरस, बैसिलस एंथ्रेसिस जैसे रोगों के निवारण के लिए रोग प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास पर कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। स्वदेशी पशु नस्लों की आनुवांशिकता तथा आनुवांशिक गुणों के निर्धारण और विभिन्न नस्लों की युग्म विकल्पी (एलील) आवृत्तियों का अध्ययन किया गया है। पशुओं में बीमारियां दूर करने के लिए टीके और निदानों के विकास की बड़ी परियोजना शुरू की गयी है। मुर्गियों में न्यू कैसल बीमारी और दूधारू पशुओं में संक्रामक बोवाइन राइनोट्रेकिएटिस बीमारी के लिए ऊतक संवर्धन पर आधारित टीकों के वैधीकरण के परीक्षण के बाद इन्हें वाणिज्यिक बिक्री के लिए उपलब्ध करा दिया गया है।
स्टेम सेल
चिकित्सा जगत में क्रांति के लिए मानव की अस्थि मज्जा से ऐसी स्तंभ कोशिकाएं खोज ली गयी है, जो कोई भी ऊतक बना सकती हैं। अभी तक यह विशेषता मानव भ्रूण से प्राप्त स्तंभ कोशिकाओं में ही पायी गयी थी। हाल में 'एमएपीसी' की खोज की गयी है जो भ्रूण कोशिकाओं से प्राप्त बीज कोशिकाओं की तरह कोई भी ऊतक बना सकते हैं। स्तंभ कोशिकाओं या स्टेम सेल के द्वारा हजारों तंत्रिकाघात पीड़ितों एवं लाखों ऐसे रोगियों का उपचार करना संभव हो सकेगा जो अनेक प्रकार की ऐसी व्याधियों से पीड़ित है जो उपचार के अभाव में धीरे-धीरे बढ़ती ही जाती है। इस महत्वपूर्ण खोज ने कैंसर के सफल उपचारों और अन्य मानव अंगों जैसे यकृत, हृदय आदि की मरम्मत का मार्ग प्रशस्त कर दिया है।
रासायनिक पदार्थों से जलने, संक्रमण या स्टीवन जानसंस सिंड्रोम के मामलों में आंख के कार्निया में चोट पहुंचने से व्यक्ति अपनी आंखों की ज्योति खो देता है। ऐसे मामलों में अभी तक स्वस्थ आंख से ऊतक का एक हिस्सा लेकर पीड़ित आंख में प्रत्यारोपण का ही विकल्प मौजूद था, लेकिन स्टेम सेल से विकसित ऊतक के साथ ऐसी समस्या नहीं होती। इन कोशिकाओं का इस्तेमाल मांसपेशियों में वंशाणुओं के बर्ताव का विस्तृत ब्यौरा तैयार करने के लिए भी किया जा रहा है।
मानव आनुवंशिकता तथा जीनोम विश्लेषण
मानव की जीन संरचना को समझ लेने के बाद जीन में मौजूद कमी या दोष को दूर करना संभव हो गया है। चिकित्सक ऐसी बीमारियI के लिए दवाओं को इजाद करने में प्रयत्नशील है जो अब तक लाइलाज है, जैसे कैंसर, एड्स, मधुमेह, हृदय रोग, अल्झाइमर आदि ।
जैव प्रौद्योगिकी विभाग और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज द्वारा संयुक्त रूप से दो मानसिक बीमारियों सिजोफ्रेनिया तथा मानसिक डिप्रेशन से पीड़ित लोगों के जेनेटिक संरचना का अध्ययन किया जा रहा है। देश के कोलकाता, दिल्ली, बैंगलूर तथा हैदराबाद में विशेष रूप से मानव जीनोम संबंधी अनुसंधान किए जा रहे हैं। अंग प्रत्यारोपण में आने वाली बाधाओं को करने के लिए अनुसंधान चल रहा है। भारत को अपनी जातीय, जनजातीय और सामुदायिक विभिन्नता के कारण मानव आनुवंशिकी की जीती-जागती प्रयोगशाला माना जाता है। भारत की अनोखी और विशाल आनुवंशिक विविधता से अनेक उपयोगी और कल्याणकारी जीन मिलने की प्रबल संभावनाएं हैं। भविष्य में इनकी मदद से अनेक आनुवंशिक रोगों का इलाज ढूंढा जा सकता है।
पर्यावरण तथा जैव विविधता संरक्षण
आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तथा औषधीय महत्व की दुर्लभ हो रही प्रजातियों के संरक्षण के जैव प्रौद्योगिकीय तकनीक अपनाने के प्रयोग काफी सफल रहे हैं। दक्षिणी तटीय क्षेत्र की पारिस्थितिकीय प्रणाली के दलदली क्षेत्र की 11 दुर्लभ होती जा रही वनस्पतियों के विस्तार के लिए ऊतक संवर्द्धन तकनीक विकसित की गयी है। डीएनए जांचक तथा एलिसा तकनीक पर आधारित पर्यावरण पर नजर रखने वाली तकनीकें विकसित की गयी हैं।
गैस युक्त ईंधनों से हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी प्रदूषक गैस को हटाने के लिए राष्ट्रीय इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान नागपुर ने जीवाणुओं के उपयोग वाली तकनीक विकसित की है। इसके अतिरिक्त समुद्र अथवा अन्य जल स्रोतों में किसी कारणवश फैले पेट्रोलियम पदार्थों अथवा तैलीय पदार्थों को साफ करने के उद्देश्य से स्यूडोमोनास जीवाणु का विकास किया गया है।
सामाजिक क्षेत्र के कार्यक्रम
जैव-प्रौद्योगिकी प्रक्रियाओं और तकनीकों के लाभ अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति, महिलाओं और ग्रामीण जनता तक पहुंचाने के लिए जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।
महिलाओं एवं ग्रामीण विकास के लिए प्रौद्योगिकी आधारित कार्यक्रम नामक एक नई योजना शुरू की गयी है, जिसका उद्देश्य डीबीटी एवं अन्य के द्वारा विकसित प्रौद्योगिकियों के आधार पर अपने उद्यमों के लिए ग्रामीण महिलाओं के उत्थान हेतु जैव प्रौद्योगिकीय संयंत्रों का उपयोग करना है। जैव प्रौद्योगिकी पर आधारित अनेक गर्भ निरोधकों के निर्माण की संभावना है, जिससे जनसंख्या की भीषण स्थिति पर नियंत्रण किया जा सकता है। राष्ट्रीय रोगशोधन के अंतर्गत जैव प्रौद्योगिकी विभाग को टीका उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का कार्य सौंपा गया है। अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति तथा कमजोर वर्गों के लिए कुकरमुत्ते की बुवाई, वर्मीकम्पोजिंग, मुर्गीपालन, जैव खाद्य, रेशम उत्पादन, जल कृषि तथा औषधीय व सुगंधित पौधों के क्षेत्र में प्रदर्शन तथा विस्तार प्रकार की परियोजनाएं चलाई जा रही हैं।
बायोप्रॉसपेक्टिंग या बायोपायरेसी
बायोप्रॉसपेक्टिंग का अर्थ है वैज्ञानिक अनुसंधान या व्यावसायिक उपयोग अथवा विकास के उद्देश्य से किसी जीव, खनिज या फिर किसी कार्बनिक पदार्थ के जैविक या जेनेटिक (आनुवंशिक) स्रोतों को अलग कर उसका उपयोग करना। ऐसा करने से पहले अगर इन जैविक या कार्बनिक पदार्थों के धारक/ स्वामी की इजाजत नहीं ली जाती है और उन्हें इस कार्य का कोई लाभ नहीं दिया जाता तो इसे ही बायो पाइरेसी (जैव-चोरी) कहते हैं। बायोप्रोसपेक्टिंग को बायोडाइवर्सिटी प्रॉसपेक्टिंग भी कहते हैं जिसके अन्तर्गत प्रकृति के किसी छोटे जीव, पौधे, फंगी आदि के आनुवंशिक अंगों का उपयोग किया जाता है विभिन्न क्षेत्रों में चाहे उसका उद्देश्य वैज्ञानिक हो या फिर व्यक्तिगत लाभ ऐसे स्रोत प्रायः विभिन्न पर्यावरणीय दशाओं में पाये जाते है जैसे कि अतिवृष्टि वाले जंगलों में, रेगिस्तानों में या फिर जल स्त्रोतों में आजकल अन्य विकसित देशों में बायोप्रॉसपेक्टिंग की प्रक्रिया काफी तेजी से चल रही है परन्तु इसके अन्तर्गत कई बार उस देश के निवासियों को इस बारे में नहीं बताया जाता है तथा वहां कि जैविक सम्पत्ति का इस्तेमाल अनुसंधान तथा व्यावसायिक उपयोग के लिए बड़ी तेजी से किये जाने का प्रचलन हो गया है। इसीलिए बायोप्रॉसपेक्टिंग शब्द के अन्तर्गत ही 'बायोपाइरेसी' शब्द को सम्मिलित किया जाता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ग्रीनपीस नामक संस्था ने बायोप्रॉसपेक्टिंग की प्रक्रिया को धनी एवं गरीब देशों के बीच बढ़ती दूरी का एक महत्वपूर्ण कारण बताया है। उनका यह मानना है कि अन्यविकसित देश ऐसे जैविक स्रोतों के भंडार हैं परन्तु वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय विकास के अभाव में वे इसका इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं और उनकी जगह धनी और विकसित देशों के वैज्ञानिक ऐसा बगैर उस देश विशेष की इजाजत के करने लगे है। अतः अविकसित देश अपने प्राकृतिक संसाधनों के स्वाभाविक लाभ से वंचित रह जाते हैं। नीम के पेड़ का उदाहरण लिया जा सकता है। वर्ष 1995 में अमेरिका के कृषि तथा फर्मास्युटिकल अनुसंधान विभाग ने नीम के पेड़ से एंटीफंगल औषधि बनाने का पेटेन्ट प्राप्त किया। लेकिन नीम का पेड़ सैकड़ों वर्षों से भारत एवं नेपाल में उगता रहा है। यहां के निवासी नीम के औषधीय गुणों से परिचित हैं। अतः भारत ने अमेरिका द्वारा नीम के पोधे के पेटेन्ट को गैर कानूनी माना तथा वर्ष 2005 में इस जैविक चोरी के केस में विजय मिली तथा अमेरिका को मिले पेटेन्ट को रद्द किया गया। भारत द्वारा अपनी बात इस रूप में रखा गया कि भारत ने नीम के पेड़ के औषधीय गुणों के बारे में किसी भी अंतर्राष्ट्रीय जनरल में प्रकाशित नहीं किया गया था। अतः अमेरिका कभी यह दावा नहीं कर सकता है कि उसे नीम के पेड़ के इन गुणों की पहले से जानकारी थी।
जैव प्रौद्योगिकी सूचना नेटवर्क
जैव प्रौद्योगिकी के सभी पक्षों के बारे में नवीनतम जानकारी की बढ़ती जरूरतें पूरी करने के लिए जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने जैव प्रौद्योगिकी सूचना नेटवर्क निर्मित किया है। यह नेटवर्क शोधकर्ताओं और उत्पादक गतिविधियों को समन्वित सूचना प्रदान करता है। इनमें जैविक आंकड़ों का विश्लेषण, प्रकाशित दस्तावेजों की ब्योरेवार सूचना, आणविक, मॉडलिंग तथा सिमुलेशन की गणना, प्रधान समस्याओं के लिए सॉफ्टवेयर विकास, जीनोम मानचित्रीकरण, संरचना कार्य, संरचना आधारित दवा डिजाइन, संरचना को क्रमबद्ध करना, संरचना अनुमान, परमाणु उत्पत्ति, जीन पहचान आदि जैसी सेवाएं शामिल हैं। मोलेक्यूलर और संरचनात्मक जीव विज्ञान के क्षेत्र में इंटरएक्टिव ग्राफिक्स पर आधारित मोलेक्यूटर मॉडलिंग की जांच की राष्ट्रीय सुविधाएं देश के विभिन्न केंद्रों पर विकसित की गयी हैं।
जैव प्रौद्योगिकी सुविधाएं
मस्तिष्क अनुसंधान के लिए गुड़गांव के राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र में एक राष्ट्रीय क्रियाशील चुम्बकीय अनुनाद छायांकन सुविधा स्थापित की गयी तथा अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान और एनसीपीजीआर, नयी दिल्ली में 2005-06 के दौरान एप्रतिमिक्स सुविधाएं स्थापित की गयी।
पशुगृह सुविधा, एनआईएन, हैदराबाद में 30,431 पशुओं का प्रजनन किया गया, जिनसे से 26,157 पशु सरकारी अनुसंधान संस्थानों तथा कई भेषजीय कम्पनियों, दोनों को भेजे गये। संस्थाओं द्वारा वर्ष के दौरान सिथेटिक खनिजों और विटामिनों के साथ-साथ प्राकृतिक तत्वों को मिलाकर 22,349 किलोग्राम पशु आहार तैयार किया गया। आईआईटी कानपुर की ड्रोसोफिला डिपॉजिटरी एवं अनुसंधान सुविधा में ट्यूमर बनने के आनुवंशिक आधार के अन्वेषण के लिए अनसुंधान कार्यक्रम में पलाइ मॉडल प्रयोगकिया जा रहा है। बड़े पैमाने पर ड्रोसोफिला की आनुवांशिक जांच शुरू की गयी है, जिसके लिए नोवल जीनट्रैप वैक्टर्स का प्रयोग किया गया है तथा विशिष्ट आनुवांशिक विदुपष लोकाई पहचाने गए। नोवर ट्यूमरउत्पन्न करने वाले म्यूटेशन्स के साथ इन एकल ट्रांसपोसन एनसर्शन लाइन्स की नोवल रिपॉजिटरी तैयारी की गयी है।
सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड स्टोन मैनरिपुलेशन, एमकेयू मदुरैई ने स्ट्रेप्टोमाइसिस के पूर्ण प्रोटिओम के विश्लेषण के लिए शर्तों का मानवीकरण किया है और उन्हें इष्टतम बनाया है।
प्रयोगशाला में ही गर्भाशय का विकास
वैज्ञानिकों ने जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण सफलता हासिल करते हुए गर्भाशय के विभिन्न भागों को प्रयोगशाला में ही विकसित करने का कार्य शुरू कर दिया है। वैज्ञानिकों ने कोशिकाओं से गर्भाशय के कुछ हिस्से बनाने में सफलता भी प्राप्त कर ली है। इन प्रयोगों से यह उम्मीद बंधी है कि बाद में संपूर्ण गर्भाशय का प्रयोगशाला में ही विकास करना संभव हो सकेगा और उसे बाद में महिलाओं में प्रत्यारोपित कर दिया जायेगा। जिन महिलाओं के गर्भाशय पूरी तरह सक्रिय नहीं हैं, उनके लिए यह प्रयोग एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।
प्रयोगशाला में इस तरह के प्रयोग उत्तक संवर्द्धन (Tissue Culture) तकनीक पर आधारित हैं। इसके तहत कुछ मूल उत्तकों को प्रयोगशाला में अंगों के रूप में विकसित कर रोगी के शरीर में प्रत्यारोपित किया जाता है। इस प्रयोग में जुटे वैज्ञानिकों का प्रथम उद्देश्य गर्भाशय के क्षतिग्रस्त उत्तकों को बदलना होता है। इससे गर्भाशय को प्राकृतिक रूप से ही ठीक होने में मदद मिल सकेगी। इसके लिए महिलाओं के शरीर के उन उत्तकों का प्रयोग किया जा रहा है, जो शरीर के किसी भी भाग में विकसित किये जा सकते हैं। इस कार्य में प्रमुख चुनौती इस प्रकार के बायोकेमिकल पदार्थ बनाने की होती है, जिसमें इन उत्तकों को विकसित किया | जा सके। महिला के गर्भाशय के विभिन्न भाग भ्रूण में शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में विकसित होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि भ्रूण के अगल-बगल भागों का कार्य अलग-अलग होता है अर्थात् विभिन्न भाग भ्रूण में त्वचा, बाल अथवा नाखून के रूप में विकसित होते हैं। इस तथ्य से कृत्रिम गर्भ बनाने में काफी मदद मिल सकती है।
जीन क्या है
आए दिन हम अखबारों में पढ़ते रहते हैं कि किसी बीमारी के लिए एक खास जीन की पहचान की गई है या फिर अधिक सोने के लिए जिम्मदार या हकलेपन के लिए उत्तरदायी जीन की पहचान की गई है। ऐसे में एक आम आदमी के लिए यह जानना महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर ये जीन है क्या? आम बोलचाल की भाषा में कहें तो, किसी सजीव में आनुवांशिकता की मूल | इकाई है जीन । वस्तुतः सजीव के प्रत्येक कोशिका में आनुवंशिक पदार्थ, (डी.एन.ए.) के रेखीय हेलिक्स में पाये जाने वाले प्यूरीन एवं पाइरीमिडिन समाक्षारकों का रेखीय क्रम जीन कहलाता है। इसी में किसी सजीव की आनुवांशिक विशेषताओं की जानकारी होती है। उदाहरण के तौर पर बालों का रंग, आंखों का रंग कैसा होगा या किसी को कौन सी बीमारियां हो सकती हैं। ये जानकारी, कोशिकाओं के केन्द्र में मौजूद जिस तत्व में रहती है वह डीएनए कहलाता है जब किसी जीन के डीएनए में कोई स्थाई परिवर्तन होता है तो उसे म्यूटेशन या उत्परिवर्तन कहते हैं। यह कोशिकाओं के विभाजन के समय किसी दोष के कारण पैदा हो सकता है या फिर पराबैंगनी विकिरण की वजह से या रासायनिक तत्व या वायरस से भी हो सकता है।
जीन अभियांत्रिकी
किसी भी सजीव का लक्षण व अन्य गुण उसके अंदर की जीन संरचना पर निर्भर करता है। जीन अभियांत्रिकी द्वारा न केवल जीनों के स्वरूप में संशोधन करके जीवों के आकार, आकृति, गुण आदि को बदला जा सकता है, बल्कि पूर्णतः नवीन प्रकार के जीवों का भी निर्माण किया जा सकता है। यही तकनीक (जीन अभियांत्रिकी) मानव को जीवों के सृष्टि में हस्तक्षेप की सर्वाधिक क्षमता प्रदान करती है। जीन अभियांत्रिकी द्वारा अनुपयोगी अथवा दूषित सिस्ट्रॉन (डी.एन.ए. का एक अंश, जो प्रोटीन निर्माण में एक पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला का निर्धारण करता है) को परिष्कृत करता है अथवा उसको विस्थापित करता है, ताकि आवश्यक व उपयुक्त फीनोटाइप प्राप्त किया जा सके। संकरण इसके लिए सर्वाधिक उपयोग में लायी जाने वाली तकनीक है। जीन अभियांत्रिकी के अंतर्गत उपयोग में लायी जाने वाली मुख्य तकनीक अधोलिखित हैं-
- वांछित जैविक पदार्थ का विलगनः इस तकनीक के अंतर्गत विभिन्न जैविक स्रोतों से डी.एन.ए. (डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड) निकालकर उसका शुद्धिकरण किया जाता है। इसके तहत भारतीय मूल के अमेरिकी नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविन्द खुराना द्वारा विशिष्ट न्यूक्लिओटाइडों की श्रेणी के परखनली संश्लेषण की तकनीक विकसित की गयी। संश्लेषण के पश्चात् इन न्यूक्लिओटाइडों (जीनों) को परिष्कृत करने वाले एंजाइमों व समाक्षारों के मिश्रण की सहायता से संवर्द्धित किया जा सकता है। विलगन की इस तकनीक में संयुक्त राज्य अमेरिका के अनुसंधानकर्ताओं का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनके द्वारा एसरशिया कोलाइ (ई. कोलाइ) बैक्टीरिया से लैकऑपरोन के कुछ जीनों को विलगित व परिष्कृत किया गया।
- जैविक पदार्थ की ग्राही कोशिकाओं में स्थानान्तरण एवं परिचालनः लैकऑपरोन के जीनों को विलगित व परिष्कृत करने के पश्चात् जीन के अंश को एक जैव पदार्थ अथवा परखनली से दूसरे जैव पदार्थ अथवा परखनली में स्थानान्तरित किया जाता है। इस तकनीक के अंतर्गत कुछ महत्त्वपूर्ण विधियां निम्नवत् हैं-
- रूपान्तरण: इस प्रक्रिया के तहत एक कोशिका, ऊत्तक अथवा जीव किसी विलगित जीन (डी.एन.ए.) अंश को अपने चारों ओर से ग्रहण कर लेता है। यह डी.एन.ए. अंश, ग्राही जीव के आनुवंशिक पदार्थ में सम्मिलित हो जाता है। इसके साथ ही, वह ग्राही के गुण भी प्रदर्शित करने लगता है, जिसके संकेत इसकी नयी डी.एन.ए. संरचना पर स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। अभी तक इस प्रक्रिया का प्रयोग अनेक जैविक पदार्थों (पौधों व जन्तुओं) में सफलतापूर्वक किया जा चुका है। हालांकि प्रारंभ में वनस्पति कोशिका की भित्ति, जीन (डी.एन.ए.) के प्रवेश हेतु बाधक मानी जाती थी, परन्तु हाल के कुछ वर्षों में यह बाधा दूर करने में सफलता मिल गयी है। अब इनकी कोशिका भित्ति को एंजाइमों द्वारा पूर्णतः अथवा आंशिक तौर पर नष्ट कर दिया जाता है, जिससे जीनों का प्रवेश आसान हो जाता है।
- पारक्रमण : इस प्रक्रिया के अंतर्गत डी. एन. ए. फेग एवं जीवाणु में आनुवंशिक पदार्थ का आपस में पारगमन होता है। जैसे- लैम्बडा फेग का संक्रमण होने पर इस फेग के डी.एन.ए. का कुछ भाग जीवाणु के गुणसूत्रों में तथा जीवाणु का उतना ही डी.एन.ए., फेग के डी.एन.ए. में मिल जाता है। जीवाणु कोशिका जीवित रहते हुए विभाजित होती है एवं इसकी संतति कोशिका में संकरित डी.एन.ए. विद्यमान होता है। शेष फेग, जिसमें जीवाणु का कुछ डी.एन.ए. आ चुका होता है, अन्य जीवाणुओं की कोशिकाओं को संकरित करता है। उपरोक्त प्रक्रिया उच्च जैविक पदार्थों में भी पायी जाती है। इसे ई. कोलाई के लैक जीनों को टमाटर तथा अरेबिडॉप्सिस में लैम्बडा फेग की सहायता से स्थानांतरित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इस फेग द्वारा ई. कोलाई तथा सालमोनेला जीवाणुओं के गुणसूत्रों से माल्टोज, ट्रिप्टोफान, अरबिनोज ऑपरोन आदि को भी पारक्रमित किया जा सकता है।
- प्लास्मिड : हाल के कुछ वर्षों से जीवाणुओं में मिलने वाले प्लास्मिडों (डी.एन.ए. वलय, जो मुख्य आनुवंशिक पदार्थ से सर्वथा भिन्न होते हैं) को भी जैविक पदार्थों के निर्देशन एवं परिचालन के लिए उपयोग किया जाता है। सामान्यतः प्लास्मिडों पर लिंग भेद व प्रतिजैविक रोधन आदि के जीन पाये जाते हैं।
प्लास्मिडों द्वारा स्थानान्तरण प्रतिरोधी हेतु दो प्रकार के एंजाइमों-प्रतिरोधी एन्डोन्यूक्लिएज (आर.ई.) एवं लिगेसेज् (Ligases) की आवश्यकता होती है। प्रतिरोधी एन्डोन्यूक्लिएज, प्लास्मिड तथा दाता जीव के डी.एन.ए. अणु को कुछ निश्चित बिन्दुओं पर तोड़ देता है। प्लास्मिड के इन टूटे सिरों पर नये डी.एन.ए. अंश जुड़ जाते हैं। जोड़ने का कार्य लिगेसेज एंजाइम द्वारा संपन्न किया जाता है।
दरअसल, प्रत्येक कोशिका किसी भी किस्म की जीव का निर्माण करने की जानकारी से परिपूर्ण होती है। अतः यदि किसी जीव के किसी खास अंग से कोई जीवित कोशिका उपलब्ध हो, तो उस जीव का प्रजनन करना संभव है। प्रत्येक जीन प्रतिलिपिकरण की सतत प्रक्रिया द्वारा अपना प्रतिरूपी जीन तैयार करता रहता है। यही जीन संतानों में पहुंचते हैं तथा वही गुण पैदा करते हैं, जो माता-पिता में विद्यमान होते हैं। जीवन की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए डी.एन.ए. आर.एन.ए. तथा प्रोटीन संश्लेषण के बीच एक सांमजस्य स्थापित रहता है। इस सामंजस्य के विचलन से जीवों में नवीन अभिलक्षण शुरू हो जाते हैं, जिसे उत्परिवर्तन कहते हैं।
नया एवं परिवर्तित जीन पूर्व जीन की तरह ही स्थायी बन सकता है तथा पुनः नये रूपों में उत्पादन करता चला जाता है। कभी-कभी गुणसूत्रों के जुड़ जाने से भी उत्परिवर्तन पैदा हो जाता है। इसी जीन परिवर्तन के कारण हजारों जीव-जंतु पृथ्वी पर आये और चले गये। अधिक उपज देने वाली टिकाऊ फसलें तथा जीव-जंतुओं की नयी नस्लों का विकास भी इसी उत्परिवर्तन की प्रक्रिया के चलते संभव हुआ है।
जीन अभियांत्रिकी के तहत बीमार जीन की मरम्मत, नये जीन संकरणों का निर्माण तथा जीन की संश्लेषण क्षमता के औद्योगिक उपयोग की विधियां विकसित की जाती हैं। जीनों का संलयन, प्रतिरोपण, हस्तांतरण आदि का अध्ययन इसी के द्वारा संभव हो सका है। इसके लिए कुछ खास तरह के जीवाणुओं (यथा-इश्चीरिया कोलाई) का प्रयोग किया जाता है। ये जीवाणु कुछ ऐसे पदार्थों का निर्माण करते हैं, जो डी.एन.ए. अणु को किसी खास जगह पर तोड़ते हैं। ऐसे पदार्थ 'रेस्ट्रिकशन एंजाइम' कहलाते है। डी.एन.ए. लिगेज एक अन्य अणु होता है, जो एक तरह से गोंद का काम करता है और डी.एन.ए. के विभन्न भागों को जोड़ता है।
जीन अभियांत्रिकी से लाभ: जीन अभियांत्रिकी से मानव समुदाय को कई रूपों में लाभ प्राप्त हुए हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं:
- मानव इंसुलिन, कैंसर एवं वायरस से लड़ने वाले प्रोटीन अर्थात् इंटरफेरॉन तथा हेपेटाइटिस के टीके के विकास में जीन अभियांत्रिकी काफी महत्त्वपूर्ण साबित हुआ है। मानव वृद्धि हार्मोन अर्थात् सोमैट्रेम के विकास में भी इसका प्रयोग हुआ है। मलेरिया एवं एड्स के टीके के विकास हेतु जो भी प्रयोग चल रहे हैं, वे सभी इसी तकनीक पर आधारित हैं। हृदयाघात, उच्च रक्त चाप, हीमोफीलिया आदि के निदान हेतु उचित खोजी पदार्थ भी इसी तकनीक का परिणाम माने जा सकते हैं।
- हृदय की धमनियों में जम चुके रक्त के थक्के (जो हृदयाघात का कारण बनते हैं) को समाप्त करने के लिए TPA (Tissue Plasminogen Activator) की खोज इसी तकनीक पर आधारित है। यद्यपि यह ज्च शरीर में स्वतः उत्पन्न होता है, परंतु हृदय घात से बचाव हेतु आवश्यक IPA की आपूर्ति जीन अभियांत्रिकी द्वारा ही की जाती है।
- चूहों में जीनों के सफल स्थानांतरण से यह स्पष्ट हो गयी है कि आनुवंशिक रोगों के इलाज में जीनों का प्रत्यारोपण काफी कारगर हो सकता है।
- जीन अभियांत्रिकी द्वारा उत्पन्न जीवाणुओं का प्रयोग पौधों में नये प्रकार के जीनों के विकास में संभव हो सका है। ऐसे पौधे प्रोटीन एवं अन्य पोषक तत्त्वों में प्रचुरता रखते हैं और इस तरह ये खाद्य संकट के लिए एक नयी उम्मीद जगाते हैं।
- अभियांत्रिकी जीवाणुओं की मदद से ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि उत्सर्ज्य काष्ठ, जो कागज उद्योग आदि से प्राप्त होते हैं, को चीनी अथवा अल्कोहल के रूप में बदला जा सकता है। इनका प्रयोग एंटीफ्रीज, घोलक तथा कई रसायनों के उत्पादन में प्रारंभिक पदार्थ के रूप में किया जा सकता है।
कोशिका संलयन
इस तकनीक का विकास सर्वप्रथम डॉ. मिलस्टोन कोहलर एवं जेमे द्वारा 1975 में किया गया। बाहरी बहु आणविक पदार्थ, जो सामान्यतः एक प्रोटीन होता है तथा किसी जीव में प्रवेश करके प्रतिजैविक की उत्पत्ति को प्रोत्साहित करता है, प्रतिजन कहलाता है। इस प्रतिजन के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप ग्राही जीव, प्रतिजैविक पदार्थ उत्पन्न करता है। इस विधि के उपयोग से विषाणु, जीवाणु व अन्य सूक्ष्म जीवों से उत्पन्न होने वाली बीमारियों के निदान की राह में काफी सफलता प्राप्त की जा सकती है।
ऊत्तक संवर्द्धन
ऊत्तक संवर्द्धन (Tissue Culture) ऐसी प्रविधि है, जिसके अंतर्गत पौधों व जन्तुओं की कोशिकाओं, ऊत्तकों अथवा अंगों को पृथक कर, उनका नियंत्रित ताप, दाब व अन्य अनुकूल परिस्थितियों में विशेष पात्रों में वर्द्धन किया जाता है। यह संवर्द्धन पात्रों में उपयुक्त पोषक तत्त्वों को उपलब्ध करा कर किया जाता है। इस तकनीक का प्रयोग पौधों की रोग रोधक व रसायन-रोधक क्षमता को बेहतर बनाने के लिए किया जाता है। पोषक तत्त्वों में ऊर्जा की आपूर्ति मुख्यतः सुक्रोज द्वारा की जाती है, जो संशोधित भागों में उपलब्ध करायी जाती है। पोषक तत्त्व में सुक्रोज के अतिरिक्त लवण, विटामिन, एमीनो अम्ल ग्लाइसिन आदि भी उपलब्ध रहते हैं। ऊत्तक संवर्द्धन विधि का उपयोग फसल सुधार में निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है-
- सूक्ष्म संचरण दुर्लभ पौधों को संवर्द्धित करके कृषि, उद्यान कृषि एवं वन संरक्षण आदि के लिए उपयोग किया जा सकता है।
- रोग मुक्त पादप की उत्पत्तिः वानस्पतिक सूक्ष्म संचरण के दौरान रोगकारक (विशेषत: विषाणु) भी कंद-मूल, राइजोम आदि के माध्यम से संक्रमित हो जाते हैं। परंतु, यह देखा गया है कि संक्रमित पौधे की प्ररोह शीर्षस्थ विभाज्योतक संवर्द्धन में प्रयोग करने से प्राप्त पौधे रोग-कारकों से मुक्त होते हैं। इस विधि से गन्ने, मीठे आलू आदि की रोगमुक्त प्रजातियां व्यापक रूप से तैयार की जाती हैं।
- एंड्रोजेनिक हैप्लॉयड : हैप्लॉयड कोशिकायें ऐसी कोशिकायें होती हैं, जिनके नाभिक में गुणसूत्रों का केवल एक समूह पाया जाता है। प्रकृति में ऐसी कोशिकायें दुर्लभ हैं तथा आनुवंशिकी व पौध प्रजनन के लिए अमूल्य हैं। प्रत्येक परागकोष में कई हजार हैप्लॉयड कोशिकायें होती हैं। अतः एंड्रोजेनिक हैप्लॉयड का उत्पादन अत्यंत ही लाभकारी है। ऐसे उत्पादन की सूचना सर्वप्रथम दिल्ली विश्वविद्यालय के गुहा व माहेश्वरी द्वारा 1964 में दी गयी। हैप्लॉयड के प्रयोग से नयी प्रजातियां विकसित करने में लगभग आधा समय लगता है। एंड्रोजेनिक हैंप्लॉयड के कुछ अन्य लाभ निम्नलिखित हैं-
- एक ही चरण में समयुग्मता प्राप्त की जा सकती है। यदि बड़े स्तर पर प्रयोग किया जाये, तो इसमें पुनर्संयोजन, पृथक्करण तथा स्थिरीकरण के लाभ भी सम्मिलित हैं।
- हैप्लॉयड उत्परिवर्तन प्रजनन के लिए उपयोगी होते हैं।
- भ्रूण संरक्षण: अंतरजातीय संकरण द्वारा पारंपरिक पौध प्रजनन अक्सर असफल हो जाता है। ऐसे में संकरित भ्रूण को माता से निकाल कर ऊत्तक संवर्द्धन द्वारा बचाया जा सकता है। साधारण एवं जंगली सेम तथा साधारण एवं जंगली टमाटर के मध्य अंतर्जातीय संकरण से रोग-रोधी क्षमता जैसे गुण प्राप्त किये जा सकते हैं। ऐसा केवल भ्रूण संरक्षण द्वारा ही संभव है।
- उत्परिवर्ती का प्रेरण एवं चुनाव: कोशिकाओं को द्रव माध्यम में भी विकसित किया जा सकता है। द्रव माध्यम में कुछ रसायनों द्वारा अलाभकारी कोशिकाओं को पृथक किया जा सकता है, जिनसे उत्तम प्रजाति के पौधे विकसित किये जा सकते हैं।
- सोमाक्लोनीय विभिन्नताः ऊत्तक संवर्द्धन से प्राप्त पादपों में विभिन्नता पायी जाती है। इसे सोमाक्लोनीय विभिन्नता कहा जाता है । यह उस समय उपयोगी होती है, जब यह स्थिर हो तथा इसमें पीड़क प्रतिबल एवं बंध्यता के प्रति सहनशीलता हो ।
- प्रोटोप्लास्ट तकनीक: वनस्पति कोशिकाओं में कोशिका भित्ति के कारण प्रोटोप्लास्ट को विलगित करना थोड़ा कठिन होता है। पादप कोशिका को सेल्युलोज एवं पेक्टिनेज जैसे एंजाइमों की सहायता से भित्तिरहित कोशिका एवं प्रोटोप्लास्ट के रूप में विलन्ति किया जा सकता है। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त प्रोटोप्लास्ट को पॉलीइथीलीन ग्लाइकॉल (पी.ई.जी.) द्वारा संलयित करके ब्रसीका, संकरित निकोटियाना, पेटुनिया, सोलानम आदि प्रजातियों में सफलतापूर्वक संकरित किया जा सकता है। इस विधि द्वारा दो भिन्न प्रजातियां में भी वैज्ञानिक रूप में संकरण संभव है। हालांकि वर्तमान में इसका आर्थिक उपयोग परिलक्षित नहीं हो रहा है।
पादप ऊत्तक संवर्द्धन
बांस (बम्बूसा अरुणडिनेसिया) की खेती के क्षेत्र में एन.सी.एल. को उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल हुई है। इसके द्वारा बांस की तीन किस्मों में पादप ऊत्तक संवर्द्धन द्वारा समय से पूर्व फूल लाने में सफलता मिली है। ये किस्में हैं- डेन्डोकलमस स्ट्रिक्ट्स, बम्बूसा अरुणडिनेसिया एवं डेन्ड्रोकलमस ब्रेनडिसी ।
इसके अतिरिक्त इलायची, मिर्च, काजू, कॉफी, अदरक, हल्दी आदि के पादपों को कीटाणुओं से बचाने के लिए आर. आर. एल., त्रिवेन्द्रम द्वारा फेरोमोन्स विकसित करने की दिशा में काम किया गया है। हाल ही में शकरकन्द के फेरोमोन्स का संश्लेषण किया गया है एवं इसे धीरे-धीरे जारी करने के लिए उपयुक्त पैक में उपलब्ध कराया गया है। इसका क्षेत्र परीक्षण सी.टी.सी.आई. , त्रिवेन्द्रम के विशेषज्ञों की सहायता से सफलतापूर्वक किया गया। इस अनुसंधान में एफ.ए.ओ., अन्तर्राष्ट्रीय आलू अनुसंधान केंद्र, पेरू के विशेषज्ञों द्वारा रुचि दिखायी गयी है। यह केंद्र विश्व के प्रमुख शकरकंद अनुसंधान केंद्रों की बड़े पैमाने पर क्षेत्र परीक्षणों में सहायता करता है। आर. आर. एल. जम्मू द्वारा परंपरागत क्षेत्रों में जूविनाइल हॉमोंस के प्रयोग से रेशम की पैदावार बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम प्रारंभ किया गया है। इस हॉर्मोन के इस्तेमाल से रेशम के उत्पादन में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
इसके अलावा, पादप ऊत्तक संवर्द्धन द्वारा अब जीव वैज्ञानिकों की दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण यौगिकों का निर्माण किया जाने लगा है। इनमें से शिकोनिन (लाल रंग) भी एक है, जिसे श्रृंगार सामग्री में प्रयोग किया जाता है। ऊत्तक संवर्द्धन द्वारा और भी बहुत से प्राकृतिक पदार्थों को प्रयोगशाला अथवा जैव- रिएक्टरों में बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं।
इस विधि का उपयोग क्लोन की उत्पत्ति, भ्रूण संवर्द्धन तथा नयी प्रजातियों के विकास में भी हो रहा है। इसका प्रयोग प्रयोग कुक्कुट उत्पादन, समुद्री घास तथा मोतियों में संवर्द्धन इत्यादि के लिए बहुतायत से हो रहा है। फसल उत्पादन के क्षेत्र में भी इसका व्यापक उपयोग किया जा रहा है, जिसमें पौधे की कोशिकाओं, उत्तकों अथवा अंगों को पृथक करके उनका नियंत्रित ताप व दाब पर विशेष पात्रों में संवर्द्धन किया जाता
मशरुम संवर्द्धन
मशरुम संबर्द्धन तकनीक का उपयोग धान एवं गेंहू के पुआल से उच्च कोटि का प्रोटीन बनाने औषधीय या औद्योगिक रूप से उपयोगी उत्पाद (यथा-साइट्रिक अम्ल, अल्कोहल आदि) बनाने, जल अपघटनीय एंजाइमों तथा एंटीबायोटिक उत्पाद बनाने आदि में किया जाता है। वस्तुतः मशरूम एककोशीकीय यीस्ट होता है।
कुछ खाद्य मशरुम जीवाणु रोधी होते हैं, जिससे इनका प्रयोग औषधियों के रूप में किया जाता है। कुछ मशरुम में कैंसर रोधी तथा रक्त में कोलेस्टेरॉल की मात्रा घटाने के गुण होते हैं। एड्स रोधी गुणों पर अभी संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों में प्रयोग किये जा रहे है नयी प्रौद्योगिकी के तहत अब हानिकारक कवकों की वृद्धि को रोकने के उपाय किये जा रहे हैं। इस क्रम में ट्राइकोर्डमा हारजिएनम अनेक मृदा कवकों के विरुद्ध एक उपयोगी जैव नियंत्रक साबित हुआ है। कवकों का उपयोग अब कैंसररोधी टेक्साल के उत्पादन में भी होन लगा है। ध्यातव्य है कि टेक्साल एक डाइर्पीनॉयड है, जो स्त्रियों में अंडाशय के कैंसर तथा स्तन कैंसर को काफी कम कर देता है। कवक का प्रयोग पर्यावरण प्रदूषण में कमी लाने के लिए भी किया जाता है। एस्परजिलस नाइजर तथा कीटोमियम क्यूप्रीयम चर्मशोधक कारखान से निकले अवशिष्ट पदार्थों में मौजूद विषैले टैनिन को कम कर प्रदूषण को स्वच्छ बनाये रखने में मदद पहुंचाता है
टेस्ट ट्यूब पादप
उत्तक संवर्द्धन तकनीक द्वारा टेस्ट ट्यूब शिशु की तरह टेस्ट ट्यूब पादप को भी विकसित किया जा सकता है। इस तकनीक द्वारा पादप कोशिका एवं ऊत्तक का विकास कृत्रिम प्रकाश एवं नियंत्रित जर्मरहित परिस्थितियों में पोषक माध्यम में किया जाता है। पोषक माध्यम के परितः वातावरण जीवाणु रहित रखा जाता है, ताकि किसी भी प्रकार से पोषक माध्यम का संक्रमण नहीं हो सके। प्रत्येक पादप कोशिका में उन पौधों के विकास के लिए तमाम आवश्यक आनुवंशिक सूचनाएं केन्द्रित रहती हैं।
टेस्ट ट्यूब पादप का व्यावसायिक कार्यान्वयन साठ के दशक में प्रारंभ हुआ। इस तकनीक के आधार पर सजावट हेतु पौधों को विकसित करने की अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां स्थापित की जा रही हैं। इसके तहत अंग संवर्द्धन द्वारा द्रुत गति से वृद्धि करने वाले पौधे, यथा-युकेलिप्टस, केजुराइना, रोजवुड, लाल चंदन आदि को विकसित किया जा रहा है, जिनकी लकड़ियां व्यावसायिक रूप से काफी महत्त्व रखती हैं।
उत्तक संवर्द्धन विधि द्वारा पादप को विकसित करने की तकनीक के तहत जिस पौधे को विकसित किया जाना होता है, उसका एक छोटा-सा टुकड़ा (ऊत्तक के रूप) लेकर एक परखनली, जिसमें पोषक माध्यम एवं वृद्धि नियंत्रक हॉर्मोन उपलब्ध रहता है, में रखा जाता है।
ऊत्तक को पोषक माध्यम द्वारा पोषण मिलता रहता है एवं वृद्धि हॉर्मोन ऊत्तक के कायिक जनन में सहायक होता है। इसके फलस्वरूप, कोशिका में विभाजन की क्रिया प्रारंभ होती है। विभेदित कोशिकाएं छोटे पादप के रूप में विकसित होती हैं। तदुपरांत, इस छोटे पादप को किसी गमले में स्थानांतरित कर दिया जाता है एवं कुछ दिनों के पश्चात् इसे सामान्य भूमि में भी लगाया जा सकता है। इन तमाम प्रक्रियाओं में लगभग 10 महीने की अवधि लग जाती है।
जीन क्लोनिंग एवं बहुगुणिता द्वारा विकसित इच्छानुसार नये किस्म के पौधों के उत्तकों द्वारा ऊत्तक संवर्द्धन की सहायता से अधिक संख्या में पादपों को विकसित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया की कुछ सीमाएं भी हैं। यथा- ऊतक संवर्द्धन में वयस्क पादप से पादप खंड (ऊत्तक) लिया जाना चाहिए, न कि छोटे अथवा नये पादप से, क्योंकि वयस्क पादप में उनके तमाम गुण विकसित हो चुके होते हैं, जबकि छोटे व अवयस्क पादप में वैसे गुणों के विकसित नहीं होने की आशंका बनी रहती है। भारत में इस संबंध में प्राप्त उपलब्धि भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलौर के शोधकर्ताओं के प्रयास का प्रतिफल है।
जीन थिरेपी
जीन थिरेपी का उद्देश्य शरीर की सामान्य क्रियाओं को पुनः चालू बनाये रखने के लिए शरीर की कोशिकाओं में सामान्य जीनों को प्रवेश कराकर बीमारी का निदान करना होता है। इसका प्रथम सफल प्रयोग सितंबर 1990 में संयुक्त राज्य अमेरिका में बेथेसडा की एक ऐसी चार वर्षीया बालिका पर किया गया, जो Severe Combined Immune Deficiency (S.C.I.D.) रोग से ग्रस्त थी। इस रोग के अंतर्गत जीनों के टूट जाने से उसके शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता समाप्त हो गयी थी। इस बालिका की 10 अरब श्वेत रक्त कोशिकाओं में ऐसे जीन प्रवेश कराये गये, जो सामान्य एवं स्वस्थ थे। अब ऐसी अनेक विधियां खोजी जा चुकी हैं, जिनसे नवीन क्रियाशील आनुवंशिक पदार्थों को मैमेलियन कोशिकाओं में प्रवेश कराया जा सकता है।
सोमेटिक जीन थिरेपी मानव की आनुवंशिक बीमारियों के उपचार हेतु प्रयुक्त की जा रही है। इसमें आनुवंशिक पदार्थ को रोगी की कोशिकाओं में प्रवेश कराने की विधि का सर्वाधिक प्रयोग किया जा रहा है। डॉ. थॉमस कास्के ने जीन अभियांत्रिकी द्वारा एक जीव से दूसरे जीव में जीन स्थानांतरण करने में सफलता पा ली है। उन्होंने एपने प्रयोग के लिए अस्थि मज्जा से प्राप्त डी.एन.ए. का उपयोग किया। अत्यधिक विकसित अवस्था में पहुंच चुके मैलिंगनेट मेलेनोमा (कैंसर) से प्रभावित आधे से अधिक रोगी, जिनमें जीन स्थानांतरण के लिए ट्यूमर इनफिल्ट्रेटिंग लिम्फोसाइव्स तथा इंटरल्यूकिन 2 प्रवेश विधि प्रयोग की गयी थी, सामान्य से अधिक समय तक जीवित रहे। यह विधि अब तक की सर्वाधिक सुरक्षित विधि मानी जाती है। आंकोजीन्स में प्रवेश कराकर कैंसर जैसे घातक रोग को ठीक किया जा सकता है। साथ ही, इंटरल्यूकिन जैसे प्रोटीन युक्त ट्यूमर में जीनों को प्रवेश कराकर रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाया जा सकता है।
जीन थिरेपी के उपयोग: जीन थिरेपी ने आधुनिक चिकित्सा पद्धति में कई तरह के दूरगामी प्रभाव उत्पन्न कर दिये हैं। जीन थेरेपी के प्रमुख उपयोगों को निम्न रूपों में रखा जा सकता है:
- कैंसर की रोकथामः वर्तमान समय में कैंसर की रोकथाम हेतु जो केमोथिरेपी अथवा रेडियोथिरेपी विधि अपनायी जाती रही है, वह शरीर के अन्य भागों की कोशिकाओं के लिए काफी घातक साबित होती है। इसके निदान के लिए आंकोजीन्स एवं ट्यूमर सप्रेसर जीन के विकास ने इन कुप्रभावों से बचने का रास्ता साफ कर दिया है।
- लिपिड संबंधी अनियमितता : कुछ लोगों में आनुवांशिक तौर पर रक्त में कोलेस्टेरॉल बढ़ने की प्रवृत्ति पायी जाती है। ऐसे लोगों के यकृत में कम घनत्ववाली लाइपोप्रोटीन को ग्रहण करने की क्षमता या तो बिल्कुल ही नहीं होती है या फिर बहुत ही कम होती है, जिससे हृदय एवं रक्त संचरण प्रणाली सामान्य रूप से कार्य नहीं कर पाती है। जून 1992 में एसी ही एक 29 वर्षीया महिला की जीन थिरेपी से चिकित्सा की गयी और यह देखा गया कि शल्यक्रिया के बाद उस महिला के रक्त में कोलेस्टेरॉल की मात्रा में बिना किसी दवा के उपयोग किये काफी कमी हो गयी।
- सिस्टिक फाइब्रोसिस में सुधार: जिन रोगियों में सिस्टिक फाइब्रोसिस पाया जाता है, उनके शरीर में एक ऐसा जीन होता है, जो एक विशेष प्रकार का प्रोटीन पैदा करके उसके माध्यम से कोशिकाओं के अंदर एवं बाहर क्लोराइड पहुंचाने तथा उन्हें एकत्रित करने का कार्य करता है। इसके चलते फेफड़ों की सतह पर तथा पाचन तंत्र के उत्तकों में नमक जमा होने लगते हैं, जिससे बाद में सांस लेने में काफी कठिनाई होने लगती है। जीन थिरेपी द्वारा इस गंभीर बीमारी पर काबू पाया जाना संभव हो सका है।
- फर्टिलाइजेशन क्लीनिक : आनुवंशिकी के क्षेत्र में नित्य नयी-नयी खोजों ने एक ऐसे फर्टिलाइजेशन क्लीनिक की संकल्पना को संभव बना दिया है, जहां दम्पत्तियों को अपनी इच्छानुसार संतति की प्राप्ति हो सकेगी। यदि मां-बाप किसी वंशानुगत रोग से पीड़ित होंगे, तो यह रोग आने वाले बच्चे में नहीं हो पाये, इस बात की व्यवस्था भी की जायेगी। इन केंद्रों में विशेषज्ञों द्वारा महिला के अंडाशय से डिम्ब निकाल कर उसे उसके पति के शुक्राणुओं के साथ फलित कराया जायेगा। इसके बाद इसमें कृत्रिम मानव रंगसूत्र को सुई द्वारा प्रवेश कराया जायेगा । इस कृत्रिम मानव रंगसूत्र में पूर्व निर्धारित गुण-धर्मों वाले जीन के शामिल होने से स्त्री-पुरुष के डिम्ब एवं शुक्राणु के मिलने से जो भ्रूण पैदा होगा, वह नये गुणसूत्रों के अनुसार ही विकसित होगा ।
- हृदय रोगों से मुक्तिः जीन उपचार पद्धति से हृदय रोगों से निजात पाने के लिए जो प्रयोग हुए हैं, वे काफी उत्साहवर्द्धक माने जा सकते हैं और यदि यही प्रक्रिया एक ठोस उपचार पद्धति के रूप में हमारे सामने आ पाती है, तो बाइपास सर्जरी जैसी महंगी चिकित्सा की कोई जरूरत नहीं रह जायेगी। ध्यातव्य है कि जीन उपचार जटिल शल्य चिकित्सा की आवश्यकताओं का एक प्रभावी विकल्प है। शरीर का कोई अंग यदि किसी बीमारी से ग्रस्त हो जाता है, तो जीन उपचार द्वारा उस अंग में इस बीमारी विशेष के लिए जिम्मेदार ऐसे जीन की खोज की जाती है, जिसमें गड़बड़ी होने के कारण यह बीमारी होती है। इस तरह के जीन की पहचान हो जाने के बाद प्रयोगशाला में कृत्रिम तरीके से संश्लेषित जीन द्वारा रोगी के शरीर में गड़बड़ी वाले जीन की 'रिपेयरिंग की जाती है। इस रिपेयरिंग के लिए रोगी के शरीर में डिफेक्टिव जीन की जगह कृत्रिम रूप से तैयार किये गये जीन का नया सेट प्रतिष्ट करा दिया जाता है। नये जीन का यह सेट रोगी के शरीर में 'डिफेक्टिव जीन' को दरकिनार कर उन सारे कार्यों को अंजाम देना शुरू कर देता है, जो 'डिफेक्टिव जीन' के जिम्मे रहता है। इस तरह शरीर का वह अंग जो रोगग्रस्त रहता है, अपनी पूर्व स्थिति में आने लगता है।
- एड्स निदान में सहायक: वाशिंगटन (अमेरिका) स्थित 'रिसर्च इंस्टीटयूट फॅर जेनेटिक एंड ह्यूमन थिरेपी' के शोधकर्ताओं ने एड्स जैसी खतरनाक बीमारी से लड़ने के लिए जीन थिरेपी (जीवतत्वीय चिकित्सा) के सफल प्रयोग की घोषणा की है। एड्स का टीका प्राप्त करने का यह एक नया तरीका है। बंदरों पर इस टीके का प्रयोग काफी हद तक अनुकूल रहा है और अब इसका प्रयोग मनुष्यों पर किया जाना है। यह इलाज एड्स के उन मरीजों के लिए विशेष लाभकारी होगा, जिन्हें इस समय एक साथ चार-चार खुराकें लेनी पड़ रही हैं। इस प्रकार जेनेटिक थिरेपी को 'इन विट्रो' तथा 'इन विवो' दोनों अध्ययनों में सकारात्मक पाया गया है। ये दोनों ही लैटिन शब्द हैं। इन विट्रो का तात्पर्य ऐसे शीघ्र कार्य से है, जिसमें किसी जीव के शरीर से एक कोशिका लेकर उस पर प्रयोगशाला में कार्य किये जाते हैं, जबकि इन विवो में जीवित प्राणियों पर शेधकार्य किये जाते हैं।
कृत्रिम गुणसूत्र में एक जीन ऐसा भी होगा, जो कोशिकाओं में रहने वाली दोषयुक्त कोशिकाओं की हत्या करता रहेगा। इसके परिणामस्वरूप, एक स्वस्थ एवं क्षतिरहित भ्रूण की प्राप्ति हो सकेगी, जिसे बाद में महिला के गर्भाशय में प्रविष्ट करा दिया जायेगा। यदि भविष्य में बच्चे को अपने पूर्वजों की भांति ही कैंसर जैसा रोग हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में मात्र एक सुई लगाकर ही उसके जीन-तत्त्व को कैंसर कोशिकाओं की समाप्ति हेतु प्रेरित किया जा सकेगा। परिणामस्वरूप, प्रोस्टेट कैंसर के लिए उत्तरदायी कोशिकाएं स्वतः ही खत्म हो जायेंगी।
जीनोम एडिटिंग
जीनोम एडिटिंग जीन थिरेपी का ही एक विकसित व आधुनिक रूप है जिसमें उत्परिवर्तित डीएनए की सूक्ष्म अवस्थिति तक पहुंचकर उसे सही करता है। चिकित्सक पहली बार एक सजीव के जेनेटिक कोड की खामियों का जीर्णोद्धार कर घातक रक्त बीमारी का इलाज करने में सफल रहे हैं। इस उपलब्धि ने जेनेटिक कोड की खामियों के कारण उत्पन्न उन विभिन्न मानवीय बीमारियों के लिए संभावनाएं पैदा की है जिनका आधुनिक दवाओं से इलाज संभव नहीं हैं। इसके लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल किया गया उसे जीनोम एडिटिंग कहा गया (Genome Editing) । चिकित्सकों ने इसके जरिये हिमोफिलिया बी से ग्रसित एक चूहिया का इलाज किया गया जिसमें काफी सुधार देखा गया। हिमोफिलिया वस्तुतः रक्त थक्का में खामियों के कारण होती है जिसे 'फैक्टर पग' कहा जाता है। इस जीन की इस खामी को दूर करने के पश्चात हिमोफिलिया रोग को दूर किया जा सकता है। इस हेतु जिंक फिंगर (Zinc Finger ) न्यूक्लियस का इस्तेमाल किया गया। जिंग फिंगर खमीर से लेकर मानव जैसे सजीव के जेनेटिक तंत्र का प्राकृतिक हिस्सा होते हैं और प्रत्येक एक अंगुठा जैसा ढ़ांचा डीएनए के किसी विशेषीकृत अनुक्रम से बंधे होते हैं।
इन विट्रो मीट
इन विट्रो फर्टिलाइजेशन के पश्चात अब इन विट्रो मीट की बारी है। मतलब यह कि वह दिन दूर नहीं है जब विश्व का पहला टेस्ट ट्यूब हैमबर्गर आपके समक्ष हो । नीदरलैंड के मैस्ट्रिच विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक इस पर तेजी से काम कर रहे हैं। इस टेस्ट ट्यूब हैमबर्गर में जिस मीट का इस्तेमाल किया गया होगा, वह स्टेम सेल से उत्पादित होगा न कि जानवारों का वैज्ञानिक ऐसे बर्गर के विकास पर लगे हैं जिसमें विभिन्न पशुओं से निकाले गये 10000 स्टेम सेल का इस्तेमाल किया जाएगा। इन स्टेम सेल को प्रयोगशालाओं में छोड़ दिया जाएगा जो अरबों में तब्दिल हो जाएगा। इस उत्पाद को 'इन विट्रो मीट' (In vitro meat ) कहा जाएगा।
ध्यातव्य है कि जिस तरह आबादी बढ़ रही है उससे वर्ष 2050 तक मांस की खपत में दोगुना बढ़ोतरी का अनुमान है। और वैज्ञानिक अनुमान लगा रहे हैं कि अगले दो तीन दशकों में जनसंख्या वृद्धि को देखते हुये सभी को मांस उपलब्ध कराना कठिन हो जाएगा, ऐसा इसलिए कि पशुओं के लिए चारों की कमी हो जाएगी फलतः पशु भी कम होंगे। इसी के मद्देनजर इन विट्रो मीट की दिशा में वैज्ञानिक काम कर रहे हैं।
क्लोनिंग
स्कॉटलैंड के वैज्ञानिक डॉ० इयान विल्मुट तथा उनके सहयोगी वैज्ञानिकों द्वारा अलैंगिक विधि से एक अकेले जनक द्वारा डॉली नामक भेड़ को जन्म दिलाने तथा बाद में उसी तरह से अमेरिका में नेटी एवं डिटो नामक बंदर तैयार करने के अतिरिक्त चीन में छह चूहों को तैयार करने की प्रारंभिक घटनाओं ने विश्वभर में खलबली मचा दी। किसी भी जीव का प्रतिरूप प्रयोगशाला में ही तैयार कर सकने की वैज्ञानिक सफलता ने मानव समुदाय को भयभीत कर डाला है, क्योंकि इस तकनीक की अगली छलांग 'मानव हमशक्ल' तैयार करना ही है। वैज्ञानिकों की इस उपलब्धि से भविष्य में जहां जीवों का नस्ल सुधारना संभव बन गया है, वहीं मानव का 'क्लोन तैयार करने की आशंका से सामाजिक संबंधों, नैतिकता आदि पर एक प्रश्नचिह्न भी लग गया है। विश्व के अनकक संगठनों, धर्मगुरुओं तथा बुद्धिजीवियों ने ने क्लोनिंग की आलोचना करते हुए इस पर रोक लगाने की मांग की है।
'क्लोन' वस्तुतः एक जीव अथवा रचना है, जो गैर-यौनिक विधि द्वारा एकल जनक (माता-पिता में से कोई एक ) से व्युत्पन्न होता है। 'क्लोन' शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि आनुवंशिक गुणों में भी अपनी माँ अथवा अपने पिता के समरूप होता है। वास्तव में, एक 'क्लोन' अपनी माँ का प्रतिरूप होता है, जबकि सामान्य यौगिक प्रजनन के तहत पैदा हुए बच्चे में माँ व पिता दोनों के आनुवंशिक गुण समाहित होते हैं। जिस तकनीक द्वारा क्लोन पैदा किया जाता है, उसे क्लोनिंग कहा जाता है। इस तकनीक के तहत प्रायः नाभिकीय अंतरण विधि का प्रयोग किया जाता है। किसी एक कोशिका का नाभिक क्रोमोसोम एवं जीन का भंडार होता है, इसलिए इससे एक कोशिका की सभी आनुवंशिक सूचनाएं प्राप्त की जा सकती हैं। नाभिकीय अंतरण विधि के तहत कोशिका के नाभिक को यांत्रिक रूप से निकाल लिया जाता है। तत्पश्चात, नाभिक रहित अंडाणु में प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। इसके बाद उन पर हल्की विद्युत तरंगों को प्रवाहित करके निषेचन प्रक्रिया को आरंभ कराया जाता है, जिसके उपरांत कोशिका का तीव्र विभाजन शुरू हो जाता है। इस प्रक्रिया के तहत पूर्ण विकसित अंडाणु को प्रतिनियुक्त माँ के गर्भ में आरोपित कर दिया जाता है। इसके साथ ही गर्भाधान, बच्चे का विकास तथा उसका जन्म होता है। पारंपरिक रूप से क्लोनिंग तकनीक कृषि एवं बागवानी के क्षेत्र में काफी प्रचलित रही है। इस तकनीक के तहत ये विशेषज्ञ जनक पौधे की एक टहनी से एक संपूर्ण पेड़ पैदा कर देते हैं, जो अपने जनक पौधे के समरूप होता है। इस प्रकार, यह तकनीक हाल के वर्षों में प्रकाश में आयी कोई नयी वैज्ञानिक विधि नहीं है, बल्कि यह तकनीक कृषि एवं बागवानी के क्षेत्र में प्राचीनकाल से ही प्रचलित रही हैं।
क्लोन फार्म बनाने की योजना : न्यूजीलैंड में दुनिया का प्रथम 'क्लोन फार्म' बनाने की तैयारी चल रही थी, जिसे बाद में त्याग दिया गया। इस फार्म में 1500 गायें रखी जानी थी। परीक्षण के दौरान लगभग 90 प्रतिशत क्लोनित जानवर मर गये। इसी वजह से क्लोन फार्म की संकल्पना त्याग दी गई।
प्रजनन के लिए इन क्लोनों के प्रयोग के बाद उत्पन्न मादा संतानें जो दूध देती हैं, उसमें मानव माइलिन बेसिक प्रोटीन मौजूद रहता है। दूध से इस तत्त्व को अलग किया जा सकता है, जिसका प्रयोग मल्टीप सिरोसिस के इलाज में किया जा सकता है। यह एक स्नायु विकार है और अकेले ब्रिटेन में करीब 85 हजार लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं। न्यूजीलैंड की सरकारी एजेंसी (एजी) रिसर्च का उद्देश्य दूसरी गायों में मानव मायोस्टेटिन जीन प्रविष्ट कराने का भी है। यह जीन मांसपेशियों के विकास को नियंत्रित करता है। इस जीन को प्राप्त कर लेने के बाद गायें अपने दूध में कुछ ऐसे रसायनों का उत्पादन कर सकेंगी, जो मस्कुलर डिस्ट्रॉफी नामक बीमारी के इलाज में मददगार हो सकते हैं। यह एक आनुवंशिक बीमारी है, जिससे मांसपेशियों का विकास रुक-सा जाता है।
जीन गन
'जीन गन' एक ऐसी विकसित आधुनिक जैव तकनीक है, जिसकी सहायता से बाह्य जीन को मस्तिष्क ऊत्तक में प्रत्यारोपित किया जा सकता है। यह तकनीक पर्किसन रोगियों के लिए एक अत्यंत सुखद पहलू है। इस प्रकार से प्रत्यारोपित जीन, कोशिका में डोपामाइन (डोपा का डीकार्बोक्सिलेटेड रूप) का निर्माण करता है, जो मस्तिष्क कोशिकाओं में अंतरकोशिकीय संचरण में सहायक होता है। पर्किंसन रोग मस्तिष्क से संबंधित एक ऐसा रोग है, जिसमें मस्तिष्क उत्तकों में अन्तरकोशिकीय संचार के अभाव में मनुष्य का मानसिक विकास नहीं हो पाता है।
एग्रेसीट्स के निंग-सन यांग, विसकोसीन की एक जैव तकनीक कंपनी एवं विसकोसीन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा चूहे के मस्तिष्क ऊत्तक में बाह्य जीन को सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया जा चुका है। इस जीन के प्रत्यारोपण से टायरोसीन हाइड्रोक्सीलेज का निर्माण होता है, जो डोपामाइन का प्रारंभिक रूप है। जीन गन पद्धति के तहत शोधकर्ताओं द्वारा सर्वप्रथम स्वर्ण कण पर डी.एन.ए., जिसे मस्तिष्क कोशिका में अंतर्विष्ट करना होता है, की एक माइक्रोमीटर मोटी परत का लेप चढ़ाया जाता है। इसके पश्चात् चूहे के मस्तिष्क ऊत्तक को बाहर निकाला जाता है तथा डी.एन.ए. युक्त स्वर्ण कण को शक्तिशाली विद्युत विसर्जन द्वारा निर्मित आवेगकारी तरंगों की मदद से मस्तिष्क ऊत्तक की ओर प्रेषित किया जाता है। 'स्वर्ण कण' ग्रिड द्वारा अवरुद्ध हो जाते हैं तथा डी. एन. ए. मस्तिष्क ऊत्तक में लगातार समाहित होते जाते हैं।
डी.एन.ए. फिंगरप्रिंट
डी.एन.ए. फिंगर प्रिंट जैव तकनीक का एक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं, जिसकी सहायता से किसी बच्चे से संबंधित पैतृक द्वंद्व को समाप्त करने, अपराधी को पकड़ने, करोड़ों वर्ष पूर्व की घटनाओं का पता लगाने आदि जैसे कार्य बखूबी से किये जाते हैं। डी. एन.ए. फिंगर प्रिंटिंग के नाम से ज्ञात यह तकनीक, दो व्यक्तियों में मामूली अंतर को भी आणविक स्तर पर बता सकती है। आनुवंशिक विशेषज्ञ, मानव की आनुवंशिक संरचना की गहराई से जांच कर उन भागों का पता लगा लेते हैं, जिसकी रचना प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशिष्ट होती है। यही संरचना डी. एन. ए. की लम्बी श्रृंखलाओं से बने 46 गुणसूत्रों पर भी होती है एवं उनके क्रियाकलापों को नियंत्रित करती है। डी.एन.ए. में एडिनीन, थायमीन, सायटोसिन एवं ग्वानिन चार प्रमुख घटक होते हैं, जो शर्करा एवं फॉस्फेट अणुओं द्वारा आपस में जुड़े रहते हैं। यह द्विकुंडलित संरचना है, जिसमें एक तंतु का एडिनीन दूसरे के थायमीन से तथा दूसरे का सायटोसिन पहले के ग्वानिन से जुड़ा रहता है। आनुवंशिक रूपरेखा सूचनाओं का एक कोड होता है। इस कोड में प्रत्येक शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना होता है, जिसे आनुवंशिक कोड कहा जाता है। प्रत्येक कोड एक एमीनो अम्ल प्रदर्शित करता है एवं संपूर्ण डी.एन.ए. प्रोटीन अणु का निर्माण करता है।
किन्हीं दो व्यक्तियों में लगभग 90 प्रतिशत डी.एन.ए. समान होते हैं। बाकी के 10 प्रतिशत भिन्न डी.एन.ए. में समाक्षारों का एक विशिष्ट अनुक्रम होता है। डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग, डी.एन.ए. के इन्हीं हिस्सों का पता लगाने की युक्ति है। इस प्रकार इस युक्ति द्वारा किसी भी व्यक्ति के विशेष आनुवंशिक अंशों की पहचान की जा सकती है, जो किसी व्यक्ति की उंगलियों के निशान अथवा उनके हस्ताक्षर की तरह केवल उसी व्यक्ति की पहचान होती है। इस तकनीक की खोज सर्वप्रथम ग्रेट ब्रिटेन के लीसेस्टर विश्वविद्यालय के एलेक जे. जेफ्रे द्वारा की गयी।
प्रत्येक व्यक्ति के डी.एन.ए. में पुनरावृत्त समाक्षार का अनुक्रम भिन्न होता है। यह अनुक्रम जुड़वां बच्चे में एक जैसा हो सकता है। पुनरावृत्तों की संख्या में भिन्नता वाले भाग को वेरियेबल नंबर टेन्डम रिपीट्स (वी.एन.टी.आर.) कहा जाता है। इस अनुक्रम का पता डी.एन.ए. फिंगर प्रिंटिंग जैसी आधुनिकतम तकनीक द्वारा लगाया जा सकता है। यह कार्य एक विशेष एन्जाइम, एंडोन्यूक्लियेज द्वारा किया जाता है। यह एन्जाइम एक आणविक कैंची की तरह होता है, जो डी.एन.ए. को कुछ विशेष जगहों पर विभिन्न टुकड़ों में काट सकता है, जिनमें वी. एन. टी. आर. भी उपस्थित होते हैं।
आणविक पहचान के लिए डी.एन.ए. के टुकड़े को इलेक्ट्रोफोरेसिस तकनीक द्वारा छांट लिया जाता है। इसके लिए अणुओं को एक रन्ध्र युक्त जेल स्लैब के एक सिरे पर रख दिया जाता है। विद्युत धारा प्रवाहित करने पर ऋण आवेशित डी.एन.ए. के टुकड़े, घन आवेशित इलेक्ट्रोड की ओर अग्रसर हो जाते हैं। छोटे एवं हल्के टुकड़े जेल से होकर पार कर जाते हैं। विद्युत प्रवाह के बंद करने पर जेल में डी.एन.ए. के टुकड़ों की एक पट्टी-सी बंध जाती है। प्रत्येक टुकड़े के रज्जुओं को रासायनिक विधि द्वारा अलग कर लिया जाता है। अलग किये गये टुकड़ों को एक नायलॉन के कागज पर ब्लॉटिंग द्वारा उतार लिया जाता है। इसके पश्चात् दूसरे चरण में किसी पट्टी में डी.एन.ए. के टुकड़ों की पुनरावृत्ति के संबंध में पता करना होता है। इसके लिए एक प्रोब की आवश्यकता होती है। प्रोब डी. एन.ए. का एक ऐसा टुकड़ा होता है, जो उनके ढेर में से डी.एन.ए. के वांछित टुकड़े को ढूंढ़ लेता है। इस प्रोब का निर्माण प्रयोगशाला में किया जाता है एवं इनमें वी. एन. टी. आर. में निहित पुनरावृत्त समाक्षार अनुक्रमों के पूरक होते हैं।
अधिकांश आनुवंशिक फिंगरप्रिंट में दो तरह के प्रोब का इस्तेमाल किया जाता है- बहुस्थानीय (मल्टी-लोकस) प्रोब एवं एकल स्थानीय (सिंगल लोकस) प्रोब इन प्रोब्स को नायलॉन की झिल्लियों पर पुनरावृत्त अनुक्रम में जोड़ा जाता है। अतिरिक्त असंबद्ध प्रोब को हटा दिया जाता है। इस अवस्था में डी.एन.ए. पर अंकित संकेत का पता चल जाता है, जो कि आंख से दृश्य नहीं होता। इसे देखने योग्य बनाने के लिए नायलॉन शीट से एक एक्स-किरण फिल्म खींची जाती है। वह स्थान जहां रेडियोधर्मी डी.एन. ए. प्रोब, डी.एन.ए. के टुकड़ों से जुड़े होते हैं, एक्स-रे पर काली एवं स्पष्ट पट्टियों के रूप में दिखायी देने लगते हैं। ये पट्टियां ही डी.एन.ए. प्रोफाइल या डी.एन.ए. फिंगरप्रिंट होते हैं।
इस प्रकार, नाइट्रोजनी क्षारों अर्थात् एडिनीन, थायमीन, ग्वानिन तथा साइटोसिन के आधार पर किसी व्यक्ति की पहचान करने की विधि ही डी.एन.ए. फिंगर प्रिंटिंग कहलाती है। इसकी सहायता से अपराध स्थल पर अपराधी द्वारा अपने शरीर के सजीव-निर्जीव भाग, रक्त, वीर्य, थूक आदि का कोई भी अवशेष यदि छोड़ा जाता है, तो इसकी सहायता से डी.एन.ए. प्रतिरूप की पहचान कर अपराध माता-पिता तथा उसके पूर्वजों की प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया जा सकता है। न्यायालयिक विश्लेषण के लिए जैविक प्रतिदर्श के रूप में रक्त वीर्य, बाल, त्वचा, योनिद्रव आदि का प्रयोग होता है। जहां तक इस पद्धति की असफलता का प्रश्न है, तो व्यक्तियों के डी.एन.ए. फिंगर प्रिंट समान होने की प्रायिकता 3310 (लगभग शून्य) होती है।
भारत में इस तकनीक को विधिक मान्यता सन् 1989 में थलसरी (केरल) के कुन्हीरामन बनाम विलासिनी के मामले में मिली। इस मामले में जब कुन्हीरामन ने विलसिनी के पुत्र को अपना बच्चा मानने से इनकार कर दिया, तो हैदराबाद स्थित सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. लालजी सिंह द्वारा इस तकनीक का प्रयोग कर कुन्हीरामन को दोषी ठहराया गया। स्वर्गीय राजीव गांधी की हत्यारिन 'धानू' को प्रमाणित करने के लिए भी इसी तकनीक का प्रयोग किया गया था। इस दिशा में भारत का एकमात्र शोध संस्थान सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी केंद्र (हैदराबाद) ही है।
डी.एन.ए. फिंगरप्रिंट से जुड़ी समस्याएं: डी.एन.ए. फिंगरप्रिंट के परीक्षण से अनेक समस्याएं जुड़ी हुई हैं। इसके परीक्षण में काफी सावधानी की आवश्यकता होती है। न्यायिक जांच प्रतिदशों, जैसे कपड़ों पर रक्त के धब्बे आदि में दूसरे पदार्थ भी मिल जाते हैं। ऐसे प्रतिदशों में सामान्यतः कवक एवं जीवाणु पाये जाते हैं। रंजक (जैसे डेनिम जीन का नीला रंग) रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम से क्रिया करते हैं एवं डी.एन.ए. कई बार गलत जगहों से कट जाते हैं। इसके अलावा, डी.एन.ए. काफी सुग्राही अणु होते हैं, जो गर्म व आर्द्र परिस्थितियों में बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। फलस्वरूप, डी.एन.ए. के कभी बहुत कम एवं कभी बहुत अधिक टुकड़े हो जाते हैं। इससे सही तथ्यों का पता नहीं चल पाता है।
पी.सी.आर. तकनीक
पी.सी.आर. (Polymerised Chain Reaction) तकनीक ने अणुविज्ञान के क्षेत्र में एक जबर्दस्त क्रांति ला दी है, जो कि वस्तुतः एक जीन प्रवर्द्धन तकनीक है। पी.सी.आर. जीवन के आनुवंशिक ब्ल्यू प्रिंट अर्थात् डी.एन.ए. की कॉपी (अनुकृति) बनाता है। डी.एन.ए. के छोटे से टुकड़े से इस तकनीक द्वारा कुछ ही घंटे में करोड़ों अनुकृतियां बनायी जा सकती हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह तकनीक डी.एन.ए. के टूटे रहने अथवा संपूर्ण डी.एन.ए. दोनों ही स्थितियों में प्रभावी होती है। किसी विशेष जीन की 10 लाख से 100 अरब अनकृतियों की जरूरत होती है, जबकि प्रत्येक कोशिका में जीन की केवल दो अनुकृतियां ही होती हैं, जिनमें से एक पिता से प्राप्त होती हैं, तो दूसरी माता से आनुवंशिक सूचनाओं की इन सूक्ष्म इकाइयों को लेकर पी.सी. आर. तकनीक द्वारा डी.एन.ए. की बड़ी मात्रा तैयार की जा सकती है। इस प्रकार, केवल एक कोशिका से ही विश्लेषण के लिए पर्याप्त मात्रा में आनुवंशिक पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं। इस तकनीक में मुख्यतया डी.एन.ए. पॉलीमरेज की उत्प्रेरक क्रिया का ही प्रयोग किया जाता है।
डी.एन.ए. को अनुक्रमित करने के लिए प्रतिलोम तथा पंजीकृत पी.सी.आर. के उपयोग आश्चर्यजनक हैं। इन दोनों तकनीकों से डी. एन. ए. उत्पन्न करने के साथ-साथ उस सिरा को बता पाना भी संभव हो सका है, जिनसे संश्लेषित प्राइमरों को जुड़ना अथवा बढ़ना होता है। किसी प्रतिदर्श में बहुत कम मात्रा में उपस्थित अणुओं की पहचान करने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। पी. सी. आर. का सबसे महत्त्वपूर्ण तकनीकी प्रभाव जो अनुभव किया गया है, वह आनुवंशिक दोषों के लिए उत्तरदायी संक्रामक रोगों का पता लगाना है। इसके प्रारंभिक उपयोगों में से एक एड्स वायरस के लिए संग्राही परीक्षण भी था। इस विधि से एड्स वायरस से संक्रमित माताओं द्वारा जन्मे बच्चों का परीक्षण भी संभव हो सकता है। अब पी.सी.आर. हीमोफीलिया, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी, बीटा-थैलसीमिय, सिकिल सेल एनीमिया आदि जैसे वंशानुगत रोगों का पता लगाने के लिए भी प्रयोग किया जा रहा है।
अपराध स्थल से प्राप्त होने वाले रक्त, बाल, सीमेन आदि के डी.एन.ए. प्रतिदर्श इतने कम तथा अस्पष्ट होते हैं कि किसी अन्य तकनीक से उनका विश्लेषण संभव ही नहीं हो पाता है। ऐसे समय में, पी.सी.आर. तकनीक काफी प्रभावी जान पड़ती है, जिससे गुजरे हुए कल की गुत्थियों को सुलझाना सरल हो गया है। पी.सी.आर. तकनीक काफी तेजी से विकसित होती जा रही | है और वैज्ञानिक इसकी क्षमता को बढ़ाने के लिए सतत् प्रयत्नशील हैं। वैसे इसकी कुछ सीमाएं भी हैं, जैसे इसकी अति सुग्राहकता कभी-कभी इसे व्यर्थ भी बना देती है अथवा इसके द्वारा वास्तविक अनुक्रम की बजाय किसी अन्य अनुक्रम का पता लगाना, आदि । लेकिन अध्ययनों द्वारा इसकी इस सीमाओं पर कई तरह से नियंत्रण लगाने के प्रयास जारी हैं।
हाल के वैज्ञानिक परीक्षणों से यह बात स्पष्ट हुई है कि पी.सी.आर. तकनीक के माध्यम से एड्स, हिपेटाइटिस-बी तथा सी वायरस एवं क्षय रोग (टी.बी.) जैसे खतरनाक एवं जानलेवा रोगों के जीवाणुओं का अब रोग के शुरुआती चरणों में ही पता लगाया जा सकता है। इस तकनीक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह अन्य जांच परीक्षणों की तुलना में काफी कम समय में रोग के जीवाणुओं का पता लगा लेता है। इससे समय रहते रोगों पर आसानी से काबू पाया जा सकता है। इससे परिणाम तो जल्द मिलता ही है, साथ ही इसकी प्रामाणिकता भी सौ प्रतिशत सही मानी गयी है। पी.सी.आर. तकनीक भारत जैसे देशों के लिए एक वरदान है, क्योंकि यहां एड्स जैसे जानलेवा रोगों के मरीजों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।
शरीर में एंटीजन के विरुद्ध रक्त की धारा में एंडीबॉडीज का पता लगाने में आमतौर पर कई हफ्तों का समय लग जाता है। और सबसे बड़ी दिक्कत तो यह है कि एड्स के लिए प्रयुक्त अन्य जांच परीक्षणों, यथा-एलिसा एवं वेस्टर्न ब्लॉट में इतने कम समय में नकारात्मक परिणाम मिलने की संभावना अधिक बनी रहती है। परंतु, पी.सी.आर. तकनीक एक ऐसा संवेदनशील परीक्षण है कि यह एच.आई.वी. तथा हिपेटाइटिस-बी एवं सी के एंटीजन का एकदम शुरुआती चरण में ही पता लगा लेता है। दरअसल, यह एक अत्यंत ही उन्नत रोग निदान परीक्षण है, जो डी.एन.ए. के परिभाषित क्रम का विस्तार कर देता है। ऐसी स्थिति में, जबकि भारत में अभी तक करीब 35 लाख लोग एच.आई.वी तथा 40 लाख लोग हेपेटाइटिस-बी तथा सी के वायरस के वाहक हैं, पी. सी.आर. तकनीक की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
ट्रांसएंब्रियो तकनीक
अमेरिका के ट्रेंजाइम इकों की प्रयोगशाला के वैज्ञानियों ने ट्रांसएंब्रियो नामक एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जिससे ऐसे ट्रांसजेनिक जानवरों को तैयार संभव होगा, जिन्हें रोग नहीं लगेंगे। इससे आनुवंशिक रूप से नये जानवरों को तैयार करने की प्रक्रिया में भारत बदलाव आयेगा। विशेष बात यह है कि इस नयी तकनीक से वैज्ञानिकों को चूहे और मूषक ही नहीं लगभग सभी स्तनधारी प्रजातियों के बदले हुए जीन वाले जानवर तैयार करने में सहायता मिलेगी, तात्पर्य यह है कि प्रजातीय बाधाएं समाप्त हो जायेंगी। अभी तक परिवर्तित जीन वाले जानवर पैदा करने की तकनीक को काफी पेचीदा एवं अक्षम माना जाता हैं वर्तमान में जीन की क्लोनिंग के लिए माइक्रोइंजेक्शन का प्रयोग किया जाता है, जिसमें सूई को भ्रूण में डाला जाता है, लेकिन यह प्रक्रिया महज तुक्केबाजी ही है। इस विधि से ट्रांसजेनिक जानवर पैदा करने में मात्र 5 प्रतिशत कामयाबी ही मिलती है। उधर ट्रांसऍब्रियो तकनीक के तहत जीन को भ्रूण की नाभि में लेंटीवायरस के जरिए डाला जाता है। इस वर्ग के वायरस अपनी आनुवंशिक सामग्री के डीएनए को उसकी प्रतिकृति तैयार करने के लिए अपनी पोषक कोशिका में छोड़ देते हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण एचआईवी वायरस हैं जो विभाजित और अविभाजित होने वाली कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। अपनी इसी विशेषता की वजह से ये वायरस जीन पहुंचाने के सर्वोत्कृष्ट माध्यम बन सकते है। ट्रांसऍब्रियो तकनीक के माध्यम से वैज्ञानिकों ने एचआईवी वायरस के उपयोगी गुणों को बरकरार रखते हुए इसके खतरनाक पहलुओं को कल्याणकारी बना दिया है।
ट्रांसएंब्रियो तकनीक की प्रमुख विशेषता यह है कि इसको किसी भी प्रजाति पर आजमाया जा सकता है तथा अलग जीन वाले जानवर के जीवित रहने की संभावना दस गुना अधिक होती है। इस तकनीक के आ जाने से पशु मॉडल तैयार करने की लागत आधी हो सकती है तथा पशु मॉडल के लिए नयी प्रजातियां प्राप्त हो सकती हैं। इससे दवा अनुसंधान को बढ़ावा मिलेगा तथा स्टेम सेल अनुसंधान और अधिक परिष्कृत हो सकेंगे।
ईयर प्रिंटिंग
फिंगर प्रिंट यानी अंगुलियों की छाप से अपराधियों को पकड़ने का फॉर्मूला अब पुराना होता जा रहा है। आधुनिक वैज्ञानिक 'कान की छाप' के जरिये अपराधियों को पकड़ने का प्रयास करने में जुटे हुए हैं। ब्रिटेन के वैज्ञानिक अब इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि यूरोप के प्रत्येक सजायाफ्ता अपराधी के कानों की छाप को संग्रहित किया जाये। इससे ऐसे अपराधियों को पकड़ना आसान हो जायेगा, जो अपराध करते समय हाथों में दस्ताने पहनते हैं। कंप्यूटर तकनीक के जरिये वैज्ञानिक अब लूटे गये घर या कार की खिड़कियों पर आमतौर पर पाये जाने वाले कानों के निशान का वर्गीकरण कर अपराधियों की शिनाख्त करवा सकते हैं। यूरोपीय संघ द्वारा इस तकनीक के लिए धन की व्यवस्था की जा रही है।
प्रारंभिक तौर पर इस अध्ययन पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है कि प्रत्येक कान, दूसरे कान से किन रूपों में भिन्न होता है? ऐसा खुलासा हो जाने पर कान की छाप भी व्यक्ति के डी.एन.ए. की तरह न्यायालय में पेश किये जाने लायक अकाट्य सबूत बन सकेगी, ऐसी आशा है।
सिंथेटिक डीएनए कोडिंग
सिंथेटिक डीएनए में सूचनाएं या संकेत डालकर उसे किसी भी डिजाइनर ड्रेस, सीडी, परफ्यूम या किसी भी अन्य उत्पाद से सम्बद्ध किया जा सकता है। उत्पाद के डीएनए कोड से उसके असली होने की गारंटी मिलेगी और इसके कोड को तोड़ना जालसाजों के लिए नामुमकिन होगा। इससे नकली उत्पाद बनाने के अरबों डॉलर के विश्वव्यापी कारोबार पर प्रभावी अंकुश लगाने में मदद मिल सकती है। डीएनए कोडिंग से नकली पासपोर्ट, परिचय पत्र और अन्य दस्तावेज बनाने पर भी रोक लग सकेगी। उल्लेखनीय है कि वैज्ञानिकों को इस खोज की प्रेरणा दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन जासूसों द्वारा किए जाने वाले कूट लेखन से मिली। वे बड़ा से बड़ा संदेश भी एक सूक्ष्म बिंदू में लिख डालते थे। सिंथेटिक डीएनए कोडिंग प्रणाली का विकास न्यूयॉर्क के माउंट सिनाई स्कमूल ऑफ मेडिसिन के दो वैज्ञानिकों ने सूचनाएं छिपाने के लिए किया है। इससे जुड़े वैज्ञानिकों के अनुसार इस तकनीक का उद्देश्य मानव जीनोम को जटिलता का लाभ उठाते हुए डीएनए में लिखे कोड को छिपाना है। इस विधि से लिखे कोड को ढूंढ़ना असंभव होता है। इस तकनीक का उपयोग करने वाले निर्माता डीएनए कोडिंग के लिए विभिन्न संख्याओं या संकेतकों का प्रयोग कर सकते है। इन्हें एक डीएनए निडिल की मदद से सिंथेटिक डीएनए पर लिखा जा सकता है। नायलॉन के टुकड़े पर डीएनए कोडिंग करके उसे किसी भी कपड़े पर लगाया जा सकेगा। इसका आकार एक डाक टिकट के चौथाई हिस्से के बराबर होगा। इस प्रकार चिकित्सा विज्ञान और अपराधियों की धरपकड़ के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा डीएनए अब नकली सामान की धरपकड़ में भी विशेष भूमिका निभाएगा।
सिंथेटिक कोशिका
अमेरिका के मेरिलैंड के शीर्ष जीनोम वैज्ञानिक जे. क्रेग कैंटर के नेतृत्व में 24 सदस्यी वैज्ञानिकों की टीम को प्रयोगशाला में कृत्रिम जीवन तैयार करने की दिशा में महत्वपूर्ण सफलता मिली है। 20 मई, 2010 को डा. वेंटर द्वारा की गई घोषणा के अनुसार वैज्ञानिकों ने ऐसी सिंथेटिक कोशिका तैयार करने में सफलता पाई जिसके डीएनए की प्रोसेंसिंग पहले ही कर ली गई थी। प्रयोगशाला के सुरक्षित वातावरण में बैक्टेरिया की जेनेटिक प्रोग्रामिंग कर कर उसे एक कोशिका में प्रत्यारोपित कर दिया गया। इससे बने जीवाणु की शकल और व्यवहार ठीक वैसा ही निकला जैसा कि वैज्ञानिक चाहते थे। जे. क्रेग वेंटर इंस्टीट्यूट के डा. क्रेग वेंटर की अगुवाई में वैज्ञानिको की टीम ने इससे पहले बैक्टीरिया का सिंथेटिक जीनोम बनाकर उसे दूसरे बैक्टीरिया में प्रत्यारोपित किया था। बाद में इस बैक्टीरिया के जीनोम को एक अन्य बैक्टीरिया में डाला गया था। मगर इस बार डा. वॅटर ने दोनों तरीकों को मिलाकर चार रासायनों की मदद से सिंथेटिक कोशिका बनाई है।
डा. वेंटर के मुताबिक सिंथेटिक डीएनए के जरिए कोशिका पर नियंत्रण पाने के बाद वैज्ञानिक भविष्य में इनके जरिए बीमारियों का मनचाहे तरीके से मुकाबला करने वाली दवाइयां बना सकेंगे। इसके अलावा तेजी से घटते जैविक ईंधन का विकल्प खोजने में भी इन बैक्टीरिया की मदद ली जा सकती है। यहां तक कि ग्रीन हाउस गैसों को सोखने एवं प्रदूषित जल को स्वच्छ करने में भी ये बैक्टीरिया काम आ सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि डा. क्रेग वेंटर वही विवादित वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने एक दशक पहले ही मानव जीनोम को डिकोडिंग करने की तकनीक को ईजाद की थी। अब उनकी इस नई खोज को कलोनिंग के जरिए तैयार की पहली भेड़ डॉली और माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम के बराबर माना जा रहा है। अर्थात कृत्रिम तरीके से ही लेकिन मौत को मात देने की कोशिश में एक नया मील का पत्थर जुड़ चुका है। क्रेक वेंटर की टीम में तीन भारतीय मूल के वैज्ञानिक संजय वाशी, प्रशांत पी. परमार और सुश्रीराधार कृष्ण कुमार शामिल हैं। वैज्ञानिकों का कृत्रिम जीवन बनाने का दावा सफल सिद्ध होता है तो चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति लाई जा सकेगी। सबसे अहम बात यह है कि कैंसर जैसी कई लाइलाज बीमारियों को जड़ से खत्म किया जा सकेगा।
वैज्ञानिकों ने माइक्रोप्लाज्मा सायकोइड्स नामक एक ज्ञात बैक्टीरिया के डीएनए की पूरी संरचना यानी जीनोम का पूरा अध्ययन किया। फिर उस सूचना को एक डीएनए सिंथेसाइजर में डाला गया, जिसमें उस बैक्टीरिया के डीएनए के साथ डीएनए की कुछ छोटी-छोटी लड़ियां बनी। इसके बाद इन लड़ियों को यीस्ट और इ. कोली बैक्टीरिया में प्रविष्ट कराया गया जिसने इन छोटी-छोटी लड़ियों से डीएनए की बड़ी लड़ियां तैयार कर दी। अब इन सभी लड़ियों को जोड़कर पढ़ा गया और वहां निशान लगा दिए गए जहां उस बैक्टीरिया के डीएनए की संरचना में ये नई लड़ियां जुड़ी थी। इस तरह वे डीएनए की बिल्कुल नई प्रतिकृति संरचना या जीनोम तैयार करती थी। अंत में इस कृत्रिम जीनोम को एक-दूसरे बैक्टीरिया में प्रविष्ट कराया गया तो बैक्टीरिया बढ़ने लगे और उसमें कुछ ऐसे थे, जिनमें प्रयोगशाला में निर्मित तया जीनोम भी देखा गया। इस पूरी प्रक्रिया को पूरा होने में एक दशक से भी अधिक का समय लगा एवं लगभग 4 करोड़ की राशि खर्च हुई।
वैसे इस अनुसंधान के दुरुपयोग को लेकर भी आशंकाएं कम नहीं हैं। इस बात का डर है कि जीवन की रचना करने की शक्ति मिलने के साथ ही न सिर्फ तमाम तरह के जैविक युद्ध हो सकते हैं बल्कि मानव की नस्ल के साथ छेड़-छाड़ भी संभव हो सकता है। इसलिए वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का कहना है कि यह सुनिश्चित करना होगा कि इसके कोई गलत इस्तेमाल न हो पाए। वैसे डा. वेंटर ने स्पष्ट किया कि यह अनुसंधान केवल साकारात्मक एवं लाभदायक पक्षों को ध्यान में रखकर ही किया गया है।
इनविट्रो फर्टिलाइजेशन
जंतु शरीर के बाहर किसी कल्चर पात्र में अंड और शुक्राणु के संयोग व इससे जायगोट बनने की प्रक्रिया को इनविट्रो फर्टिलाइजेशन कहते हैं। इसके लिए स्वस्थ्य नर और मादा जंतुओं से क्रमशः शुक्राणु और अंड प्राप्त करते हैं। फिर उपयुक्त दशाओं में संकलित करके उनसे जायगोट उत्पादित करते हैं। कुछ समय तक इन जायगोट का पात्र कल्चर करके तरूण भ्रूण प्राप्त करते हैं। इसे अंततः स्वस्थ्य एवं उपयुक्त मादाओं के गर्भाशय में प्रतिरोपित किया जाता है जिसे भ्रूण प्रतिरोपण या एम्ब्रयो ट्रांस्पलांटेशन कहा जाता है।
यह तकनीक नई नहीं है, लेकिन इस समय भारत में किराये के कोख के बढ़ते चलन के मद्देनजर इनविट्रोफर्टिलाइजेशन विशेष चर्चा में है। वैसे भारत में कानून इनविट्रोफर्टिलाइजेशन पद्धति से बच्चों को पैदा करने की इजाजत नहीं देता है। दूसरी ओर यह समस्या इसलिए भी गंभीर है कि भारत में किराये की कोख का इस्तेमाल भारतीयों से कहीं अधिक विदेशी कर रहे हैं। दरअसल भारत में इनविट्रो फर्टिलाइजेशन की पद्धति से औलाद प्राप्त करना अमेरिका और यूरोप से सस्ता एवं सुरक्षित है। इस तरीके से बच्चे प्राप्त करना भारत के मुबंई और गुजरात में उद्योग का दर्जा हासिल कर चुका है और इसका फैलाव अन्य प्रांतों में हो रहा है। फिलहाल भारत में किराये की कोख का बाजार एक हजार करोड़ से लेकर पांच हजार करोड़ रुपयों के बीच है।
समस्या यह है कि किसी स्पष्ट कानून के अभाव में विदेशी भारत आकर इन विट्रो फर्टिलाइजेशन तकनीकी के अंतर्गत किराये की कोख से बच्चों का सुख तो प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु भारतीय कानून की उलझनों की वजह से वे अपने बच्चों को अपने देश नहीं ले जा पाते हैं। सबसे बड़ी परेशानी बच्चों की नागरिकता को लेकर है। इनविट्रोफर्टिलाइजेशन की पद्धति से पैदा बच्चे की नागरिकता को रेखांकित या परिभाषित करना बेहद मुश्किल होता है। इसके कारण बच्चे का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। इन उलझनों को देखते हुए ही 15 जुलाई, 2010 को 8 यूरोपीय देशों जर्मनी, फ्रांस, पोलैण्ड, चेक गणराज्य, इटली, नीदरलैंड, वेल्जियम और स्पेन ने इनविट्रो फर्टिलाइजेशन पद्धति से बच्चा पैदा करवाने वाले भारत के डॉक्टरों से कहा है कि उनके वाणिज्य दूतावास की सहमति के बिना उनके नागरिकों को किराये की कोख की सुविधा उपलब्ध नहीं करवायें।
जैव प्रौद्योगिकी पार्क
जैव प्रौद्योगिकी पार्क का उद्देश्य एक जैव प्रौद्योगिकी औद्योगिक क्लस्टर के निर्माण के माध्यम से उत्पाद विकास और नवाचार को सरल बनाना और अनुसंधान तथा नवाचार में सशक्त आधार रखने वाले जैव प्रौद्योगिकीविदों और उद्यमियों को तैयार करना है। केन्द्र और राज्य सरकार, दोनों सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से जैव प्रौद्योगिकी पार्को, इन्क्यूबेटरों की स्थापना के साथ-साथ प्रायोगिक परियोजनाओं के द्वारा देश में जैव प्रौद्योगिकी गतिविधियों को बढ़ावा देने का भरपूर प्रयास कर रही हैं। यह देश में जैव प्रौद्योगिकी के व्यावसायिक विकास को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है जिससे नए उद्यामों को प्रोत्साहन और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की स्टार्टअप कंपनियों को बल प्रदान किया जा सके।
जैव कृषि एवं जैव उवर्रक
हरित क्रांति में कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के प्रचुर मात्रा में उपयोग के हानिकारक प्रभाव अब सामने आ रहे हैं। इसलि जैविक खेती के प्रति आकर्षण उन इलाकों में ज्यादा दिखाई पड़ रहा है जो हरितक्रांति के वाहक रहे हैं। इनमें पंजाब अग्रणी था, लेकिन पिछले दिनों विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र के एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी कि पंजाब के किसानों के खून में भी रासायनिक उर्वरक और कीट नाशकों के तत्व फैल चुके हैं। और हरियाणा के कई क्षेत्रों में पानी तीन सौ फीट नीचे तक प्रदूषित हो गया है। अन्य प्राकृतिक संसाधन भी नष्ट हुए हैं। यहां तक कि पांच वर्ष पूर्व जितनी उपज प्राप्त करने के लिये अब तब की लगभग दोगुनी मात्रा में खाद डालन की जरूरत पड़ने लगी है। इससे मिट्टी की जैविकता निरंतर कम होती गयी है और अब घटकर मात्र 0.2 प्रतिशत रह गयी।
क्या है जैव कृषि ?
यह कृषि की वह पद्धति है जिसमें पर्यावरण को स्वच्छ तथा उसमें संतुलन बनाये रखकर मिट्टी, जल और वायु को बिना प्रदूषित किये जमीन को स्वस्थ एवं सक्रिय रखकर दीर्घकालिक स्थिर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रणाली में रसायनों और उर्वरकों का उपयोग कम से कम तथा बहुत आवश्यक होने पर ही किया जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से खेती की यह प्रणाली रासायनिक खेती की यह प्रणाली रासायनिक खेती की अपेक्षा सस्ती और टिकाऊ है। जैव कृषि में मिट्टी को जैविक माध्यम माना जाता है न कि भौतिक माध्यम और उत्तरीरक्षा को आवश्यक माना जाता है। अन्यथा विक्षोभ उत्पन्न हो जायेगा। सस्यचक्र प्रणाली, जैवउर्वरक वर्मीकंपोस्ट, रासायनिक उर्वरकों का संतुलित प्रयोग, जैव कीटनाशी आदि जैव कृषि प्रणाली के महत्वपूर्ण घटक हैं। इस आधार से देखने पर यह साफ होता है कि रासायनिक कृषि प्रणाली निरंतर बनी रहने वाली प्रणाली नहीं है इसीलिये इस बात पर बल दिया जा रहा है कि पौधों के पोषण के लिये रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करके जैविक पोषण को वरीयता दिया जाये। वस्तुतः जेव कृषि को तीसरी हरित क्रांति एवं सदाबहार कृषि क्रांति के रूप में देखा जाना चाहिये। परंतु इन सबके बीच इस बात का पर्याप्त ध्यान रखना होगा कि उत्पादन के स्तर और प्रगति की दर बनी रहे।
जैव उर्वरक
टिकाऊ खेती के लिये आवश्यक है कि उत्पादन प्रक्रिया में पुनर्नवीकरणीय स्रोतों का उपयोग हो जिससे पारिस्थितिकीय संतुलन को बरकरार रखते हुए पर्यावरणीय क्षति को कम किया जा सके। रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैव उर्वरकों का प्रयोग इस दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। जैव उर्वरक सूक्ष्म जीवाणुयुक्त टीका है जो वायुमंडल से नाइट्रोजन के योगिकीकरण द्वारा एवं फास्फोरस को अघुलनशील से घुलनशील अवस्था में करके कार्बनिक पदार्थों का विघटन तीव्रगति से करता है। इसके अलावा वोसिकुलर एरबसकुलर माइकोराजा पौधों की वृद्धि, मृदा की उर्वरता और उत्पादकता को बढ़ाता है। जैव उर्वरकों का मूल स्रोत मृदा तथा जल है। कृषि वैज्ञानिकों को एक वर्ग रासायनिक उर्वरकों एवं जैव उर्वरकों के संतुलित उपयोग के पक्ष में हैं तथा इसके लिये समन्वित पादप पोषक तत्व आपूर्ति प्रणाली की परिकल्पना की है। इस परिकल्पना को क्रियात्मक रुप प्रदान करने के लिये पोषक तत्वों के रासायनिक स्रोत के साथ ही निम्नलिखित पदार्थों का भी प्रयोग करते हैं:
- फसल अवशेष
- पुनर्चकित अपशिष्ट
- कार्बनिक खाद (हरीखाद)
- शहरी तथा ग्रामीण व्यर्थ पदार्थ
- प्राकृतिक खनिज पदार्थ
- जैव उर्वरक
प्रमुख जैव उर्वरक निम्नलिखित हैं:
राइजोबियम
मिट्टी में पाये जाने ऐसे जीवाणु जो दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियां निर्मित करते हैं, उन्हें क्लोएवर व शोथ (1978) मूलीय जीवाणु का राइजोबैक्टीरिया नाम दिया है। ये हल्के लाल अथवा गुलाबी रंग के होते हैं, तीव्रगति से बढ़ते हैं तथा कुछ अम्ल भी निर्मित करते हैं। ऐसे राइजोबियम नाम से जाना जाता है। भारत में उगाई जाने वाली सामान्य दलहनी फसलों में केवल सोयाबीन ही ऐसी फसल है जिसकी जड़ों में ग्रंथीकरण ब्रेडीराइजोबियम द्वारा होता है। शेष अन्य दलहनी फसलों के लिये राइजोबियम उपयोगी है। भारत की परंपरागत दलहनों, जैसे-चना, मटर, अरहर, मसूर, उड़द, मूंग, लोबिया, मूंगफली आदि के राइजोबियम प्रायः मृदा में मौजूद होते हैं। दलहनों में, यदि जड़ों में ग्रंथियां अच्छी तरह बन जायें तो इन फसलों की आधे से तीन-चौथाई नाइट्रोजन की आवश्यकता ग्रथिय में होने वाली वायुमंडलीय नाइट्रोजन के योगिकीकरण से पूरी हो जाती है। इस तरह नाइट्रोजन उर्वरक की एक ओर बचत होती है। तो दूसरी ओर मृदा नाइट्रोजन में बढ़ोतरी की संभावना होती है। दलहन से मृदा संरचना में भी सुधार होता है।
फ्रैंकिया
एक दर्जन से ज्यादा ऐसे अदलहनी पौधे हैं जिनमें भी जड़ों पर गांठें बनती हैं। इनका निर्माण प्रकिया नामक किरण फंफूद (एम्टी नोमाइसीट्स) द्वारा होता है। इस तरह के पौधे कृषि से संबंधित न होकर वनों से संबंधित हैं अतः संवर्धन (कल्चर) द्वारा इनसे लाभ उठाया जा सकता है।
फॉस्फोबैक्टरिन तथा माइकोराजा
फॉस्फोबैक्टरिन कल्चर अघुलनशील फॉस्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर देता है। इससे पौधों में फॉस्फोरस की कमी के लक्षण कम या दुर हो जाते हैं। इसके साथ कई अन्य जीवाणु जैसे स्यूडोमोनास स्ट्रियाटा या कई फंफूदिया जैसे एस्परजिलस नाइजर भी फॉस्फोरस को घुलनशील बनाने में सहायक हैं।
माइकोराजा एक विशेष प्रकार की फफूंदी है जो पौधों की ऊपरी सतह पर जाल जैसा बनाती है जो कुछ जड़ों के अंदर प्रवेश कर जाती है। जड़ों से संबंधित होते हुए भी ये मिट्टी में बहुत गहराई तक पहुंच जाती हैं और वहां जड़ों से संबंधित होते हुये भी ये मिट्टी के गहरे भाग से ये पादप पोषक तत्व, विशेषकर फॉस्फोरस तथा जल प्राप्त कर पौधों के पोषण में सहायक होती हैं। एंडोगोन कोमा, राइजोक्टोनिया तथा अरमिलैरिया उस तरह के माइकोराइजा हैं जो जड़ों के भीतर कार्य करते हैं।
ऐजोटोबैक्टर, एजोस्पिरिलम, बैरिंकिया क्लॉस्ट्डियम तथा डर्कसिया
ये सभी जीवाणु मिट्टी में पाये जाते हैं तथा बिना पौधे की सहायता से भी वायुमंडल की नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करते हैं। जीवाणु उर्वरकों की दृष्टी से अभी एजोटोबैक्टर एवं एजोस्पिरिलियम का उपयोग अधिक प्रचालित है। इनका उपयोग सभी फसलों के लिये किया जा सकता है डर्कसिया को कल्चर के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। बैरिकिया गन्ने की जड़ों पर प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। क्लासट्रिडियम धान के लिये ज्यादा उपयुक्त हैं।
एजोला तथा नील हरित शैवाल
नील हरित शैवाल सूक्ष्मजीवों का एक महत्वपूर्ण समुदाय है। इनमें नाइट्रोजन यौगिकीकरण की क्षमता विद्यमान होती है। ये अपने आप में संपूर्ण होते हैं, क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करके कार्बन का यौगिकीकरण तो करते ही हैं, साथ ही नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करके पूर्ण रूप से स्वयंपोषी हो जाते हैं। ऐजोला आकार में छोटा पौधा है तथा स्पंज की तरह दिखाई पड़ता है। इसमें भी नाइट्रोजन यौगिकी करण की क्षमता होती है। ये दोनों जैव उर्वरक धान की खेती के लिये विशेष लाभ दायक हैं तथा ये ऐसे जैव उर्वरक हैं जिनको कृषक भी विकसित कर सकते हैं।
कंपोस्ट
जैविक तथा औद्योगिक अपशिष्ट प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहते हैं। इन्हें पौधों के पोषण हेतु कंपोस्ट में बदला जा सकता है। इससे एक ओर उर्वरकों पर निर्भरता कम होगी दूसरी ओर बढ़ते प्रदूषण से भी बचा जा सकता है। कंपोस्ट तैयार करने में सूक्ष्म जीवाणुओं की विशेष भूमिका होती है। ये कचरे, गोबर व शहर से उपलब्ध विष्ठा से बनाये जाते हैं। कंपोष्ट बनाने की दो प्रचलित विधियां हैं - नाडेव कंपोस्ट विधि एवं बंगलौर कंपोस्ट विधि |
वर्मीकल्चर
केंचुओं का कृत्रिम पर्यावरण में पालन-पोषण 'वर्मी कल्चर' कहलाता है। अनुसंधानों से सिद्ध हो चुका है कि केंचुओं द्वारा निर्मित खाद साधारण कंपोस्ट से अधिक उपयोगी होती है। केंचुए अपने आहार के रुप में मिट्टी तथा कच्चे जीवांश को निगलकर अपनी पाचन नलिका से गुजारते हैं। दूसरे माध्यम से वे गंदे पदार्थ को कार्बनिक उर्वरक में बदल देते हैं।
पलवार
खेत से निकले फसल के अवशिष्टों, नीदे तथा खरपतवार आदि का उपयोग पलवार के रुप में करने से मिट्टी की क्षमता मे वृद्धि होती है। इससे पौध पोषण तथा उत्पादन प्रणाली को लाभ पहुंचता है।
भारत में जैव उर्वरकों का उत्पादन
भारत में जैव उर्वरकों का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन वर्ष 1964 में सोयाबिन उत्पादन के प्रारंभ साथ शुरू हुआ। वर्तमान में 62 इकाइयां इसके उत्पादन में लगी हुई है। इसके अलावा कृषि विश्वविद्यालयों में भी छोटे स्तर पर जैव उर्वरक उत्पादन का कार्य हो रहा है। राज्यवार देखा जाय तो सर्वाधिक उत्पादन तमिलनाडु में होता है उसके बाद कम्रशः महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा गुजरात हैं।
जैव उर्वरक के प्रचार-प्रसार में सहकारिता की भूमिका
इफ्को ने 1967 से ही जैव उर्वरकों के प्रयोग पर बल दिया है। नफेड एक सहकारी समिति है जिसे जैव उर्वरकों के प्रयोग पर बल दिया है। नफेड एक सहकारी समिति है जिसे जैव उर्वरक उत्पादन तथा वितरण का जनक माना जाता है। इफ्को तथा कृभकों ने भी जैव उर्वरक उत्पादन तथा विपणन का कार्य प्रारंभ कर दिया है। इफ्को ने वर्ष 1990 से जैव उर्वरक पर आधारित प्रक्षेत्र प्रदर्शन कार्यक्रम प्रारंभ किया है। पश्चिम बंगाल को एक जैव उर्वरक प्रदेश के रुप में अंगीकृत किया जा चुका है जहां बड़े पैमाने पर जैव उर्वरक प्रदर्शन कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।
जैव उर्वरकों के उत्पादन और संवर्द्धन की राष्ट्रीय योजना
केंद्र सरकार की 'जैव उर्वरकों के उत्पादन और संवर्द्धन की राष्ट्रीय योजना' के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के जैव उर्वरकों की नयी उत्पादन क्षमता स्थापित करने, इसे बढ़ावा देने तथा गाजियाबाद स्थित 'राष्ट्रीय जैव उर्वरक विकास केंद्र और नागपुर, जबलपुर, हिसार, भुवनेश्वर, बंगलौर तथा इम्फाल स्थित प्रादेशिक केंद्रों के जरिये इन उर्वरकों के गुणवत्ता नियंत्रण के लिये सहायता प्रदान की जाती है। देश में अभी लगभग 125 जैव उर्वरक उत्पादन इकाइया हैं, जिनकी विभिन्न प्रकार के जैव उर्वरकों की वार्षिक उत्पादन क्षमता 18,000 टन है। दसवीं पंचवर्षीय योजना की शेष अवधि के लिये यह योजना जैवीय खेती पर आधारित एक नई राष्ट्रीय परियोजना में समाहित कर दी जायेगी।
सस्यचक्र
एक ही फसल को बार-बार बोने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम होती है तथा फसल पर कीट और रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है। सस्यचक्र, मिश्रित फसल एवं बहुस्तरीय फसल प्रणाली इन समस्याओं से बचने का अच्छा तरीका है। फसल चक्र अपनाने से उत्पादन में स्थिरता, संतुलन, अधिक आर्थिक लाभ, श्रम विभाजन तथा कम से कम जोखिम होता है। यदि दलहन-अनाज, दलहन-तिलहन अंतरवर्ती फसल या मिश्रित फसल उगाई जाये तो उर्वरकों पर निर्भरता कम होगी।
जैवकीटनाशी
पादप रोगों के निवारण के लिये जैव कीटनाशी अधिक स्थायी होती है तथा इसके उपयोग से प्रदूषण की समस्या भी नहीं आती। इसके अंतर्गत जैवनियंत्रण पद्धति तथा पौधों से प्राप्त जैवकीटनाशी से उपयोग में लाते हैं। जैविकनियंत्रण विधि में जैविक नियंत्रण कारकों के रुप में ऐसे सूक्ष्म जीवों को प्रयोग में लाया जाता है जो कीट, कवक अथवा जीवाणु जैसे रोगजनकों के क्रिया-कलापों को नियंत्रित कर सकें तथा पौधों को उनके प्रकोपों से बचा सकें और उन्हें रोग ग्रस्त न होने दें। पौधों से प्राप्त जैव कीटनाशी अधिकांशतः एक से अधिक रासायनिक पदार्थों के समूह होते हैं जिसके द्वारा कीटों द्वारा इनके विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न करने की संभावना बहुत कम होती है।
एंडोसल्फान विवाद
एंडोसल्फान साइक्लोडीन उपसमूह का एक क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन कीटनाशी है। यह विभन्न प्रकार के कीटों एवं घुनों को लिए सम्पर्क विष के रूप में कार्य करता है। इसका प्रयोग प्रमुख रूप से खाद्य फसलों जैसे चाय, फल, फलीदार सब्जियों के बचाव के लिए तथा लकड़ियों के परिरक्षण के लिए भी किया जाता है। एंडोसल्फान के व्यावसायिक नामों में थियोडान, एंडोसाइड, बेओसिट साइक्लोडान, मेलिक्स, थिमुल एवं थिमोर शामिल हैं। कीटनाशी एंडोसल्फान का प्रयोग भारत में बहुत पहले से होता रहा है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा एंडोसल्फान निर्माता देश है और एंडोसल्फान के वैश्विक कारोबार में 70 फीसदी से अधिक हिस्सा भारतीय कंपनियों के पास है। परंतु इस पर प्रतिबंध की वैश्विक मांग काफी समय से होती रही है। हाल के वर्षों में भारत में इस पर प्रतिबन्ध की मांग ने काफी जोर पकड़ लिया, जब वर्ष 2003 में केरल के कासरगड में कुछ लोग इसके कारण बीमार हो गये। यूरोपीय संघ, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि समेत 84 देशों ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया है परंतु आर्थिक क्षति का हवाला देते हुए भारत ऐसे किसी भी प्रतिबंध का विरोध करता है। अप्रैल, 2011 में सतत जैविक प्रदूषकों के स्टॉकहोम कन्वेन्शन की पांचवीं बैठक में इस रसायन को प्रतिबंधित सूची में शामिल कर लिया गया, हालांकि भारत को एक वर्ष का समय अवश्य मिल गया है, साथ ही भारत को कुछ शर्तों के अधीन 22 फसलों पर पांच वर्षों के लिए एंडोसल्फान के प्रयोग की अनुमति भी मिल गई है।
पीजीपीआर
पादप वृद्धिवर्धक भूमीय जीवाणु अथवा पीजीपीआर पौधों की जड़ों के पास मृदा में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव हैं तथा पौधों को वृद्धि प्रदान करते हैं। इसके साथ ही ये प्रतिजैविक पदार्थ एवं साइडो फोर भी निर्मित करते हैं जो रोगजनक कवकों व जीवाणुओं की गतिविधियों का दमन करके पौधों को रोग से बचाते हैं।
परभक्षी और परजीवी कीट
परभक्षीकीट, कीटों को पकड़कर पहले काटते हैं और फिर खाते हैं। परजीवी कीट, कीटों पर या अंदर रहकर अपना जीवनयापन करते हुए उन्हें धीरे-धीरे मार देते हैं। कपास के बॉल वर्म के विरूध ट्राइकोग्रामा जातियां, सिट्स अंगूर, कॉफी, आम के मिलीबग के विरुद्ध परजीवी- लेप्टोमोस्टिंग्स टैक्टोलोपी और परभक्षी लेडीबिर्ड भृंग, गन्ने के शल्ककीट के विरुद्ध परभक्षी लेडीबर्ड भृंग, गन्ने के विभिन्न बेधकों के विरुद्ध ट्राइकोग्रामा जेपोनिकम तथा नारियल की काले सिर की सूंडी के विरुद्ध परजीवी ब्रेकम ब्रीब्रीशेर्निस तथा परजीवी पेरासीटोला निकेन्टिडिस सफल पाये गये हैं।
सूक्ष्मजीव
सूक्ष्मजीवों से उत्पन्न रोगों से नाशक कीटों का नियंत्रण किया जाता है। इनमें वायरस, बैक्टीरिया, प्रोटोजोआ, कवक और सूत्रकृमि प्रमुख हैं। सूक्ष्मजीवों से नाशककीट दो तरह समाप्त होते हैं। प्रथम सीधा संक्रमण और द्वितीय कुछ सूक्ष्मजीवी आविस (टॉम्सिम) उत्पन्न करते हैं और जिसके कीट में अंतःक्षिप्त होने से कीट की मृत्यु हो जाती है। बेसिलस थुरिनजिएन्सिस नामक बैक्टीरिया को लेपीडोप्टेरा, हाइमेनोप्टेरा, आर्थोप्टेरा कोलियोप्टेरा डिप्टेरा आदि गणों के कीटों के विरुद्ध सफलतापूर्वक प्रयुक्त किया गया है। बेसिलस पोपिली नामक बैक्टीरिया को सफेदलट के विरुद्ध प्रभावी पाया गया है। ग्लूजियापायरोस्टी नामक प्रोटोजोआ को यूरोपीय तनावेधक तथा ग्लूजियाफ्यूमीफरना नामक प्रोटोजोआ को स्प्रूस वडवर्म के विरुद्ध सफलता पूर्वक उपयोग में लाया गया है।
वानस्पतिक जैव कीटनाशक
पौधों से प्राप्त ऐसे प्राकृतिक यौगिक जिनमें कीटनाशक गुण होते हैं वानस्पतिक जैव कीटनाशक कहलाते हैं। नीम, गुलदाउदी, शरीफा, महुआ, करंज, प्लम्बोजिन, एकीरेंथीज, कनेर, डेरिस, जाटीनिया, लहाना आदि अनेक पौधों से प्राप्त होने वाले रसायनों में कीटनाशक अथवा वृद्धि निरोधक अथवा भरण निरोधक गुण पाये गये हैं। नीम (अजाडिरेक्टा इंडिका) के सभी भाग में जैव कीटनाशी गुण होते हैं। इसमें से सर्वाधिक मात्रा नीम के बीजों से प्राप्त होती है। इसमें बहुत से जैव कीटनाशी रासायनिक पदार्थ उपस्थित होते हैं, जैसे अजाडिरेक्टिन, निम्बिन, सेलेनिम, निम्बिडिन, मेलिनट्राल तथा सेलेलॉल आदि। इन सभी पदार्थों में अजाडिरोमी (C35HssO16)सबसे महत्वपूर्ण हैं।
जीएम फुड्स एवं बीटी ब्रिजल विवाद
जेनेटिकली मॉडीफयड फुड्स भारत में एक बार फिर चर्चा में है। इस बार चर्चा एवं विवाद बीटी बैंगन या ब्रिजल को लेकर था। बीटी बैंगन एक प्रकार का ट्रांसजैविक पौधा है। बीटी बैगन मृदा में पाए जाने वाले बैक्टीरिया बैसिलस थुरिनजिएनसिस के क्राई 1AC(cxy 1AC) नामक जीन से युक्त है, जो कीटों के लिए प्रतिरोधक तो हैं ही साथ ही यह कीटनाशकों का प्रयोग भी कम करने में सक्षम है। बीटी ब्रिजल जेने टिकली मॉडीफॉयड फसल है। इसे भारत की सबसे बड़ी बीज निर्माता कंपनी महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्स कंपनी ने बहुर्राष्ट्रीय अमेरिकी कंपनी मानसेंटो के साथ विकसित किया है।
जीएम प्रजाति को लेकर विशेषज्ञों में भारी मतभेद के बावजूद जिनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी ने अक्टूबर, 2009 में इसकी आम खेती की सिफारिश की थी। मगर इसके विरुद्ध पर्यावरणविद्वो और कृषकों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन प्रारंभ कर दिया। बीटी बैंगन के विरोधियों का तर्क है कि जिन खाद्य पदार्थों के जीन में बदलाव किया गया है, उनसे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंच सकता है। यहां तक कि बीटी बैंगन पर प्रयोगात्मक रूप से जिन चूहों का उपयोग किया गया था उनके स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव देखा गया। फिर बैंगन की मूल उत्पत्ति भारत में मानी जाती है, बीटी बैगन यहां की मूल प्रजाति को नष्ट कर सकती है। पयावरणविद्दों ने यह आशंका भी व्यक्त किया है कि निषेचित जीन अपने कार्य से इतर कार्यवाई कर सकता है, जिस कारण अन्य पौधों को भी नुकसान पहुंच सकता है। उपरोक्त पक्षों और देशभर में इसके खिलाफ प्रदर्शन को देखते हुए 9 फरवरी, 2010 को वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश निम्नलिखित कारणों से बीटी ब्रिजल के भारत में खेती पर अस्थायी तौर पर रोक लगाने की घोषणा की-
- सुरक्षा एवं परीक्षण प्रक्रिया पर प्रश्न उठना।
- वैज्ञानिकों के बीच मतैक्य का अभाव।
- दस राज्यों की सरकारों द्वारा विरोध, विशेषकर बैगन का मिश्रित उत्पादन करने वाले राज्य ।
- एक स्वतंत्र जैव प्रोद्योगिकी विनियामक प्राधिकरण का अभाव।
- नाकारात्मक लोक भावना और विरोध प्रदर्शन।
- वैश्विक प्रयोग का अभाव क्योंकि, बीटी, बैगन पहली खाद्य जीएम फसल है।
- उपभाक्ताओं में भय और आतंक
बैसिलस थुरिनजिएनसिस
बैसिलस यूरिनजिएनसिस एक भूमिगत बैक्टीरिया है। यह बैक्टीरिया बीजाणु जनन के दौरान एन्डोप्रोटीन नामक क्रिस्टलीकृत प्रोटीन बनाना है जो अनेक कीटाणुओं जैसे, दीमक, ऍफिडों, चींटियों, भृगों, तितलियों आदि को नष्ट कर देता है। बीटी के कुछ विभेद पादप और पशुओं पर निर्भर करने वाले कृमियों, पौधों, प्रोटोओआ और तिलचट्टों को भी नष्ट कर देता है। इसी विशिष्ट लक्षण के कारण बीटी नामक बैक्टीरिया कृषि के क्षेत्र में उपयोगी है। अबतक बीटी के 80 से अधिक वैक्सिन पैदा करने वाले सीआरवाई जीन खोजे जा चुके हैं एवं इसकी मदद से 45 से अधिक व्यापारिक फसलों की परजीवी कीटरोधी किस्में विकसित की जा चुकी है। बीटी की खोज जापानी वैज्ञानिक ईशीवाटा ने 1902 में की थी।
जीएम फसलों की उपयोगिता
जीन संर्वद्धित फसलों को संक्षिप्त रूप में जीएम फसलें कहा जाता है। इस प्रकार की फसलों का विकास जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा संभव हो पाया है। इस तकनीक के द्वारा फसल के उन जीन या जीनों को प्रतिरोपित किया जाता है, जो फसल को हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाते है। इसमें प्रोटीन, वसा के अतिरिक्त उपलब्धता के अलावा फसल को कीट एवं रोग प्रतिरोधक बनाया जाता है। इनमें सूखा झेलने और उच्च पोषकता देने की क्षमता भी होती है। वैश्विक स्तर पर जीएम फसलों के प्रति कृषकों का रुझान बढ़ा है। भारत में अनाज भंडारण गृहों की कमी तथा शीत गृहों में अनियमित विद्युत आपूर्ति के कारण फल, फूल और सब्जियों को संरक्षित नहीं रखा जा सकता। साथ ही सूखे का भी प्रभाव पड़ता रहता है। यहां के वातावरण कीटों आदि से भी फसलों को काफी नुकसान पहुचंता है। ऐसी स्थिति में यदि जीनों में फेरबदल कर इन फसलों को रोगमुक्त एवं अधिक देर तक टिकाऊ, ताजा और संरक्षित बना दिया जाए तो किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं को भी लाभ होगा। जीएम फसलों की कृषि हेतु बीजों की उत्पादन की अनुमति कृषि मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी देती है। इस कमेटी द्वारा अभी तक केवल बीटी कपास की खेती की अनुमति दी गई है। साथ ही बीटी बैंगन को लेकर हालिया विवाद तो चल ही रहा है। इसके अतिरिक्त चावल, मक्का, आलू गोभी आदि 13 सब्जियों और खाद्यान्नों का क्षेत्र परीक्षण किया जा रहा है।
जैविक आतंकवाद
जैविक हथियार प्राकृतिक तौर पर विद्यमान तथा प्रयोगशाला में विकसित और उत्पादित की जा सकने वाले वे सूक्ष्म अवयव हैं, जो मानव शरीर या पशु-पक्षियों के शरीर में प्रवेश करके रोग पैदा कर सकते हैं तथा वनस्पतियों या फसलों को नष्ट कर सकते हैं। ये जैविक हथियार विषाणु, कवक या प्रोटोजोआ युक्त हो सकते हैं। इन जैविक तत्वों का उत्पादन, पुनर्उत्पादन और संवर्द्धन करना काफी आसान होता है तथा इन्हें एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में हवा जल संक्रमण व पशु-मानव संक्रमण द्वारा तेजी से फैलाया जा सकता है। परम्परागत सैन्य हथियारों की तुलना में जैविक और रासायनिक हथियारों की घातकता इसलिए अधिक होती है कि जिन लोगों पर इन हथियारों से हमला किया जाता है वे इनसे सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं तथा उनके पास इनसे बचाव का कोई उपाय भी नहीं होता।
नाभिकीय बमों की तुलना में जैविक हथियारों के निर्माण में प्रयुक्त संसाधन और औजार काफी सस्ते होते हैं तथा आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं। इस कारण ही इन हथियारों को 'गरीबों का नाभिकीय बम' भी कहते हैं। इस प्रकार ये हथियार किसी अन्य हथियार से अधिक खतरनाक सस्ते, आसानी से निर्मित, वितरित करने योग्य तथा व्यापक संभावनाओं वाले होते हैं। जैविक हथियारों के इस्तेमाल का मुद्दा सबसे पहले खाड़ी युद्ध के दौरान सामने आया, जब अमेरिकी अधिकारियों ने संदेह व्यक्त किया कि ईराक पास ऐसे हथियारों का विशाल भंडार है। इसके बाद अन्य कई राष्ट्रों जैसे अमेरिका, लीबिया, सीरिया, उत्तर कोरिया, ईरान, चीन, रूस इत्यादि ने जैविक हथियारों पर कार्य करने के लिए प्रयोगशालाएं स्थापित कीं। हालांकि इन सभी राष्ट्रों ने यह दावा किया कि उनकी रुचि सिर्फ जैविक हथियारों के खतरे से लड़ने के लिए सुरक्षात्मक अनुसंधान करने में है। अनेक जैविक रोगाणु ऐसे हैं जो एक बार वायुमंडल में छोड़ देने पर अनन्त काल तक फलते-फूलते रहते हैं। प्लेग, दुलारेमिया, भ्रंश घाटी बुखार, क्यू बुखार, पूर्वी इन्सेफलाइटिस, एंथ्रेक्स तथा छोटी चेचक कुछ परंपरागत जैविक हथियार हैं। रसायनिक अभिकारकों से अलग जो निर्जीव जीवाणु और विषाणु होते हैं, संक्रामक एवं प्रजनक हो सकते हैं। यदि वे वातावरण में स्थापित हो जाते हैं तो उनकी संख्या अन्य हथियारों के विपरीत अपने आप ही क्रमशः बढ़ने लगती है और तब वे लम्बे समय तक काफी खतरनाक बने रह सकते हैं। कुछ जैविक अभिकारक लोगों को विकलांग बना देते हैं, जबकि कुछ मौत का संदेश लेकर आते हैं। जैविक हथियारों का विस्तार घातक सल्मोनेला, जो अस्थायी रूप से अपंग बना देता है, से सुपर बुबोनिक प्लेग तक होता है जिससे बड़े पैमाने पर लोग मारे जाते हैं। जैविक अभिकारकों का प्रयोग लोगों को मारने या उन्हें विकलांग बना देने में किया जा सकता है। साथ ही, इनसे देश की अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से पेड़-पौधों और जानवरों पर हमला किया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, इबोला विषाणु लगभग एक सप्ताह में ही इसके शिकार हुए 90 प्रतिशत से भी अधिक लोगों को मौत की नींद सुला देता है। इबोला का कोई इलाज या उपचार नहीं है। जैविक हथियारों के अन्तर्गत जीव विष को भी शामिल किया जा सकता है जो मूल रूप से जीवों द्वारा उत्पादित घातक पदार्थ है। जीन अभियांत्रिकी के विकास ने 'डिजाइनर हथियारों का निर्माण सम्भव बना दिया है। इसके द्वारा सूक्ष्म जीवाणुओं में विशेष जीन डालकर उन्हें एन्टीबायोटिक या प्रतिरोधी, विषकारी तथा पर्यावरणीय रूप से स्थिर बनाया जा सकता है। एंथ्रेक्स, बाटुलिज्म, इबोला व गिल्टी प्लेग के वाहक काफी प्राणघातक होते हैं।
जैविक हथियारों की प्राप्ति और प्रयोगः जैविक हथियारों के बारे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन्हें बड़ी आसानी से प्राप्त और विकसित किया जा सकता है। एंथ्रेक्स और बोट्यूलिम्स सामान्य मिट्टी के जीवाणु से प्राप्त किये जा सकते हैं। यद्यपि सन् 1977 के बाद से विश्व में कहीं भी चेचक का कोई रोगी नहीं हुआ है। तथापि इसका वायरस कड़ी सुरक्षा के बीच एटलान्टा तथा मास्को की प्रयोगशाला में सुरक्षित रखा गया है। इसके बावजूद कुछ सिरफिरे लोगों ने अलग से चेचक के वायरस को सुरक्षित रख छोड़ा हो और आवश्यकता पड़ने पर उसका प्रयोग जैविक हथियार के रूप में कर लें। इसका आशय सीधा-सीधा है कि जैविक हथियारों को आसानी से प्राप्त और विकसित करके उनका अनुप्रयोग शत्रु देश के सैनिकों तथा नागरिकों को मारने के लिए किया जा सकता है। माइक्रोबायोलोजी की आधारभूत जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति कुछ हजार डॉलर खर्च करके जैव हथियार प्रयोगशाला स्थापित कर सकता है।
वास्तव में जैविक हथियारों को विकसित कर पाना इतना आसान नहीं है जितना कि प्रचार तंत्र ने बना रखा है, क्योंकि एक व्यवहार्य जैविक हथियार विकास कार्यक्रम हेतु बहुत बड़े पैमाने पर संसाधनों एवं वैज्ञानिक विशेषज्ञता की आवश्यकता पड़ती है जो किसी सरकार के लिए ही सम्भव है। यदि कोई निजी व्यक्ति या समूह अपने स्तर पर जैविक हथियार विकसित करना चाहता है, तो उसे पहले किसी रोगाणु को कल्चर द्वारा अलग करना होगा, फिर उन्हें संवर्द्धित करके हथियार के रूप में प्रयुक्त करने की विधा विकसित करनी होगी। किसी रोगाणु को सुरक्षित रख पाना 'जैविक हथियारों' के प्रयोग का सर्वाधिक कठिनतम कार्य है। यही कारण है कि इन हथियारों को आज तक बड़े पैमाने पर इस्तेमाल नहीं किया गया है।
भारत की तैयारी: हालांकि भारत में किसी प्रकार का जैविक आतंकवादी हमला नहीं हुआ है, फिर भी इसकी आशंका से बचा नहीं जा सकता। विशेषज्ञों के अनुसार कम कीमत तथा आसानी से फैलने के गुण के कारण जैविक हथियारों का प्रयोग आतंकवादियों द्वारा करने की संभावना बढ़ी है। उल्लेखनीय है कि 1 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को जैविक हथियारों का निशाना बनाने में सिर्फ 1 डॉलर खर्च आता है, जबकि इतने ही क्षेत्र में परम्परागत हथियारों से नुकसान के लिए 2 हजार डॉलर खर्च करना पड़ेगा। जैविक हमले की गंभीरता और विनाशकारी प्रभाव को देखते हुए ही भारत सरकार ने राष्ट्रीय निगरानी तंत्र स्थापित करने की योजना बनायी है। इसमें संभावित जैविक आतंकवादी हमले से बचाव के लिए सीमावर्ती राज्यों की निगरानी करने की भी योजना है। राष्ट्रीय संक्रामक रोग संस्थान (छ) इस राष्ट्रीय निगरानी तंत्र का शीर्ष अभिकरण होगी। एक नाभिकीय, जैविक व रासायनिक युद्ध निदेशालय की स्थापना की जा रही है। इसके अतिरिक्त कार्यक्रम की निगरानी के लिए एक अंतर सेवा समन्वय समिति की स्थापना की जा रही है।
ग्वालियर में विष विज्ञान व जैव-रासायनिक औषधि शास्त्र तथा जीवाणु व विषाणु वाहकों के विरुद्ध एंटीबाडी बनाने के क्षेत्र में अध्ययन के लिए सभी प्राथमिक सुविधाएं मौजूद हैं। एंथ्रेक्स, ब्रूसेलोसिस, हैजा, प्लेग तथा छोटी चेचक के जैविक खतरे से बचाव के लिए अनुसंधान जारी है।
सैनिक टुकड़ियों के लिए सुरक्षात्मक वर्दियां निर्मित की गयी है।
विशेषज्ञों के अनुसार हमारे शहरों में जैविक आक्रमण से निबटने के लिए पर्याप्त मात्रा में अस्पताल, डॉक्टर, चिकित्सा कर्मचारी, पुलिस बल नागरिक सुरक्षा कोर मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त अधिकतर प्रतिकारक दवाएं स्थानीय स्तर पर निर्मित की जा सकती हैं। जबकि छोटी चेचक के क्षेत्र में स्थिति विपरीत है। चूंकि भारत से छोटी चेचक का उन्मूलन हो गया है, अतः सभी टीकाएं नष्ट कर दी गयी हैं। यदि छोटी चेचक के विषाणु का आक्रमण होता है, तो मरने वालों की संख्या काफी बढ़ सकती है।
सुझाव
- जैविक युद्ध के आतंक से प्रभावी रूप से निपटने के लिए समन्वित रूप से सूचनाओं एवं संसाधनों का आदान-प्रदान आवश्यक है |
- जब कहीं जैविक हमला होता है, तब यह अति आवश्यक है कि लोगों पर हमला किये गये उन अभिकारकों (एजेंटों) के स्रोत के बारे में सूचना मिले, बचाव के उपायों की रूपरेखा तैयार की जाये तथा सूक्ष्म जीवों के फैलाव द्वारा उत्पन्न चुनौतियों से निपटने के लिए उच्चस्तरीय तैयारी व तत्परता दिखायी जाये।
- आतंकवादी गुटों द्वारा रासायनिक या जैविक हथियारों के विकास या उन पर संभावित नियंत्रण पर रोक लगाने के लिए एक समन्वित अंतर्राष्ट्रीय प्रयास भी समान रूप से महत्वपूर्ण है।
- इस प्रकार के हमलों से बचने के लिए आकस्मिक योजना बनाने तथा एक विस्तृत जन स्वास्थ्य नीति प्रतिपादित करने की आवश्यकता है। इसके तहत औषधियों एवं टीकों के अतिक्रांत स्टॉक की पुनर्पूर्ति करना, एंटीडॉट्स, पुराने पड़ गये व अतिक्रांत उपकरणों को बदलना आदि शामिल हो सकता है।
- रासायनिक या जैविक अधिकारकों को पहचानने व पता लगाने के लिए उपकरणों के विकास हेतु पहल करना, लोगों को संक्रमित या शिकार होने से बचाना, प्रभावित लोगों, उपकरणों एवं क्षेत्रों को विसंदूषित करना और शिकार हुए लोगों को चिकित्सा व उपचार उपलब्ध करना भी आवश्यक है।
- किसी भी रासायनिक या जैविक हमले को रोकने या उसका प्रतिकार करने में सतर्कता और जन विश्वास का अति महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसा सभी सूचना माध्यमों को इस्तेमाल करके एक प्रभावी सूचना अभियान सार्वजनिक व्याख्यान और प्रदर्शन द्वारा रासायनिक एवं जैविक युद्ध में प्रयुक्त अभिकारकों के बारे में मूल सूचना देकर बचाव के उपाय बताकर तथा हमले के विरुद्ध निवारण युक्ति करके संभव बनाया जा सकता है।
इसलिए रासायनिक या जैविक आतंकवाद के हमले की संभावना को शायद हमेशा के लिए समाप्त तो नहीं कर सकते, लेकिन ये गतिविधियां हमें सतर्क और बेहतर उपकरणों से लैस होने के लिए बाध्य अवश्य कर सकती हैं ताकि जरूरत पड़ने पर तुरंत ही कदम उठाया जा सके।
बायोमेट्रिक तकनीक
बायोमेट्रिक तकनीक अर्थात् व्यक्ति के पहचान की अत्याधुनिक वैज्ञानिक पद्धति। बायोमेट्रिक तकनीक पर आधारित पहचान स्थापित करने का सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था का अचूक अस्त्र भी है तथा वर्तमान के नवीनतम वैज्ञानिक एवं उच्च प्रौद्योगिकी के विकास का प्रतिमान भी।
'बायोमेट्रिक' शब्द ग्रीक भाषा के बायो (bio) अर्थात् 'जीवन' तथा मेट्रिक (metric) अर्थात् 'मापना' से मिलकर बना है। 'बायोमेट्रिक' व्यक्ति को उसके शारीरिक एवं व्यवहारिक विशेषताओं, गुण तथा दोष के आधार पर पहचानने, सत्यापित करने तथा मान्यता प्रदान करने की स्वचालित कार्य विधि है। इसके अंतर्गत व्यक्ति के चेहरा, फिंगरप्रिंट, हथेली की रेखाएं तथा नस, लिखावट, रेटिना, आयरिश, ब्लड पल्स (Blood Pulse) तथा आवाज की विशेषताओं की जांच कर पहचान स्थापित की जाती है। वर्तमान में बायोमेट्रिक व्यक्तिगत पहचान एवं सत्यापन सुनिश्चित करने में पूर्ण रूपेण सुरक्षित तथा गहन छानबीन करने वाली कार्य विधि बन कर उभरा है। बायोमेट्रिक पर आधारित पहचान संबंधी तकनीक सुरक्षा तंत्र के लिए व्यवहारिक सुझाव प्रस्तुत करता है। बायोमेट्रिक सिस्टम दो प्रकार से कार्य करता है। प्रथम के अंतर्गत मानव की शारीरिक विशेषताओं से संबंधित आंकड़े एवं आकृति दर्ज करता है। द्वितीय के अंतर्गत मानव व्यवहार के द्वारा विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण एवं मापन किया जाता है। सिस्टम यह कार्य तीन स्तरों पर संपादित करता है। प्रथम स्तर पर मानव के शारीरिक विशेषताओं को उपकरणों की सहायता से एकत्र किया जाता है। दूसरे स्तर पर उन विशेषताओं को आंकड़ों में परिवर्तित कर विशेष प्रकार के सांचे में डिजिटल रूप में दर्ज किया जाता है और एक डाटा बेस तैयार किया जाता है। तीसरे स्तर पर सिस्टम वांछित व्यक्ति के द्वारा प्रस्तुत जानकारी को या शरीर के हिस्सों का इमेज लेकर अपने डाटा बेस में मौजूद जानकारी से मिलान कर अपना निष्कर्ष देता है और इस तरह वांछित व्यक्ति की पहचान अथवा सत्यापन का कार्य पूर्ण होता है। प्रथम एवं द्वितीय स्तर के कार्य तो पहले ही संपन्न कर लिये जाते हैं। तीसरा स्तर तब संपन्न होता है जब व्यक्ति कहीं प्रवेश के लिए उपकरण के समक्ष अपने को प्रस्तुत करता है। बायोमेट्रिक सूचनाएं बहुत कठिनाई से एक उपकरण के माध्यम से एकत्र किया जाता है जिसे 'सेंसर' कहा जाता है। पहचान निर्धारण में जिन आंकड़ों की आवश्यकता होती है सेंसर उसे डिजिटल रूप में दर्ज करता है। किसी पहचान के अच्छे परिणाम प्राप्त करने में सेंसर की क्वालिटी का विशेष महत्व होता है।
उदाहरण स्वरूप चेहरे की पहचान लेने के लिए सेंसर के रूप में डिजिटल कैमरे तथा आवाज के नमूने लेने के लिए टेलिफोन का उपयोग किया जाता है तो कैमरे एवं टेलिफोन उपकरण की उत्कृष्टता बहुत मायने रखती है।
पहचान एवं सत्यापन
मिलान के समय बायोमेट्रिक सिस्टम दो प्रारंभिक विधियों पर कार्य करता है प्रथम है पहचान तथा द्वितीय है सत्यापन सिस्टम पहचान के अंतर्गत बहुत सारे लोगों में से वांछित की पहचान निर्धारित करता है। ऐसा डाटा बेस में डाले गये लोगों की जानकारी में से चुनकर करता है। इसे one to many process (IM) कहा जाता है। सत्यापन के अंतर्गत प्रस्तुत तथा उपलब्ध आंकड़ों में समानता स्थापित करके सत्यापित करता है। इसे वदम जव वदम चतवबमे कहा जाता है। यदि डाटा बेस में व्यक्ति की जानकारी पहले से दर्ज होती है तो यह 'close set Identification' कहलाता है। वचमद मज प्कमदजपपिवंजपवद कभी-कभी इसे जबी सपेज में अग्रसारित कर देता है कि प्रस्तुत व्यक्ति की पहचान डाटा बेस में नहीं है। यह पद्धति यह सुनिश्चित करती है कि व्यक्ति डाटा बेस में है अथवा नहीं। बायोमेट्रिक सिस्टम को निम्नांकित शारीरिक विशिष्टताओं तथा वर्णन से समझा एवं मूल्यांकित किया जा सकता है।
बायोमेट्रिक में पहचान के प्रकार
विभिन्न प्रकार की जरूरतें, वातावरण एवं सोच के आधार पर विभिन्न शारीरिक विशेषताओं एवं मानवीय व्यवहार के नमूने लेकर पहचान की पद्धतियां विकसित की गई हैं। विभिन्न प्रकार के पहचान विधि के विकास का एक कारण और भी हैं कि सुरक्षा में कोई चूक न हो।
चेहरा पहचान विधि
चेहरा पहचान तकनीक चेहरे के विशेष प्रकार के गुणों पर केंद्रित है तथा दो बिंबीय चित्र तैयार करता है। नवीनतम तकनीक में त्री बिंबीय तस्वीर भी प्राप्त की जा रही है। विडियो कैमरा द्वारा चेहरे का इमेज लेकर सांचे में सुरक्षित रख लिया जाता है। बाद में इसका उपयोग प्रस्तुत व्यक्ति के चेहरे से समानता स्थापित करने में किया जाता है। चेहरे संबंधी आंकड़े में आंखों के बीच की दूरी नाक की लंबाई, ठुडी का एंगल आदि प्राप्त किये जाते हैं। चेहरे के अंकन के दूसरे तरीके में चेहरा का पूरा चित्र लिया जाता है। इन तरीकों को विमपहमद बिम उमजीवक कहा जाता है। चेहरे का चित्र लेने की विधि अत्यंत आसान विधि है। डेस्कटॉप पर एक छोटा सा कैमरा एवं कंप्यूटर इसके लिए पर्याप्त है।
फिंगर प्रिंट पहचान विधि
यह विधि अंगुली के ऊपरी भाग के छाप के विश्लेषण पर आधारित है। इस छाप में छोटे-छोटे लकीर एवं छल्ले बने होते हैं। किसी भी दो व्यक्तियों में इन लकीरों और छल्लों की बनावट समान नहीं होतीं और व्यक्ति के जीवन में ये कभी परिवर्तित भी नहीं होते हैं। फिंगर प्रिंट विधि व्यक्ति के पहचान की अचूक विधि है। शरीर की अन्य कोई विशेषताएं परिवर्तित हो सकती हैं परंतु फिंगर प्रिंट कभी नहीं बदलता । फिंगर प्रिंट का अंकन एक मानक फिंगर प्रिंट कार्ड पर किया जाता है या डिजिटल रूप में दर्ज करके आंकड़े इलेक्ट्रॉनिकली ट्रांसफर कर दिये जाते हैं। फिंगर प्रिंट तकनीक व्यवहार में सबसे ज्यादा प्रयोग में लाया जाने वाला तकनीक है। कंप्यूटर एवं लैपटाप भी अब फिंगर प्रिंट के पासवर्ड से संचालित हो रहे हैं। अब इन उपकरणों के संचालन के लिए पासवर्ड टाइप करने की जरूरत नहीं होगी। केवल उंगली से छू लेने से उपकरण सक्रिय हो जाएंगे।
रेटिना पहचान विधि
इस विधि के अंतर्गत आंख के बॉल के पीछे जो पहले पतले ब्लड वेसेल्स होते हैं उसका चित्र लिया जाता है और उसकी आकृति का विश्लेषण किया जाता है। आंख की पुतली के माध्यम से आने वाली प्रकाश की किरणों को यही ब्लड वेसेल्स संशोधित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के ये ब्लड वेसेल्स अपने आप में विशिष्ट होते हैं। यहां तक की जुड़वा व्यक्तियों के ब्लड वेसेल्स की आकृति भी एक समान नहीं होती। यद्यपि रेटिना सामान्य तौर पर व्यक्ति के जीवन भर स्थायी आकृति में रहता है। परंतु कुछ रोगों जैसे- गुलकोमा, डायबिटीज, उच्च रक्त चाप तथा आटोइम्यून डिफिसिसी सिन्ड्रोम में यह प्रभावित हो सकता है। अन्य पहचान तकनीकों की अपेक्षा रेटिना का विशुद्ध चित्र लेना अत्यंत कठिन होता है क्योंकि यह अंग अत्यंत छोटा तथा आंतरिक भाग में स्थित होता है।
चित्र लेते समय किसी भी प्रकार का हलचल नमूना लेने के कार्य को प्रभावित कर सकता है। यह तकनीक अत्यंत विश्वासी एवं शुद्ध तकनीक है। अत्यंत सुरक्षित स्थानों में प्रवेश रोकने के लिए इसका उपयोग होता है जैसे परमाणविक हथियारों वाले डिपो और संबंधित शोध के संस्थान।
आइरिश पहचान विधि
यह विधि इस सिद्धांत पर आधारित है कि दो व्यक्तियों के आइरिस समान नहीं होते और यह फिंगर प्रिंट की अपेक्षा ज्यादा शुद्ध विधि है। वैज्ञानिकों का मानना है कि आइरिश की आकृति जीवन भर स्थायी रहती है इसलिए आइरिश की पहचान जीवन भर पासवर्ड के रूप में किया जा सकता है। यह विधि आइरिश के विशिष्ट गुणों के आधार पर कार्य करती है । आइरिश आंख की पुतली के चारों ओर के रंगीन भाग को कहते हैं। यद्यपि बायोमेट्रिक्स में 13 से 60 विशिष्टताएं दर्ज की जाती हैं, जबकि कहा जाता है कि आइरिस में 266 अनूठे बिंदु होते हैं। जलवायु, मौसम और व्यावसायिक विभिन्नताएं भी आइरिश को प्रभावित नहीं करतीं। सबसे पहले एक छोटा किंतु उच्च क्षमता वाले कैमरे से आइरिश का ब्लैक एंड व्हाइट चित्र लिया जाता है। इसके बाद आइरिश के व्वदमबजपअम जपेनमे जिसे जतं इमबनसंत उमी वता कहा जाता है उसकी विशेषताओं का विश्लेषण कर आष्टीक फिंगर प्रिंट पर दर्ज कर डिजिटल रूप में बदला जाता है । आइरिश पहचान विधि भीड़-भाड़ वाले स्थानों, उच्च खतरे वाले स्थानों में बहुत उपयोगी साबित होता है। इसका उपयोग पासपोर्ट, हवाई सुरक्षा, शारीरिक एवं इलेक्ट्रानिक उपकरणों की सुरक्षा विश्लेषण में भी किया जाता है। भविष्य में अन्य तकनीकियों को साथ मिलाकर इस विधि का उपयोग कस्टम, पर्यटक आगमन, सूचना की सुरक्षा, भवनों में प्रवेश, गाड़ी स्टार्ट करने, फोरेंसिक विज्ञान आदि में पासवर्ड के रूप में किया जा सकता है।
आवाज की सत्यापन विधि
इस विधि के अंतर्गत बायोमेट्रिक सिस्टम व्यक्ति के आवाज के नमूने को डिजिटल रूप में दर्ज करता है। सिस्टम आवाज के प्रत्येक शब्द को एक विशिष्ट स्थिति में लाता है जिसे फारमेंट्स (Formants) कहा जाता है। प्रत्येक शब्द के सेगमेंटस में अनेक टोन होते हैं जिसे डिजिटल फार्मेट में दर्ज किया जाता है। दोनों का समूह ही व्यक्ति के अनूठे आवाज प्रिंट से मिलान स्थापित करता है। वाइस प्रिंट को डाटा बेस में दर्ज कर सुरक्षित रखा जाता है। जब कोई व्यक्ति कहीं प्रवेश के लिए अपनी आवाज सिस्टम के सामने उच्चारित करता है तब सिस्टम में पहले से दर्ज आवाज के नमूने से उसका मिलान किया जाता है और उसे अनुमति प्रदान की जाती है। यह व्यवस्था कम खर्चीली एवं उपयोग में आसान है।
भारत में बायोमेट्रिक तंत्र
भारत में बहु-नमूना पद्धति पर आधारित बायोमेट्रिक व्यवस्था का विकास किया जा रहा है। चेहरा, फिंगर प्रिंट, आयरिश एवं हस्ताक्षर की पहचान पर आधारित तंत्र की जांच-परख तथा डाटा बेस का परीक्षण आईआईटी कानपुर में चल रहा है। इन परिक्षणों में अभी तक 97% तक की शुद्धता प्राप्त हुई है। थ व थ की दर 2.46 तथा 1.23% है।
भारत में अभी तक विभिन्न सुरक्षा एजेंसियां पुरानी पहचान पद्धतियों से ही काम चला रही हैं परंतु अब नयी चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में धीरे-धीरे स्थिर गति से बायोमेट्रिक सिस्टम लागू हो रहा है। संचार एवं सूचना तकनीकी मंत्रालय के सहयोग से आईआईटी कानपुर में इस रिसर्च प्रोजेक्ट पर वर्क चल रहा है। यहां के कुछ बड़े अस्पतालों, दवा कंपनियों में इस तरह की पहचान व्यवस्था लागू है। सरकारी कार्यालयों जैसे- आयकर विभाग में इस तरह के पहचान की व्यवस्था लागू करने पर बात चल रही है।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी
भारत में जैव प्रौद्योगिकी ज्ञान आधारित क्षेत्रों में सबसे तेजी से बढ़ने वाला क्षेत्र है। इसे शक्तिशाली समर्थकारी प्रौद्योगिकी माना गया है जो कृषि, स्वास्थ्य देखभाल, औद्योगिक प्रक्रियान्वयन और पर्यावरणीय स्थायित्व में क्रांति ला सकता है। आज कल इसका बढ़ता प्रयोग विभिन्न किस्म की फसलों के विकास और विशिष्ट रूप से विकसित किस्मों के लिए किया जाता है, नए भेषजीय उत्पाद, रसायन, सौंदर्य प्रसाधनों, उर्वरक का आधिक्य वृद्धि वर्धक, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, स्वास्थ्य देखभाल के उपकरण और पर्यावरण से संबंधित तत्व आदि । भारतीय जैव-प्रौद्योगिकी वर्ग ने वैश्विक मंच पर त्वरित वृद्धि की है। बड़ी संख्या में उपचारिक जैव प्रौद्योगिकीय औषध हैं और टीके हैं, जिनका देश में उत्पादन और विपणन किया जा रहा है और मानव जाति की अपार सहायता की जा रही है।
भारत की पहचान वृद्धि जैव विविधता देश के रूप में हुई है। जैव प्रौद्योगिकी देश की विविध जैव-विज्ञानी संसाधनों को आर्थिक सम्पन्नता और रोजगार के अवसरों में परिवर्तित करने के लिए मार्ग प्रदान करता है। अनेकानेक कारक हैं जो जैव-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशिष्ट क्षमता विकसित करने के लिए प्रेरणा सृजित करते हैं। वे हैं; वैज्ञानिक मानव संसाधन का विशाल भंडार अर्थात वैज्ञानिकों और अभियंताओं का एक मजबूत समूह, किफायती विनिर्माण क्षमताएं, अनेक राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाएं, जिसमें हजारों वैज्ञानिकों को रोजगार मिला हुआ है, जैव विज्ञान में अकादमी उत्कृष्टता के केन्द्र, अनेकानेक मेडिकल कॉलेज, शैक्षिक और प्रशिक्षण संस्थान, जो जैव प्रौद्योगिकी में डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करते हैं, जैव सूचना विज्ञान और जीव विज्ञानी विज्ञान, असरदार औषध और भेषज उद्योग तथा तेजी से विकसित होती उपचारात्मक क्षमताएं।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी), विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्रक के विकास के लिए शी प्राधिकरण है। इसकी स्थापना देश में विभिन्न जैव प्रौद्योगिकीय कार्यक्रमों और क्रियाकलापों की योजना बनाने संवर्धन करने और समन्वयन करने के लिए की गई है। यह राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाओं, विश्वविद्यालयों और विभिन्न क्षेत्रकों में अनुसंधान बुनियादों, जो जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित है, के लिए सहायता अनुदान की सहायता प्रदान करने के लिए नोडल एजेंसी है। विभाग की मुख्य जिम्मेदारियां निम्नलिखित हैं:-
विभाग में चिकित्सा, कृषि तथा औद्योगिक जैव प्रौद्योगिकी के विभिन्न पक्षों पर कार्य करने के लिए अधिदेशित आठ स्वायत्त संस्थान हैं। ये हैं;
जबकि विभाग में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम जो जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्रक के विकास के लिए कार्य करते हैं, निम्नलिखित हैं:
इसके अलावा, राष्ट्रीय जैव संसाधन विकास बोर्ड (एनबीडीबी) की स्थापना विभाग के अंतर्गत की गई है ताकि अनुसंधान और विकास तथा जैव संसाधनों का स्थायी उपयोगिता विशेषकर नए उत्पादों और प्रक्रियाओं के विकास के लिए जैव-प्रौद्योगिकी और संबंधित वैज्ञानिक तरीकों के प्रभावी अनुप्रयोग के लिए विस्तृत नीतिगत ढांचे का निर्णय किया जा सके। बोर्ड जैव विज्ञान के आधुनिक उपकरणों का उपयोग करते हुए त्वरित अनुसंधान और विकास के माध्यम से राष्ट्र की आर्थिक सम्पन्नता के लिए वैज्ञानिक कार्य योजना का विकास करना चाहता है। बोर्ड के क्रियाकलापों की सहायता करने के लिए एक राष्ट्रीय संचालन समिति का गठन किया गया है। जनवरी 2008 में आयोजित अपनी प्रथम बैठक में एनबीडीबी ने 3 प्राथमिकता क्षेत्रों को चुना है, जो है;-
- पौधों, जंतुओं, सूक्ष्मजीवों और समुद्री संसाधनों की डिजिटल माल सूची तैयार करना
- अनुसंधान और विकास परियोजनाएं, कार्यक्रम समर्थन, उत्कृष्टता केन्द्रों की स्थापना, प्रशिक्षण गतिविधियां और प्रदर्शन, जिनसे विशेष क्षेत्रों के जैव संसाधनों का विकास किया जा सके, जैसे कि पूर्वोत्तर क्षेत्र, हिमालच क्षेत्र, तटीय और द्वीप पारिस्थितिकी प्रणालियां, रेगिस्तान क्षेत्र, इंडो-गंगा मैदान और प्रायद्वीप भारतय तथा
- ज्ञान सशक्तीकरण और मानव संसाधन विकास ।
बोर्ड के अन्य महत्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं;
विभाग निम्नलिखित के विस्तृत क्षेत्रों में जैव-प्रौद्योगिकी के विकास और अनुप्रयोग में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर रहा है; -
1. कृषि, वर्धित कृषि उत्पादकता, रोगों का विकास, सूखा और कीट रोधी किस्मों के रूप मेंय पारजीनी जीवों के अधिक उत्पादन किस्मों का उत्पादन (पौध और पशु), संकर बीजों का विकास, संश्लेषित / कृत्रिम बीज और प्रजनन के रूप में इंजीनियरी की गई फसलें, फसलों की प्रतिकूल मौसम और मृदावस्था के प्रति सहनशीलता का वर्धन करने द्वारा खाद्य सुरक्षा में सुधारय आदि,
2. स्वास्थ्य देखभाल, सुरक्षित और किफायती टीकों का विनिर्माण के रूप में, विभिन्न रोगों का आरंभ में ही पता लगाना सुनिश्चित करने के लिए जैव- नैदानिकी किट का विकास, विभिन्न उपचारात्मक प्रोटीनों का उत्पादन, डीएनए फिंगर प्रिंट आदि का उपयोग के रूप में,
3. उद्योग, विभिन्न एसिड और एल्कोहल को तैयार करने के रूप में, विटामिन, एंटीबायोटिक, स्टेरोइड असंख्य भेषजीय औषध और रसायन, खराब होने से औद्योगिक उत्पादों का बचाव आदि के रूप में,
4. पर्यावरण और ऊर्जा, प्रदूषण नियंत्रण, जैव अवमूल्यन अपशिष्ट का पूरी तरह ऊर्जा में परिवर्तन जैसे बायोगैस ईंधन, अवमूल्य भूमि का पुनरुद्धार, प्रदूषक का पता लगाने के लिए बायोसेन्सर का विकास, औद्योगिक अपशिष्ट का उपचार आदि के रूप में।
ऐसे प्रयासों को अनुपूरित करने और जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्रक में बड़ी मात्रा में निवेश आकर्षित करने के लिए विभाग अनेकानेक नीतिगत पहलें और उपाय समय-समय पर कर रहा है। इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण 'राष्ट्रीय जैव-प्रौद्योगिकी विकास कार्यनीति' की घोषणा है। यह समग्र नीतिगत ढांचे के रूप में है ताकि जैव प्रौद्योगिकी उद्योग को बढ़ाया जा सके। यह उन भंडारों को लेता है जो भविष्य क लिए पूरा किया जाता और ढांचा प्रदान करता है, जिसके अंतर्गत कार्य नीतियां और विशिष्ट कार्य क्षेत्रक को संवर्धित करने के लिए करने की आवश्यकता है। इस नीति का लक्ष्य कृषि और खाद्य जैव-प्रौद्योगिकी, औद्योगिक जैव-प्रौद्योगिकी, उपचारात्मक और चिकित्सा जैव-प्रौद्योगिकी पुनरुत्पादक और जातिगत दवाइयों, नैदानिक जैव-प्रौद्योगिकी जैव अभियंता, नैनो जैव प्रौद्योगिकी, विनिर्माण और जैव प्रक्रियान्वयन, अनुसंधान सेवाओं, जैव संसाधनों, पर्यावरण और बौद्धिक सम्पदा कानून के क्षेत्रों में उन्नति के मार्ग प्रशस्त करना है। नीतिगाल ढांचे के मुख्य उद्देश्य हैं: 1. भारत की अकादमी और औद्योगिक जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान क्षमताओं को सुदृढ़ करने के लिए दिशा निर्धारित करना, 2. व्यापारिक प्रतिष्ठानों, सरकार और अकादमियों के साथ प्रौद्योगिकी को अनुधान से वाणिज्यिक की ओर ले जाने के लिए कार्य करना, 3. भारत का समग्र औद्योगिक विकास बढ़ाना, 4 लोगों को विज्ञान, अनुप्रयोग, जैव-प्रौद्योगिकी के लाभों और मुद्दों के बारे में सूचना देना, 5. जैव प्रौद्योगिकी की वृद्धि के लिए शिक्षण और कार्य शक्ति प्रशिक्षण क्षमताओं को बढ़ाना, 6. भारत को जैव-प्रौद्योगिकी के लिए उत्कृष्ट अंतरराष्ट्रीय स्थान के रूप में स्थापित करना। दूसरे शब्दों में यह मानव संसाधन विकास, अकादमी और उद्योग अन्तरा पृष्ठ, मूल संरचना विकास, प्रयोगशाला और विनिर्माण, उद्योग व्यापार का संवर्धन, जैव प्रौद्योगिकी पार्क और ऊष्मायित्र, विनियामक प्रक्रम, सार्वजनिक शिक्षा और जागरूकता निर्माण जैसे मुद्दों पर बल देता है। बायोटेक पार्क और बायोटेक इंक्यूबेटर केन्द्रों की स्थापना तथा विभिन्न राज्यों और संगठनों में प्रशिक्षण एवं पायलट परियोनजाओं की स्थापना जैव प्रौद्योगिकी शुरू करने वाली कम्पनियों के लिए उत्कृष्ट माहौल प्रदान करता है। इसके तहत युवा उद्यमियों को वित्तीय / युक्तिगत सहायता प्रदान करने की योजनाएं हैं, जो जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में अधिक पूंजी कम करने की स्थिति में नहीं हैं परन्तु उनके पास विकास, डिजाइन और नए जैव प्रौद्योगिकी उत्पाद और प्रक्रियन्वयनों की जैव प्रौद्योगिकीय ऊष्मायित्र और पायलट स्तर की सुविधाओं का उपयोग करके पूर्ण बनाने की क्षमताएं हैं। कुछ मौजूदा जैव प्रौद्योगिकी पार्क / ऊष्मायित्र केन्द्री और पायलट परियोजनाएं निम्नलिखित हैं;
इसके अलावा स्टेम कोशिका अनुसंधान और उपचार के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत तैयार किए गए हैं, ताकि यह सुनिश्चित करने की प्रक्रिया प्रदान की जा सके कि मानव स्तंभ कोशिकाओं के साथ अनुसंधान एक उत्तरदायी तथा नैतिक दृष्टि से संवेदनशील रूप में किए जाते हैं और इनमें सामान्य रूप से जैव चिकित्सा अनुसंधान एवं विशेष रूप से समकोशिका अनुसंधान से संबंधित सभी विनियामक आवश्यकताओं का पालन किया जाता है। इन मार्गदर्शी सिद्धांतों का लक्ष्य है-
1. नैतिकता के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए स्तंभ कोशिका अनुसंधान और उपचार के लिए सामान्य सिद्धांतों का बनाना ।
2. अनुसंधान और उपचार के लिए मानव स्तंभ कोशिकाओं के उद्भव, प्रवर्धन, अवकलन, लाक्षणीकरण, भण्डारण तथा उपयोग के लिए विशिष्ट मार्गदर्शी सिद्धांतों का निर्धारण।
भारत दुनिया का पहला देश है जहां 1987 में जैव प्रौद्योगिकी सूचना प्रणाली (बीटीआईएस) नेटवर्क बनाया गया है ताकि एक ऐसी मूल संरचना का सृजन किया जा सके जहां यह जैव सूचना विज्ञान के अनुप्रयोग के माध्यम से जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र को समर्थन देता है। यह जैव सूचना विज्ञान में मानव संसाधन के सृजन में सहायता देता है और विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान करता है। कार्यक्रम के निम्नलिखित प्रमुख प्रबलन क्षेत्र हैं:
जैव प्रौद्योगिकी में अंतरराष्ट्रीय सहयोग जैव प्रौद्योगिकी विभाग की प्रमुख शक्ति रहा है जिसमें भारत के साथ सहयोग करने वाले देशों की संख्या बढ़ गई है। इनका अनुशीलन ज्ञानाधार का विस्तार करने और विशेषज्ञता विकसित करने के लिए महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में किया जा रहा है, जो देश में अनुसंधान और विकास में गति को तेज करेगा। हालिया समय में जैव-प्रौद्योगिकी में अंतरराष्ट्रीय सहयोग में स्थायी प्रगति हुई है जिसके परिणाम स्वरूप अनेकानेक महत्वपूर्ण अनुसंधान परियोजनाएं, उत्पाद और प्रौद्योगिकी आए हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं: डेनमार्क और फिनलैंड के साथ समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए गए हैं और प्रस्तावों के लिए संयुक्त आमंत्रण जारी किए गए हैं, जैव प्रौद्योगिकी और जैविक विज्ञान अनुसंधान परिषद (बीबीएसआरसी), यूके के साथ संयुक्त परियोजनाओं का निधिकरण भी किया गया है, विभाग ने कृषि खाद्य, कनाडा और राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र, कनाडा के साथ क्रमशः दो समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए हैं, एनआईएच, यूएसए के साथ संकल्पना अनुसंधान पर नए करारनामा और गर्भ निरोधक अनुसंधान और विकास कार्यक्रम (कॉरेड) यूएसए के साथ करारनामें में संशोधन पर भी हस्ताक्षर किए गए हैं, आदि।
इन सबके परिणामस्वरूप भारत विश्व के मानचित्र पर जैव प्रौद्योगिकी केन्द्र के रूप में उभर कर सामने आया है और इसे मनपसंद निवेश स्थान के रूप में देखा जा रहा है । आण्विक जीव विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी में विकास के कारण समाज की आर्थिक खुशहाली पर सराहनीय प्रभाव पड़ा है। भारतीय जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्रक उभरते व्यापार अवसरों के लिए वैश्विक परिदृश्य में आ रहा है, और नवपरिवर्तनीय दवाइयों, कृषि में अधिक उत्पादकता और पोषक वृद्धि एवं पर्यावरण रक्षा सहित मूल्यवर्धन के लिए बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने की अपार क्षमता रखता है। तथापि, अनेकानेक सामाजिक चिंताएं हैं, जिनका समाधान करना देश की जैव प्रौद्योगिकी नवपरिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है, जैसाकि जैव संसाधनों का संरक्षण करना और उत्पादों और प्रक्रियाओं की सुरक्षा आदि सुनिश्चित करना। तदनुसार सरकार और निजी क्षेत्रक दोनों को जनसमुदाय को शिक्षित करने और हितों की रक्षा करने में तथा उनके लिए आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के लाभों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना है।
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